बांग्लादेश पर निगाहें, बंगाल पर निशाना

Last Updated 28 Mar 2021 12:54:13 AM IST

इस हफ्ते बांग्लादेश ने अपनी आजादी की गोल्डन जुबली मनाई, तो साल 1971 के मुक्ति संग्राम की 50 साल पुरानी तस्वीरें ताजा हो गई।


बांग्लादेश पर निगाहें, बंगाल पर निशाना

बांग्लादेश की आजादी में भारत की क्या भूमिका है, यह किसी से छिपी नहीं है, लेकिन इस अवसर पर एक ऐसे राज का भी खुलासा हुआ, जिस पर पिछले पांच दशक से पर्दा डला हुआ था। बांग्लादेश के दौरे पर पहुंचे भारत के प्रधानमंत्री ने दुनिया से एक ऐसी जानकारी साझा की, जिसके बारे में भारत में भी लोगों को ज्यादा मालूमात नहीं है। बांग्लादेश की राजधानी ढाका के नेशनल परेड स्क्वॉयर में नेशनल डे कार्यक्रम को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने बताया कि 20-22 साल के नवयुवक के रूप में वो भी बांग्लादेश की आजादी के संघर्ष में शामिल हुए थे और इस तरह बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम उनके जीवन के पहले आंदोलनों में से एक है, लेकिन प्रधानमंत्री के बांग्लादेश दौरे को लेकर हो रही चर्चाओं का यही एक विषय नहीं है।
दुनिया उनके दौरे को कूटनीतिक नजरिए से देख रही है, तो देश का विपक्ष इसमें सियासी मायने तलाश रहा है। दरअसल, दो दिन के इस प्रवास पर प्रधानमंत्री ने बांग्लादेश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री समेत सरकार के उच्च ओहदेदारों से मुलाकात की, तो वे ढाका के बाहर कुछ धार्मिंक जगहों पर भी गए। इसमें मुख्य रूप से दक्षिण-पूर्व सतखिरा का जशोरेरी मंदिर और गोपालगंज का ओराकांडी मंदिर शामिल है। जशोरेरी के काली मंदिर को 51 शक्तिपीठों में गिना जाता है, वहीं ओराकांडी मतुआ संप्रदाय की आस्था का केंद्र है। प्रधानमंत्री के दौरे को लेकर हो रही चर्चाओं का एक सिरा इसी ‘टेंपल रन’ से जुड़ा है। संयोग से इन दोनों मंदिरों का पश्चिम बंगाल से जुड़ाव है। मां काली समूचे बंगाल में आराध्य हैं, तो मतुआ संप्रदाय पश्चिम बंगाल की जातीय जमावट में अहम स्थान रखता है। एक संयोग और है। शनिवार को जिस समय प्रधानमंत्री आस्थाओं के इन दो अहम केंद्रों पर अपना शीश नवा रहे थे, उसी समय पश्चिम बंगाल में पहले चरण के लिए वोट डाले जा रहे थे।

