कोरोना का ’खेल‘, कैसे लगे नकेल?
देश में कोरोना की दूसरी लहर ने राष्ट्रीय आपदा जैसे हालात बना दिए हैं। असल में पिछले एक पखवाड़े के हालात देखने के बाद ‘आपदा’ जैसा शब्द भी रस्मअदायगी जैसा लगने लगा है।
कोरोना का ’खेल‘, कैसे लगे नकेल? |
अस्पतालों के अंदर सांसों के लिए छटपटाते मरीज और सड़कों पर सिसकते उनके परिजन दरअसल उस सिस्टम की उजड़ी हुई तस्वीर हैं, जिसमें स्वास्थ्य सुविधाएं ‘वेंटिलेटर’ पर हैं और संसाधनों की ‘ऑक्सीजन’ खत्म होने की कीमत आम आदमी चुका रहा है। कोरोना से जंग जीत लेने की हमारी भूल इंसानियत पर बहुत भारी पड़ गई है।
कोरोना के सक्रिय मामले जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, उससे लग रहा है मानो महामारी से निबटने के लिए जरूरी हर चीज की देश में कमी हो गई है। जीवनरक्षक दवाइयां, इंजेक्शन, अस्पतालों में बिस्तर, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर, मेडिकल स्टाफ और यहां तक की मानवता और सिस्टम की संवेदनशीलता जैसे अमूर्त ‘संसाधन’ भी ऐसा लग रहा है जैसे लापता हो गए हों। इसीलिए यह सवाल भी उठ रहा है कि बीते एक साल में इस मोर्चे को दुरुस्त करने के लिए हमारी सरकारों ने किया तो आखिर क्या किया? आखिर क्यों केंद्र में एक जिम्मेदार व्यवस्था और राज्यों में बदलाव का वादा करके आई सरकारों के होते हुए देश की अदालतों को देशवासियों का संरक्षक बन कर सामने आना पड़ा?
एक बारगी यह मान भी लिया जाए कि अपनी रफ्तार के दम पर कोरोना की यह लहर हम पर सुनामी बन कर टूट रही है, तब भी इसे कैसे नकारा जाए कि यह अप्रत्याशित नहीं था। केंद्र सरकार की खुद की समिति का सीरोलॉजिकल सर्वे फरवरी से हालात बिगड़ने की चेतावनी दे रहा था। खुद केंद्र सरकार जनवरी और फरवरी में राज्य सरकारों को दूसरी लहर से आगाह करने वाले चिट्ठियां लिख रही थी। तो फिर एक-दूसरे को जगाने की इस कवायद में आखिर किसकी नींद लग गई कि आज हजारों-लाखों जिंदगियां हमेशा-हमेशा के लिए आंखें बंद करने के लिए मजबूर हो गई। बेशक, अब जब पानी सिर तक आ गया है, तो व्यवस्थाओं को पटरी पर लाने के लिए हाथ-पैर भी चलाए जा रहे हैं। इनमें से कई प्रयास सार्थक भी दिख रहे हैं। अच्छी बात यह है कि अब कमान खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने हाथों में ले ली है। उम्मीद है कि इससे हालात सुधरेंगे और पिछले एक साल की थकान से जूझ रहे सिस्टम को भी नई ऊर्जा मिलेगी। प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों जिस तरह मुख्यमंत्रियों से लेकर दवा उत्पादकों और ऑक्सीजन निर्माताओं तक से मिल-बैठकर बात की है, उसका असर दिखने में थोड़ा वक्त लग सकता है, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे हालात में बदलाव जरूर आएगा।
बेलगाम हो रहे कोरोना को काबू में करने और इससे पैदा हो रही स्थिति से निबटने के लिए और क्या-क्या किया जा सकता है? सरकार ने गरीब तबके को अगले दो महीनों के लिए मुफ्त राशन देने का ऐलान किया है। यह बहुत अच्छा कदम है, जो बताता है कि सरकार पिछले साल की गलतियों से सबक सीखने को तैयार है, लेकिन इस ऐलान को लॉकडाउन की वापसी से भी जोड़कर देखा जा रहा है। जिस तरह नये संक्रमित रोज तीन लाख से ज्यादा की दर से बढ़ रहे हैं, उसे रोकने के लिए क्या लॉकडाउन ही सरकार के पास आखिरी विकल्प है? फिलहाल, इसकी संभावना कम ही दिखती है। पिछले साल जब देश में लॉकडाउन लगा, तब हमारे पास महामारी से लड़ने का कारगर बुनियादी ढांचा तक नहीं था। आज हमारे पास दवा भी है और टीका भी है, ज्यादा बड़ी समस्या व्यवस्था की कारगर जमावट है। वैसे भी कोरोना को लेकर पिछले एक साल में जनता थोड़ी तो जागरूक हुई है। लगातार हाथ धोने, सामाजिक दूरी रखने और मास्क पहनने जैसी बातें आबादी के एक बड़े वर्ग की आदतों में शामिल हो गया