कोरोना से जीत की तैयारी कितनी पुख्ता?

Last Updated 01 May 2021 11:44:54 PM IST

भारत जैसे विशाल जनसमूह वाले देश में कोरोना महामारी की दूसरी लहर कालचक्र के उस द्वार के रूप में प्रतिस्थापित है, जिसे विनाश के आगमन में प्रतीक्षारत माना जा रहा है।


कोरोना से जीत की तैयारी कितनी पुख्ता?

भयावह स्थिति, प्रतिदिन किसी अपने को खोने का डर, परिवार के प्रति चिंता और परिस्थितिजन्य दबाव, हर व्यक्ति इसका अनुभव कर रहा है। भय की स्थिति के बावजूद इस काल में विचारों की सरिता दोषारोपण की बाढ़ लेकर बह रही है। ऐसे में इस दौर में प्रश्न यह नहीं होना चाहिए कि, प्राणघातक विषाणु के कारण बनी स्थिति के लिए दोषी कौन है या किसने अपनी जिम्मेदारी से मुंह फेरा? खुद से प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि कोरोना महामारी से भविष्य में युद्ध लड़ने के लिए हम कितने तैयार हैं? हड़कंप भरे इस माहौल में प्रश्नों की सुनामी आई है, मगर ऊंची लहरों के उत्तर जिज्ञासा को शांत कर सकते हैं, इसलिए इन्हें तलाशने की कोशिश करते हैं।

पहला सवाल यह है कि कोरोना के विरु द्ध युद्ध जीतने के लिए हम कितने तैयार हैं? कोरोना महामारी के जिस कालखंड में मानवता के ऊपर संकट मंडरा रहा है, वहां चरमराई व्यवस्था के दृश्य प्रतिदिन विनाश की समीपता का बोध करा रहे हैं, लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। ऑक्सीजन की कमी, अस्पतालों में बिस्तरों का अभाव, रेमडेसिविर दवा की किल्लत, श्मशान में जलती चिताओं का रेला, शवों का अपमान देखकर जिस खीज से मन भर रहा है, वह सत्य होते हुए भी अधूरा है। केंद्र सरकार ने हर व्यवस्था का ब्लूप्रिंट बनाया है, राज्य सरकारों को केंद्र के बनाए नियमों का पालन करना है, लेकिन राज्य सरकारों ने नीति के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी उस प्रशासनिक अमले को सौंप दी, जिसके बूते कभी कोई व्यवस्था दुरु स्त नहीं हुई, और कुछ बेहतर होने की उम्मीद भी बेमानी है। यही वजह है कि आखिरकार प्रधानमंत्री मोदी को ही व्यवस्था की बागडोर हाथ में थामनी पड़ी, और धीरे-धीरे गाड़ी पटरी पर लौटती दिख रही है। रही बात जंग को जीतने की, तो संसाधनों का तेजी से विकास, सीमित उत्पादन को गति देना, विश्व को मानवता की परिपाटी सिखाने और मित्रतापूर्ण संबंधों से दिल जीतने के बाद आशा अनुरूप मदद भी मिल रही है, जो इस युद्ध में जीत के सकारात्मक संकेत हैं यानी सरकार के स्तर पर तैयारी पूरी है, सिर्फ  तैयार नहीं है तो नकारात्मक ऊर्जा से भरे लोग। जिस दिन देश की जनता अपने-अपने स्तर पर विषाणु के खिलाफ खड़ी होगी, उसी दिन महामारी पर जीत तय हो जाएगी।

सवाल यह भी है कि क्या कोरोना महामारी की इस विध्वंसक स्थिति के लिए सिर्फ  केंद्र जिम्मेदार है? सवाल इसलिए उठा कि कोरोना महामारी की पहली लहर में जब केंद्र ने अर्थव्यवस्था को प्राथमिकता के दूसरे सोपान पर रखकर कठोर निर्णय लिए, तब कोरोना संक्रमितों का आंकड़ा नवम्बर, 2020 से ढलान की ओर गया। हालात पर नियंत्रण पाने के बाद केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को अपने-अपने स्तर पर व्यवस्था बनाने की जिम्मेदारी सौंपी और केंद्र भविष्य की योजनाओं पर काम करने लगा, जिसमें न केवल देश के नागरिकों, बल्कि विश्व के जन सामान्य के जीवन की संपूर्ण सुरक्षा के लिए वैक्सीन से जुड़ी तैयारी थी, गर्त में पहुंची अर्थव्यवस्था को भी उन्नति के शिखर तक ले जाने की योजना थी। यह व्यवस्था एक रणनीति के तहत हुई थी, लेकिन राज्य सरकारों ने इस दौरान भविष्य के संकट को अनदेखा किया और जब दूसरी लहर में पानी सिर के ऊपर चला गया, तब सारी जिम्मेदारी केंद्र पर डाल दी। यही कारण है कि दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली सरकार को फटकार लगाते हुए यही टिप्पणी की, कि ‘केंद्र को जिम्मेदार ठहरा कर राज्य सरकार अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती।’ अदालत की टिप्पणी हर राज्य पर लागू होती है फिर चाहे वहां सरकार किसी भी पार्टी की क्यों न हो। अब सवाल है कि, अगर इन हालात के लिए राज्य सरकारें भी जिम्मेदार हैं तो वे क्या कर सकती थीं? जब पहली लहर में ही व्यवस्था चरमराने की आशंका थी, तो राज्य सरकारों को अपने स्तर पर राज्य की जनसंख्या के आधार पर स्थायी या वैकल्पिक व्यवस्था बनानी चाहिए थी। जब संक्रमण की दर कम हुई, तभी राज्यों को स्वास्थ्य सुविधा बेहतर बनाने में ताकत झोंकनी चाहिए थी। मगर दुखद पहलू यह है कि किसी भी राज्य सरकार ने कोरोना काल में मिली राहत का उपयोग स्वास्थ्य सेवा सुदृढ़ करने में नहीं किया। यहां तक कि कोविड मरीजों से भरे जो अस्पताल खाली हुए उनके कोविड सेंटर बंद कर दिए गए। यही गलती उन पर भारी पड़ी।

