नैतिकता
प्रकृति की मर्यादाओं-नियत नियमों के अनुकूल दिशा में चलकर ही सुखी, शांत और संपन्न रहा जा सकता है।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
इसी को नैतिकता भी कहा जा सकता है। जिस प्रकार प्रकृति की व्यवस्था में प्राणियों से लेकर ग्रह-नक्षत्रों का अस्तित्व, जीवन और गति-प्रगति सुरक्षित है, उसी प्रकार मनुष्य जो करोड़ों, अरबों की संख्या वाले मानव समाज का एक सदस्य है, नैतिक नियमों का पालन कर सुखी व संपन्न रह सकता है तथा समाज में भी वैसी परिस्थितियां उत्पन्न करने में सहायक हो सकता है।
नैतिकता इसीलिए आवश्यक है कि अपने हितों को साधते हुए, उन्हें सुरक्षित रखते हुए दूसरों को भी आगे बढ़ने दिया जाए। एक व्यक्ति बेईमानी करता है और उसकी देखा-देखी दूसरे व्यक्ति भी बेईमानी करने लगें तो किसी के लिए भी सुविधापूर्वक जी पाना असंभव हो जाएगा। इसी कारण ईमानदारी को नैतिकता के अंतर्गत रखा गया है कि व्यक्ति उसे अपना कर अपनी प्रामाणिकता, दूरगामी हित, तात्कालिक लाभ और आत्मसंतोष प्राप्त करता रहे तथा दूसरों के जीवन में भी कोई व्यतिक्रम उत्पन्न न करे।
नैतिकता का अर्थ सार्वभौम नियम भी कहा जा सकता है। सार्वभौम नियम अर्थात् वे नियम जिनका सभी पालन कर सकें। अच्छाइयों से अच्छाइयां बढ़ती हैं, ग्रहणकत्र्ता में कौशल और सुगढ़ता ही आती है और इससे सब प्रकार लाभ ही होता है। किन्तु दूसरों के अधिकार या उनके अधिकार की वस्तुएं छीनने का क्रम चल पड़े, तो भारी अव्यवस्था उत्पन्न हो जाएगी, कोई भी सुखी नहीं रह सकेगा। फिर तो जानवरों की तरह ताकतवर कमजोर को दबा देगा। ताकतवर को उससे अधिक ताकतवर व्यक्ति दबा देगा। इसी कारण समाज में नैतिक मर्यादाएं निर्धारित हुई हैं। धर्म कर्त्तव्यों, मर्यादाओं एवं नैतिक आचरण की एक कसौटी यह भी है कि किसी कार्य को करते समय अपनी अंतरात्मा की साक्षी ले ली जाए।
यकायक किसी में अनैतिक आचरण का दुस्साहस पैदा नहीं होता। जब भी कोई व्यक्ति किसी बुरे काम में प्रवृत्त होता है, तो उसका हृदय धक्-धक् करने लगता है। शरीर से पसीना छूटता है और प्रतीत होता है कि कोई उसे इस कार्य के लिए रोक रहा है। जब कभी ऐसा लगे तो सावधान हो जाना चाहिए और उस काम से पीछे हट जाना चाहिए। जिस काम को करने में अंदर से प्रसन्नता और आनंद महसूस न हो, समझना चाहिए कि वह काम नैतिकता के अंतर्गत नहीं है, उसे त्याग देना चाहिए।
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