है। हालांकि यह बदलाव व्यक्तिगत प्राथमिकताओं का विषय है, और केवल इस मकसद से लॉकडाउन लगाना अच्छा विकल्प नहीं कहा जा सकता। यहां तक कि वीकेंड कर्फ्यू और अलग-अलग तरह के प्रतिबंध भी गरीब और वंचित लोगों के लिए दोहरी मार ही साबित होते हैं। दूसरी लहर के संक्रमण को रोकने में इसका वैसा असर नहीं दिख रहा जैसा पहली लहर के दौरान दिखा था। इसकी वजह यह है कि पिछली बार के विपरीत इस बार परिवार के अंदर ही सदस्यों में संक्रमण फैल रहा है। ऐसे में वृहत लॉकडाउन के बजाय प्रधानमंत्री द्वारा सुझाया गया माइक्रो कंटेनमेंट वाला विकल्प ज्यादा व्यावहारिक लगता है।
नये अवतार में कोरोना के कदम गांव-कस्बों में भी पड़ गए हैं। यह बेहद चिंताजनक तथ्य है, क्योंकि इन इलाकों में हमारी स्वास्थ्य सुविधाएं आज भी भगवान भरोसे ही हैं। ऐसे में सरकार और समाज दोनों को मिलकर आगे आना होगा। हमारी बड़ी ग्रामीण जनता अभी भी कोविड जांच, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग, क्वारंटीन सुविधाएं, आइसोलेशन बेड जैसी प्रक्रियाओं और सुविधाओं से अनजान है और रातों-रात उनके व्यवहार में बदलाव लाना अकेले सरकार के बूते की बात नहीं है। सरकार को इसकी जरूरत शहरों और महानगरों में भी पड़ेगी, हालांकि वहां संदर्भ थोड़ा अलग होगा। यह तो हर कोई जान रहा है कि कोरोना से लड़ाई अभी लंबी चलने वाली है, कम-से-कम एक साल तक या शायद उससे भी ज्यादा। जाहिर है कि पिछले एक साल से मैदान में डटा सिस्टम अगले एक और साल तक मोर्चा नहीं संभाल पाएगा। इसलिए भले आने वाले दिनों में ऑक्सीजन सप्लाई जरूरत से ज्यादा हो जाए, अस्पतालों में बिस्तरों की किल्लत दूर हो जाए, दवाई और इंजेक्शन के लिए मरीज के परिजन को दर-दर की ठोकर न खानी पड़े, तब भी देर-सबेर इस लड़ाई को सुचारू रूप से जारी रखने में जन-भागीदारी के किसी-न-किसी मॉडल की जरूरत तो पड़ेगी ही। इसके लिए सिविल सोसाइटी, गैर-सरकारी संगठन, पाषर्द-विधायक, शहरों में रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन और गांवों में पंचायत आदि के स्तर पर तालमेल व लोगों में जागरूकता बढ़ाने के लिए यह मॉडल सार्थक विकल्प बन सकता है।
इसकी सबसे ज्यादा उपयोगिता हमारे टीकाकरण कार्यक्रम में दिखाई पड़ सकती है, जो सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद अभी तक वांछित रफ्तार नहीं पकड़ पाया है। दुनिया के कई देशों में सामान्य हालत बहाल करने में टीकाकरण की अहम भूमिका सामने आई है। इजराइल में कुल आबादी का 61 फीसद टीकाकरण हो चुका है, और वह कोरोना काल में दुनिया का पहला मास्क-मुक्त देश बन गया है। ब्रिटेन भी इसी राह पर बढ़ रहा है, जहां अब तक 49 फीसद आबादी को टीका लगने से संक्रमण के मामले 97 फीसद तक कम हो गए हैं। ब्रिटेन ने जुलाई तक अपनी पूरी आबादी को टीका लगाने का लक्ष्य रखा है। मान लिया जाए कि आबादी और क्षेत्रफल के हिसाब से इजराइल और ब्रिटेन को मिसाल बनाना हमारे लिए किसी भी चुनौती को और मुश्किल बनाने जैसा हो सकता है, लेकिन इस मामले में हम अमेरिका से तो होड़ लगा ही सकते हैं, जिसने तमाम परेशानियां झेलते हुए अपनी 40 फीसद आबादी का टीकाकरण कर बिना लॉकडाउन लगाए सक्रिय मामलों को 80 फीसद तक घटा लिया है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अभी हम कोरोना की दूसरी लहर का ही सामना कर रहे हैं, जबकि इन देशों में तीसरी और चौथी लहर भी अपना कहर दिखा चुकी है। इस मायने में हमारे सामने दोहरी चुनौती खड़ी है। हमें आज की मुश्किलों से पार पाने के साथ ही भविष्य की मुसीबत के लिए भी तैयार रहना है। बेशक, अभी भी हालात ‘करो या मरो’ वाले न हों, लेकिन इतने चिंताजनक तो हैं ही कि अब ‘थोड़ा है, थोड़े की जरूरत’ नहीं, बल्कि बहुत जल्द बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है।
| Tweet |