चुनाव प्रदेशों का मिजाज देश का

Last Updated 08 May 2021 09:07:22 AM IST

कोई भी परीक्षा परिणाम हार-जीत की रपट भर नहीं होता, बल्कि बीते वक्त के परिश्रम का प्रतिफल और आने वाले समय की योजना तैयार करने का संकेतक भी होता है। देश के चार राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश से आए चुनाव नतीजों को इस नजरिए से देखा जाए, तो इसमें राजनीतिक दलों के लिए सफलता का स्वाद भी है, तो नाकामी का कड़वा सबक भी है।


चुनाव प्रदेशों का मिजाज देश का

जाहिर है चुनाव राज्यों के थे, तो नतीजों में स्थानीय भावनाओं का प्रतिबिंब दिखना लाजिमी ही था, लेकिन इस लड़ाई में शामिल राष्ट्रीय दलों के कारण देश की सियासत भी नतीजों की अनुगूंज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेगी।

पश्चिम बंगाल इस मायने में ऐसा अनूठा राज्य है, जहां धुर स्थानीयता के पेच-ओ-खम के बावजूद चुनावी लड़ाई का स्वरूप राष्ट्रीय ही बना रहता है। इस बार के चुनाव में ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस ने साल 2016 की 211 सीटों वाली बंपर जीत को भी पीछे छोड़ दिया, बीजेपी तीन से 77 सीटों वाली पार्टी बन गई और पिछले चुनाव में संयोग से कुल जमा 77 सीटें ही जीतने वाले लेफ्ट-कांग्रेस का आजादी के बाद पहली बार विधानसभा से सूपड़ा ही साफ हो गया।
अंकगणित के लिहाज से पश्चिम बंगाल के नतीजे आने वाले कई वर्षो तक ध्रुवीकरण की मिसाल के तौर पर पेश किए जाते रहेंगे, जहां 292 में से 290 सीटें दो पार्टियों के बीच आंकड़ा बनकर रह गई। आगे चलकर यह बंगाल की राजनीति का टर्निग प्वाइंट भी साबित हो सकता है।

यह भी दिलचस्प है कि चुनाव में अपना सब कुछ झोंक देने के बावजूद तृणमूल और बीजेपी दोनों के लिए नतीजे मुकम्मल कामयाबी का संदेश नहीं दे पाए। 213 सीटें जीत कर ममता अपनी पार्टी का ग्राफ पिछली बार से भी ऊपर ले गई, लेकिन खुद की हार नहीं टाल पाई। इसी तरह बीजेपी प्रधानमंत्री से लेकर केंद्रीय कैबिनेट, राज्यों के मुख्यमंत्रियों और आक्रामक हिंदुत्व के तमाम दरवाजे खोल देने के बावजूद सत्ता तो दूर, उसकी दहलीज तक नहीं पहुंच पाई। आज बीजेपी बेशक, तीन से 77 सीट के सफर को बड़ी कामयाबी के तौर पर पेश कर रही हो, लेकिन शीर्ष नेतृत्व से लेकर जमीनी कार्यकर्ता की दिन-रात मेहनत का लक्ष्य क्या केवल इतना भर था। जाहिर है, लक्ष्य तो सत्ता हासिल करना ही था, जो पूरा नहीं हो सका। लेकिन इतनी कसरत के बाद अब इसकी जमीन जरूर तैयार हो गई है। लेफ्ट-कांग्रेस के सफाये के बाद बंगाल में विपक्ष की पूरी जगह अब बीजेपी के कब्जे में आ गई है। सत्ता का सफर ऐसे ही शुरू होता है। आजादी के बाद जब सत्ता कांग्रेस के पास थी, तब लेफ्ट ने मुख्य विपक्षी दल रहते हुए लगभग तीन दशक तक अपनी बारी का इंतजार किया। फिर जब लेफ्ट का 34 साल का शासन शुरू हुआ, तो शुरु आती दशक के बाद विपक्ष का दर्जा कांग्रेस के हाथ से निकल कर तृणमूल के पास चला गया जो आज सत्ता पर काबिज है। चुनावों में बंगाल की उसी पुरानी रवायत को दोहराते हुए बीजेपी अब उस जगह पहुंच गई है, जहां से सत्ता की राह खुलती है।

