आध्यात्मिक विकास
तर्क का यह स्वभाव होता है कि वह हमेशा समानता की तलाश करता है, ताकि वह संबंध स्थापित कर सके। अध्यात्म की खोज के रास्ते में यह एक बड़ी रुकावट है।
सद्गुरु |
समानता और एकरूपता में इस सृष्टि के स्वरूप और स्वभाव को नहीं समझा जा सकता है। गौर से देखें तो इस रचना की केवल बाहरी सतह पर ही आपको समानताएं नजर आएंगी।
उदाहरण के लिए दो गोरे रंग के या दो काले रंग के इंसानों को ले लीजिए। आप उन्हें केवल बाहर से देखते हैं और आपको लगता है कि दोनों एक जैसे हैं, लेकिन अगर आप दोनों के भीतर जाकर जानना चाहें तो क्या वे दोनों एक जैसे होंगे? यानी समानता की खोज में तर्क सहज रूप से बाहरी सतह पर टिका रह जाता है। अगर आप भीतर की ओर जाएंगे और समानता खोजने की कोशिश करेंगे तो आप परेशान हो जाएंगे।
अगर आप किसी भी चीज को गहराई में जाकर देखें, तो चाहे आपकी उंगलियों के निशान हों, आंख की पुतली हो या बाल, हर चीज विशिष्ट है। अगर आप इस पूरे ब्रह्मांड में ढूंढें तो आपको कोई भी दो चीज ऐसी नहीं मिलेंगी, जो ठीक एक जैसी हों। समानताएं आपके मन के तार्किक पक्ष का पोषण करती हैं। आपके तर्क जितने दृढ़ होंगे, आप उतना ही सतह पर रहेंगे। इस सृष्टि के रहस्य की गहराई में उतरने के लिए आपको अपने मन को इस प्रकार से प्रशिक्षित करना होगा कि यह समान चीजों की तलाश न करे और फिर पूरी सजगता के साथ आरामदायक और सुविधाजनक स्थिति से बाहर कदम बढ़ाना होगा।
जो चीजें आपके लिए नई हैं, अज्ञात हैं, जिनसे आपका परिचय नहीं है, आप उनके साथ सहज महसूस नहीं करते। यह अपरिचित ईश्वर भी हो सकता है, लेकिन फिर भी किसी अनजान देवता के बजाय किसी परिचित दुष्ट को हम जल्दी स्वीकार कर लेते हैं। जाना-पहचाना दुष्ट भी आरामदायक लगता है। जो अनजान है, हो सकता है वह देवदूत हो, पर अनजान की खोज करने का साहस हमारे अंदर नहीं होता! लोग परिचित चीजों में ही फंस कर रह जाते हैं। वे जाने-पहचाने रास्ते पर ही रोज चलना चाहते हैं। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती है, परिचित चीजों का उनका जो दायरा है, वह छोटा होता जाता है और कुछ समय बाद उनके लिए सबसे बड़ा साहसिक काम ताबूत में चले जाना होता है।
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