प्रधानमंत्री का दौरा शुरू होने से पहले ही विपक्ष इन कार्यक्रमों की टाइमिंग को लेकर हल्ला मचा रहा था। खासकर ओराकांडी मंदिर को लेकर जो पश्चिम बंगाल की सत्ता की चाबी समझे जाने वाले मतुआ संप्रदाय के लिए खासी अहमियत रखता है। इसी वजह से विपक्ष को प्रधानमंत्री का यहां जाना नागवार गुजरा। मतुआ संप्रदाय बंगाल की सियासत के भविष्य को कितना प्रभावित करेगा, यह तो दो मई को पता चलेगा, लेकिन इनका इतिहास बंगाल को तभी से प्रभावित कर रहा है, जबसे बांग्लादेश आजाद हुआ है। उठापटक के उस दौर में बांग्लादेश से बड़ी आबादी ने पश्चिम बंगाल का रु ख किया था। इसमें मतुआ संप्रदाय भी था। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि मतुआ का मतलब होता है मतवाले और आज बंगाल की सियासत से नाता रखने वाला हर राजनीतिक दल उनके लिए मतवाला है। बंगाल की सियासत में इस संप्रदाय का ऐसा ‘खेला’ है, कि इन्होंने जिसका साथ पकड़ा, सत्ता उसके हाथ में आ गई। पहले लेफ्ट, फिर ममता और पिछले लोक सभा चुनाव में बीजेपी।
इस ताकत के पीछे का अंकगणित बिल्कुल स्पष्ट है। बंगाल की कुल आबादी में अनुसूचित जाति का हिस्सा 23.51 फीसद है और मतुआ संप्रदाय इस अनुसूचित जाति का पांचवां हिस्सा है। राज्य की 294 विधानसभा सीटों में 70 से लेकर 100 सीटों पर यह संप्रदाय खेल बनाने और बिगाड़ने की हैसियत रखता है। इन्हें वोट देने का अधिकार तो है, लेकिन 50 साल से शरणार्थी होने के कारण नागरिकता इनके लिए भावनात्मक मुद्दा है। साल 2019 के लोक सभा चुनाव में जब प्रधानमंत्री ने इस संप्रदाय में भगवान की तरह पूजे जाने वाले हरिचंद-गुरु चंद ठाकुर के वंशज प्रमथा रंजन ठाकुर की पत्नी बीणापानी देवी उर्फ बड़ो मां के घर पहुंच कर उनके पैर छुए और इस संप्रदाय को नागरिकता देने की बात कही, तो एक झटके में उन्होंने बंगाल में बीजेपी को फर्श से अर्श पर पहुंचा दिया। जब संशोधित नागरिकता कानून के कारण इस रिश्ते में खटास घुली, तो गृहमंत्री अमित शाह ने बिना देर किए ऐलान किया कि कोरोना टीकाकरण के बाद इसे लागू किया जाएगा। विपक्ष ढाका से 150 किलोमीटर की यात्रा कर ओराकांडी मंदिर पहुंचने के प्रधानमंत्री के कार्यक्रम को इसी कोशिश से जोड़ कर देख रहा है। दलील यह दी जा रही है कि जब साल 2015 में प्रधानमंत्री बांग्लादेश गए थे, तब उन्हें मतुआ संप्रदाय की याद क्यों नहीं आई?
इस विवाद में साल 2018 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के समय प्रधानमंत्री की काठमांडू के पशुपतिनाथ मंदिर में उपस्थिति और पिछले साल लोक सभा चुनाव के आखिरी चरण के समय केदारनाथ की गुफा में ध्यान लगाने के कार्यक्रम को भी घसीटा जा रहा है। इन सियासी दांव-पेचों से इतर प्रधानमंत्री के बांग्लादेश दौरे की कूटनीतिक महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। खासकर इस मायने में कि हाल के दिनों में चीन ने निवेश के माध्यम से यहां अपना दखल काफी बढ़ा लिया है। बांग्लादेश में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए चीन ने उसे वन बेल्ट, वन रोड परियोजना का हिस्सा भी बनाया हुआ है। इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर चीन ने बांग्लादेश को डेढ़ लाख करोड़ रुपये का लोन दिया है, जो आर्थिक और सामरिक नजरिए से भारत के हितों के बिल्कुल अनुकूल नहीं है। इतना ही नहीं रक्षा मामलों में साझेदारी के साथ-साथ चीन ढाका के पास एक मेगा स्मार्ट सिटी और पूर्वी बांग्लादेश में सिलहट में एक एयरपोर्ट भी तैयार करवा रहा है।
बांग्लादेश से आने वाले 97 फीसद सामान को ड्यूटी फ्री कर चीन ने बड़ा दांव खेला है। बांग्लादेश को उसकी आजादी की बधाई देने के लिए चीन के राष्ट्रपति शी जिनिपंग ने शेख हसीना को एक खास वीडियो संदेश भेजा था। खास बात ये है कि चीन ने किसी दूसरे देश के लिए आज तक ऐसा नहीं किया है। भारत के लिए इससे सतर्क होने की जरूरत इसलिए है कि चीन एक बड़ी साजिश के तहत भारत के पड़ोसियों पर अपना जाल फैला रहा है। नेपाल और श्रीलंका का अनुभव ज्यादा पुराना नहीं है। वैसे भी बांग्लादेश हमेशा से हमारा अहम पड़ोसी रहा है। दोनों देशों की सीमाएं चार हजार किलोमीटर से ज्यादा लंबी हैं, यहां 54 नदियों का पानी साझा होता है और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि बांग्लादेश दक्षिण एशिया में हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार भी है। इस अहमियत को बांग्लादेश भी बखूबी समझता है।
चीन के लिए झुकाव पर बांग्लादेश की ओर से अक्सर यह सफाई सुनने में आती है कि सबसे करीबी पड़ोसी होने के कारण भारत से उसकी अपेक्षाएं भी ज्यादा हैं, लेकिन द्विपक्षीय परियोजनाओं को पूरा करने में चीन के मुकाबले धीमी रफ्तार के कारण कभी-कभी दोनों देशों के रिश्तों में फासले दिखाई देने लगते हैं। आशा है कि प्रधानमंत्री का यह दौरा बांग्लादेश की इस शिकायत को दूर करने और दोनों देशों को ज्यादा नजदीक लाने की दिशा में सहायक बनेगा।

उपेन्द्र राय


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