बंगाल में जनादेश की ज्यादा परतें दिखीं
बंगाल के अलावा जिन चार जगहों पर चुनावी घमासान हुआ, वहां के जनादेश में ऐसी परतें नहीं दिखाई देतीं, जैसी बंगाल में दिखाई दीं। तमिलनाडु और पुडुचेरी में सत्ता परिवर्तन हुआ, जिसमें कम महत्त्व का किरदार होने के बाद भी बीजेपी-कांग्रेस इनमें अपने भविष्य का ताना-बाना जोड़ने में जुट गई हैं। इसकी तुलना में असम और केरल के नतीजों का असर ज्यादा व्यापक दिखता है। दोनों राज्यों में पिछली सरकारें अपनी ताकत को बढ़ाकर सत्ता में लौटने में कामयाब हुई। असम में जीत के लिए बेशक, बीजेपी के सामूहिक प्रयास जिम्मेदार हैं, लेकिन केरल की जीत को इसी भाव से लेफ्ट के खाते में नहीं डाला जा सकता। यह दरअसल, पिनाराई विजयन का करिश्मा था, जिसने देश में दम तोड़ रहे वामपंथ को नई सियासी ऑक्सीजन दी है। एक बात और दोनों राज्यों पर लागू होती है। दोनों जगह हारने वाली पार्टी कांग्रेस रही। पिछले कुछ समय से कांग्रेस चुनावी राजनीति में लगातार ‘मिसफिट’ होती जा रही है। इस बार पार्टी ने अपने दोनों सबसे बड़े भावी चेहरों  राहुल और प्रियंका को केरल और असम की अलग-अलग जिम्मेदारी सौंपी थी, लेकिन दोनों राज्यों में इस प्रयोग को मुंह की खानी पड़ गई। बेशक, कांग्रेस को जनाधार और सीटों के लिहाज से कोई खास नुकसान नहीं हुआ है, लेकिन पांच साल विपक्ष में बैठने के बाद वक्त की दीमक राज्य में उसके संगठन को कितना खोखला करेगी, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है।
कांग्रेस के लिए समस्या एक-दो राज्य भर की नहीं है। पार्टी पहले से ही अंदरूनी कलह से जूझ रही है। दूसरा राज्यों में उसके मुकाबले में खड़े क्षेत्रीय दल और मजबूत होते जा रहे हैं, और पार्टी उनके राजनीतिक प्रभाव को बढ़ने से रोक नहीं पा रही है। इससे हो यह रहा है कि कांग्रेस की जमीन केवल सूबों में ही नहीं सिमट रही है, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी विपक्ष की राजनीति में उसकी जगह सिकुड़ती जा रही है। दरअसल, यह पूरा खेल ‘परसेप्शन’ का है, और इसमें सूबे की लड़ाई का बड़ा अहम रोल है। इसको समझने की जरूरत है। आज के दौर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चुनावी लोकप्रियता का कोई सानी नहीं है, लेकिन इसके भी दो अलग-अलग पड़ाव दिखते हैं। लोक सभा चुनाव के लिए अलग, विधानसभा चुनाव के लिए अलग। अब यह कोई राज की बात नहीं रही कि राज्यों के चुनाव में प्रधानमंत्री जैसी शख्सियत भी क्षेत्रीय नेताओं की लोकप्रियता के सामने संघर्ष करती दिखती है।

कांग्रेस की मुश्किल ज्यादा बड़ी
कांग्रेस की मुश्किल इसलिए और बड़ी दिखती है कि राष्ट्रीय स्तर पर तो उसकी गत बुरी बन ही चुकी है, राज्यों में भी कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो पार्टी में अचानक कद्दावर नेताओं का ‘सूखा’ दिखने लगा है। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि विपक्ष की केंद्रीय राजनीति में कांग्रेस जिस जगह पर खुद का नैसर्गिक अधिकार समझती रही है, वो इन चुनावों के बाद अब उसके हाथ से छिटककर ममता बनर्जी की झोली में जा गिरी है। शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव जैसे नेता आज सोनिया-राहुल को नहीं, बल्कि ममता बनर्जी को विपक्षी एकता का चेहरा बता रहे हैं। इसका एक दूसरा पक्ष भी हो सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के विरोध के साथ ही राज्यों में भी ऐसी कवायद जोर पकड़ सकती है, जहां पूरा विपक्ष एक साथ आए और उसकी लीडरशिप स्थानीय स्तर पर हो। कांग्रेस के लिए यह और बुरी खबर होगी क्योंकि इसका मतलब यह होगा कि वह कई और राज्यों में दोयम दर्जे की पार्टी बन कर रह जाएगी।

इसी तरह कई नई चुनौतियां बीजेपी का भी इंतजार कर रही हैं। इतनी लंबी-चौड़ी साधन-संपन्न चुनावी मशीनरी के बावजूद ममता का किला नहीं भेद पाने की नाकामी से यह संदेह तो उठ ही गया है कि बंगाल फतह का लक्ष्य कहीं लंबे वक्त का सपना बन कर न रह जाए। उम्मीद से कमजोर प्रदशर्न ने 2024 की तैयारियों को भी झटका दिया है। बीजेपी पिछले लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश और बिहार में मिली अधिकतम कामयाबी को इस बार बंगाल में दोहराना चाहती थी, लेकिन ऐसे नतीजों के बाद यह लक्ष्य साधना अब आसान नहीं रह जाएगा क्योंकि इस बंपर जीत के बाद तृणमूल और आक्रामक होकर अपना आधार बढ़ाएगी। जाहिर है कि इसकी भरपाई के लिए बीजेपी को अब दूसरे राज्यों के आसरे रहना होगा, लेकिन दिक्कत यह है कि इस मोर्चे पर देश की सबसे बड़ी पार्टी के पास भी ज्यादा विकल्प फिलहाल दिखाई नहीं दे रहे हैं।

उपेन्द्र राय


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