विश्वास और विवेक
बुद्ध एक गांव में गए थे। एक अंधे आदमी को कुछ लोग उनके पास लाए और उन मित्रों ने कहा कि यह आदमी अंधा है और हम इसके परम मित्र हैं।
आचार्य रजनीश ओशो |
और हम इसे सब भांति समझाने की कोशिश करते हैं कि प्रकाश है, लेकिन यह मानने को राजी नहीं होता और इसकी दलीलें ऐसी हैं कि हम हार जाते हैं। और हम जानते हैं कि प्रकाश है, हमें देखते हुए हारना पड़ता है। यह आदमी हमसे कहता है, मैं प्रकाश को छूकर देखना चाहता हूं। अब हम प्रकाश का स्पर्श कैसे करवाएं?
यह आदमी कहता है छोड़ो, स्पर्श न हो सके तो मैं सुन कर देखना चाहता हूं मेरे पास कान हैं। तुम प्रकाश में आवाज करो, मैं सुन लूं। छोड़ो, यह भी न हो सके तो मैं स्वाद लेकर देख लूं या प्रकाश में कोई गंध हो तो गंध लेकर देख लूं। प्रकाश तो आंख से देखा जा सकता है और आंख इसके पास नहीं है। और यह आदमी यह कहता है कि तुम फिजूल ही मुझे अंधा सिद्ध करने को प्रकाश की बातें करते हो। तो हमने सोचा, आप इस गांव में आए हैं, शायद आप इसको समझा सकें। बुद्ध ने कहा कि मैं इसे समझाने के पागलपन में नहीं पडूंगा। आदमी की आज तक मुसीबत ही उन लोगों ने की है, जिन लोगों ने आदमी को ऐसी बातें समझाने की कोशिशें की हैं, जो उनको दिखाई नहीं पड़ती। तो बुद्ध ने कहा कि मैं यह गलती करने वाला नहीं हूं।
मैं तो इतना कह सकता हूं कि इस आदमी को तुम गलत जगह ले आए हो। मेरे पास लाने की जरूरत न थी। किसी वैद्य के पास ले जाओ जो इसकी आंख का इलाज कर सके। इसे उपदेश की नहीं, उपचार की जरूरत है। इसकी आंख ठीक होनी चाहिए। और आंख ठीक हो जाए तो तुम्हें समझाने की जरूरत न पड़ेगी, यह खुद ही देख सकेगा, खुद ही जान सकेगा। उनको बात ठीक जंची। बुद्ध ने कहा है कि मैं तो धर्म को उपदेश नहीं मानता हूं उपचार मानता हूं। तो इसे ले जाओ। वे उस अंधे को ले गए और भाग्य की बात थी कि वह अंधा कुछ महीनों के इलाज से ठीक हो गया।
बुद्ध तो दूसरे गांव चले गए थे। वह अंधा आदमी ठीक हो गया था। वह बुद्ध के चरण छूने गया और उसने उन्हें प्रणाम किया और उसने कहा कि मैं गलती में था। प्रकाश तो था, लेकिन मेरे पास आंख नहीं थी। बुद्ध ने कहा तू गलती में जरूर था, लेकिन तूने जिद की कि जब तक आंख न होगी तब तक मैं मानने को राजी न होऊंगा, तो तेरे आंख का इलाज भी हो सका। अगर तू मान लेता उन मित्रों की बात कि तुम कहते हो तो ठीक है, तो बात वहीं खत्म हो जाती।
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