अब हालात विस्फोटक हैं, लेकिन बहुत ज्यादा देर नहीं हुई। कोरोना महामारी के खिलाफ जंग के परिणाम हर सरकार अपने पक्ष में पलट सकती है। शर्त यह है कि ठोस रणनीति बनाकर उसे सख्ती से अमल में लाना होगा। हालांकि कोरोना से कराह रहे महाराष्ट्र और दिल्ली में लॉकडाउन लगाकर संक्रमण की चेन तोड़ने की कोशिश तो की गई है, लेकिन इस बार सख्ती से ज्यादा ढील दी गई है। लॉकडाउन में बाजार बंद हैं, मास्क न लगाने पर जुर्माना भी है, लेकिन घर से बाहर निकलने वालों पर सख्ती नहीं है। अब प्रश्न अंतरआत्मा से पूछिए कि बिगड़े हालात का दोषी कौन है, केंद्र सरकार या राज्य सरकारें? सवाल यह भी है कि, देश में ऑक्सीजन की सप्लाई में परेशानी क्यों है, जबकि ऑक्सीजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के पास है? इसका जवाब कुछ राज्य सरकारों की वह चूक है, जिसमें दूरदृष्टि का अभाव था। कोरोना काल से पहले देश में ऑक्सीजन उत्पादन की प्रतिदिन क्षमता 6,500 मीट्रिक टन थी, जिसे 10 प्रतिशत बढ़ाकर 7,200 मीट्रिक टन कर दिया गया था। इससे उन राज्यों की दिक्कत तो खत्म हो गई, जो ऑक्सीजन का उत्पादन करते हैं, लेकिन उन राज्यों की बढ़ गई, जहां ऑक्सीजन का कोई प्लांट नहीं है। दिल्ली को ले लीजिए। दिल्ली सरकार को ऑक्सीजन की बढ़ती खपत से भविष्य की स्थिति का अनुमान लगा लेना चाहिए था, भले ही ऑक्सीजन प्लांट न लगाए, लेकिन टैंकर की व्यवस्था करके रखनी चाहिए थी, इन टैंकरों के जरिए सरप्लस ऑक्सीजन वाले उत्पादक राज्यों से सप्लाई की जा सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। और जब हालात बेकाबू हुए तो राज्यों ने केंद्र सरकार से गुहार लगाई जिसके बाद उसने मोर्चा संभाला।

हालात पूरी तरह सामान्य बनाने में अभी कई और चुनौतियां हैं। पहली चुनौती है आम लोगों की लापरवाही पर अंकुश। अब दूसरी चुनौतियों को समझिए:-बेहतर इलाज के संसाधनों को जुटाना, अस्पतालों का बड़ी संख्या में निर्माण और विकास, ज्यादा से ज्यादा डॉक्टरों को कोरोना महामारी के इलाज के लिए तैयार करना, औद्योगिक घरानों को कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी के लिए बाध्य करना, रोजगार की तलाश में प्रवास करने वालों के लिए अपने ही राज्य में रोजगार की व्यवस्था कराना और वैक्सीनेशन के अभियान को गति देना। तय है कि इन चुनौतियां का सामना करना कुछ बेहतर सीख भी देगा। सवाल यह भी है कि वर्तमान स्थिति में देश की मांग क्या है? इसका जवाब अतीत में बनाए गए व्यवस्था तंत्र में छिपा है। लापरवाही का सबसे बड़ा कारण है कमजोर शिक्षा व्यवस्था। आज भी हम व्यावहारिक ज्ञान को कम महत्त्व देते हैं। नतीजा है कि माध्यमिक शालाओं में भूगोल और विज्ञान की खोज होती है और उच्चतर शालाओं में इतिहास की जानकारी। बेहतर शिक्षा व्यवस्था उसे ही कहा जा सकता है, जिसमें नर्सरी के ही स्तर पर व्यावहारिक ज्ञान को मजबूती मिले। उनकी रुचि को पहचान कर उन्हें भविष्य के लिए तैयार किया जाए। ऐसा होता तो कोरोना काल में र्नसंिग और मेडिकल स्टूडेंट्स भी पूरी क्षमता से सेवा दे सकते थे क्योंकि इनमें व्यावसायिकता के भाव से ज्यादा सेवा की भावना होती। महामारी के डर से ज्यादा संक्रमितों का डर दूर करने की क्षमता होती। आपको जानकर हैरानी होगी कि आपदा की इस घड़ी में र्नसंिग और मेडिकल स्टूडेंट की सेवा न लेने का कारण सिर्फ  अनुभव का न होना है। काश, हमने शुरुआत में ही इन छात्रों में सेवा की ऐसी भावना भरी होती तो प्रतिभा संपन्न देश में आज हालात इतने विकट नहीं होते।

उपेन्द्र राय


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment