मदद की हर आस को मिले भरोसे की सांस
जब अस्पतालों में जगह कम पड़ने लगे और श्मशान में नई जगह तलाशी जाने लगे, तो समझ लीजिए यह अवसर आपदा से कम कुछ नहीं है।
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आसन्न संकट से निबटने की कार्ययोजना को लेकर देश की अदालतें सरकारों से जवाब-तलब करने लगें, तो जान लीजिए हालात गंभीर हैं। हर नया दिन बीते वक्त पर भारी पड़ने लगे, तो मान लीजिए कि वक्त के आगे चलना कोई मजबूरी नहीं, बल्कि जरूरी है। फिलहाल यही देश की सूरतेहाल भी है।
कोरोना की दूसरी लहर ऐसा कहर बन कर टूटी है कि उससे शहर-दर-शहर सिहर गया है। जिस तरह संक्रमण के नये मामले लाखों में और मौत हजारों की संख्या को पार कर चुकी है, उससे महामारी का ग्राफ रोज नये ‘शिखर’ छू रहा है। नींद उड़ाने वाला तथ्य यह भी है कि ज्यादातर विशेषज्ञों का अनुमान है कि कोरोना का ‘एवरेस्ट’ अभी भी एक पखवाड़े से ज्यादा दूर है यानी इतने त्राहिमाम के बाद भी कोरोना की क्रूरता का कोहराम फिलहाल जल्द शांत होता नहीं दिख रहा है।
आज जैसे हालात बन गए हैं, उनमें सवाल उठने लाजिमी हैं, उठ भी रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारें भले ही एक-दूसरे की लापरवाही का रंग बताकर इन सवालों से बचने की कोशिश कर रही हों, लेकिन सांस की जंग में आस का दम उखड़ा है, तो उसका कोई-न-कोई कसूरवार तो है ही। सीरो सर्वे की भयावह ‘भविष्यवाणी’ के बावजूद अस्पताल में बिस्तर से लेकर वेंटिलेटर और दवाइयों से लेकर ऑक्सीजन तक की किल्लत हुई है, जिसमें कहीं-न-कहीं हकीकत से आंख फेर लेने और पूर्व तैयारी के मोर्चे पर बुरी तरह फेल होने का अपराध तो हुआ ही है। पिछले एक साल से कोरोना पर काबू पाने के दावे अगर आज बेदम साबित हो रहे हैं, तो इसका मतलब वास्तविकता को परखने में हमसे बड़ी भूल तो हुई है। मौजूदा परिस्थितियों को अप्रत्याशित बताकर फौरी तौर पर भले ही इन सवालों से राहत ढूंढ ली जाए, लेकिन इससे समाधान की राह पर हम कोई बहुत लंबा सफर नहीं तय कर पाएंगे। यह सवाल हर मोड़ पर हमारे सामने आकर खड़े होंगे, इसलिए जरूरी है कि इनसे भागने के बजाय साथ बैठकर अब तक जो हुआ उसकी साझा जिम्मेदारी ली जाए और आगे जो करना है, उसका जवाब भी तलाशा जाए।
दूसरी लहर ने हकीकत से कराया रू-ब-रू
कोरोना की दूसरी लहर ने संसाधन के मोर्चे पर हमें हकीकत से रू-ब-रू करा दिया है। इस मामले में कई पैमानों पर तो हमारी हालत आग लगने पर कुआं खोदने जैसी है। लेकिन प्यास बुझाने के लिए कोरोना इस बार उतना वक्त भी नहीं दे रहा है। इसलिए ‘कुआं’ खोदने के साथ ही जो हमारे पास है, उसकी सही जमावट और उसके प्रबंधन में कसावट की जरूरत है। यही शायद इस समस्या का सबसे चुनौतीपूर्ण पक्ष भी है। स्वास्थ्य कभी हमारी प्राथमिकता में नहीं रहा, इस पर हमारा खर्च भी दूसरे देशों से काफी कम है। 2019 के नेशनल हेल्थ प्रोफाइल से पता चलता है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हमारा खर्चा जीडीपी का केवल डेढ़ फीसद ही है। वि स्वास्थ्य संगठन का एक अध्ययन हमें बताता है कि यह इतना कम है कि दुनिया का मुकाबला करना तो दूर, हम दक्षिण एशिया में भी नीचे से दूसरे नम्बर पर हैं। भूटान, श्रीलंका, नेपाल जैसे देश स्वास्थ्य पर हमसे ज्यादा आनुपातिक खर्च कर रहे हैं। इसलिए जब स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को ही पर्याप्त ‘ऑक्सीजन’ नहीं मिल रही है, तो वह करोड़ों देशवासियों की सांसों का इंतजाम कैसे कर सकता है? हालत सुधारने के लिए पिछले साल इसी समय केंद्र सरकार ने 15 हजार करोड़ रुपये के पैकेज को मंजूरी दी थी। इस पैकेज से देश भर के कई अस्पताल ऑक्सीजन और वेंटिलेटर की सुविधाओं वाले बिस्तरों से ‘सुसज्जित’ हुए, लेकिन कोरोना की ‘तैयारी’ इस पर भी भारी पड़ गई।
तत्परता नहीं दोहरा पा रहे हम
केवल तैयारियों के मामलों में ही नहीं, फैसलों के स्तर पर भी हम पहली लहर के दौरान दिखी तत्परता को नहीं दोहरा पा रहे हैं। इसकी एक बानगी हमारे टीकाकरण कार्यक्रम में दिखाई दी। टीके बनाने में भारत दुनिया में सबसे अव्वल है, लेकिन फैसला लेने में हीला-हवाली के कारण हालात ‘चिराग तले अंधेरा’ वाले बन गए। टीके के लिए पहला ऑर्डर जारी करने में सरकार ने जनवरी तक का वक्त ले लिया, जबकि विदेशी एजेंसियां इससे काफी पहले भारतीय कंपनियों को ऑर्डर दे चुकी थीं। इस वजह से हमें आज भी अपनी जरूरत के मुताबिक टीका नहीं मिल पा रहा है, और हम दूसरे देशों से टीका मंगवाने के लिए मजबूर हुए हैं। मतलब चूक तो हुई है, जिसने हमें दुनिया के सबसे बड़े टीका निर्माता से टीका आयातक बना दिया है।
समन्वय की यह कमी केंद्र और राज्य सरकारों के बीच भी दिख रही है। सरकारें साथ मिलकर चलने के बजाय आमने-सामने खड़ी हो रही हैं। ऑक्सीजन को लेकर राज्यों के बीच मची लूट को केवल दुर्भाग्यपूर्ण कहकर खारिज नहीं किया जा सकता, यह दरअसल कोरोना के खिलाफ चल रही हमारी मुहिम में घुस आई अफरा-तफरी का भी बड़ा संकेत है।
तो फिर इसका इलाज क्या है? यकीनन हालात केवल शासन-प्रशासन के भरोसे बैठे रहने से नहीं सुधर जाएंगे। विशेष परिस्थितियों में संसाधनों से लेकर नीतियों तक शासन व्यवस्था के हाथ बंधे होते हैं। यही वो परिस्थितियां होती हैं, जब समाज से आगे आने की अपेक्षा की जाती है। व्यक्तिगत कोशिशों से लेकर गैर-सरकारी संगठनों की जमीनी ताकत की भूमिका अहम हो जाती है। सरकार के दिशा-निर्देशों को पैरों की बेड़ियां मानकर नहीं, बल्कि जीवन की डोर समझ कर अपनाना होगा। एक छोटी-सी कवायद चीन में हुई है, जो बताती है कि कैसे छोटी-छोटी कोशिशें बड़े-बड़े बदलाव ला सकती हैं। चीनी लोग बसंत का त्योहार बड़े जोर-शोर से मनाते हैं। जैसे हम होली-दीपावली पर घर-परिवार के बीच रहना पसंद करते हैं, वैसे ही बसंत के मौसम में चीनी लोग बड़ी संख्या में अपने गृहनगर लौटते हैं। लेकिन इस बार फरवरी में यह परंपरा बदल गई। चीन की सरकार ने लोगों से बसंत का त्योहार जहां हैं, वहीं मनाने की अपील की। सरकार की एक अपील पर बीते साल की तुलना में घर लौटने वाले की संख्या 40 फीसद तक गिर गई। वायरस की चेन तोड़कर कोरोना को काबू में लाने के लिए आम जनता का ऐसा सहयोग बेहद जरूरी है।
अनुशासन से ही बदलेगा लड़ाई का कलेवर
हमारे यहां भी अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ‘जहां हैं, वहीं रहें’ वाली अपील पर देश की जनता ऐसा अनुशासन दिखाती है, तो इससे कोरोना से लड़ाई का पूरा कलेवर बदल सकता है। इतना ही क्यों, सबसे बड़ा सहयोग तो हम यह कर सकते हैं कि जब जरूरी हो तभी घर से निकलें ताकि कोरोना की चपेट में ही न आएं। हम बीमार नहीं पड़ेंगे, तो हमारा परिवार भी सुरक्षित रहेगा। औसत एक परिवार के चार सदस्य जोड़ें तो कितनी बड़ी आबादी होगी। सोचिए, इस तरह हम चरमरा रहे अपने हेल्थ सिस्टम को कितनी राहत पहुंचाएंगे।
सरकारी स्तर पर अनलॉक 2.0 का मॉडल दोबारा अमल में लाना अच्छा विचार हो सकता है। इसके तहत बाकी गतिविधियों को सीमित करते हुए अर्थव्यवस्था का पहिया चलाने के लिए आर्थिक दृष्टि से जरूरी गतिविधियों को सख्त गाइडलाइंस के साथ जारी रखा जा सकता है।
कोरोना की चेन तोड़ने के लिए अधिक-से-अधिक लोगों का टीकाकरण करना होगा। इसके लिए टीकाकरण की रफ्तार को बढ़ाकर हर महीने में कम-से-कम 10 करोड़ टीके लगाने का लक्ष्य रखना होगा। एक मई से देश के सभी वयस्कों को वैक्सीन लगाने का फैसला इस लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ने में मदद करेगा, हालांकि सप्लाई पर दबाव का सवाल भी उठेगा। खुले बाजार में टीके की बिक्री पर भी सरकार को कड़ी नजर रखनी होगी। इससे कालाबाजारी के साथ ही वैक्सीन की बड़ी खेप के अस्पतालों के चोर दरवाजों से निकल कर खुले बाजार में स्वार्थी तत्वों के हाथों में जाने का अंदेशा है।
सौ बात की एक बात यह है कि कोरोना के खिलाफ लड़ाई किसी एक व्यक्ति, एक संस्था या किसी एक सरकार की नहीं है। यह एक सामूहिक लड़ाई है और सामूहिक जवाबदेही लेकर ही इसे जीता जा सकता है। जरूरी यह है कि मदद के लिए जगी हर आस को वक्त पर भरोसे की सांस मिलती रहे।
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