स्वास्थ्य दिवस : मातृ-शिशु देखभाल बेहद जरूरी
बेहतर स्वास्थ्य को मानव जीवन के विकास की कुंजी माना जाता है। भारतीय मान्यताओं में मनुष्य के ‘पहले सुख’ के रूप में ‘निरोगी काया’ को ही निरूपित किया गया है।
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कहावत प्रचलित है, ‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है’। ऐसे में हम कह सकते हैं कि स्वास्थ्य ही मनुष्य की सर्वाधिक मूल्यवान संपदा है।
स्वास्थ्य के अनेक संकेतक बताते हैं कि विकसित और विकासशील राष्ट्र सभी अपने-अपने तरह की स्वास्थ्य चिंताओं से घिरे हैं, और इनसे निकलने के लिए प्रयासरत हैं। अनेक कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के बावजूद संचारी और गैर-संचारी बीमारियों का दायरा अभी भी बहुत व्यापक है। मातृ एवं शिशु मृत्यु दर में भले ही कमी आई हो परंतु आज भी बड़ी संख्या में माताओं और बच्चों की प्रसव संबंधी कारणों से मृत्यु हो रही है। इन चिंताओं के प्रति सजगता पैदा करने के उद्देश्य से डब्ल्यूएचओ की पहल पर प्रत्येक वर्ष 7 अप्रैल को ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
वर्ष 2025 के लिये डब्ल्यूएचओ ने मातृ और शिशु स्वास्थ्य को गंभीर मुद्दा मानते हुए ‘स्वस्थ शुरुआत, आशापूर्ण भविष्य’ जैसी संवेदनशील विषय पर थीम रखी है। इस वर्ष की थीम सुनिश्चित करने का प्रयास है कि माताओं और नवजात शिशुओं को जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं मिलें ताकि भविष्य में आने वाली पीढ़ी स्वस्थ और सशक्त हो। भारत के दृष्टिकोण से स्वास्थ्य सेवाओं को देखने से एक लंबा एवं प्रभावकारी बदलाव दिखाई देता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के विभिन्न कार्यक्रमों ने मनुष्य के स्वास्थ्य को बेहतर बनाया है। लेकिन इसके बाद भी प्रत्येक वर्ष भारत में गर्भावस्था-प्रसव से जुड़े कारणों से लगभग बीस हजार महिलाओं की मृत्यु हो जाती है।
आश्चर्यजनक बात यह है कि इन मौतों में से अधिकांश ऐसे कारणों से हो रही हैं, जिन्हें सजगता, सावधानी और ससमय उपाय करके रोका जा सकता है। कवि सोहन लाल द्विवेदी ने कहा है, ‘असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो, क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।’ इससे प्रेरणा लेकर स्वास्थ्य सेवा तंत्र, संगठन और हर जिम्मेदार नागरिक को अपने दायित्वों के प्रति विचार करना चाहिए और आवश्यक पहल कर सुधार प्रक्रिया का सारथी बनना चाहिए।
अधिकांश लोग इस बात से अनभिज्ञ हैं कि एक महिला गर्भकाल में किन-किन स्वास्थ्य चुनौतियों जैसे मैटरनल एनिमिया, प्रग्नेंसी के कारण हाइपरटेंशन, डायबिटीज और अन्य संक्रमण और बीमारियां, जो पहले से मौजूद होती हैं जैसे हेपाटाइटिस, एचआईवी, थायराइड, हृदय रोग एवं अन्य संचारी-गैर संचारी संक्रमणों/बीमारियों से गुजरती है। इन सब बीमारियों/संक्रमण की समय रहते जांच करा क र महिला एवं बच्चे को स्वास्थ्य खतरों से बचाया जा सकता है।
गर्भावस्था के दौरान बीपी और शुगर बढ़ने का असर मां के स्वास्थ्य पर तो पड़ता ही है, जन्म लेने वाले बच्चे को भविष्य में हाइपरटेंशन और डायबिटीज होने की आशंकाएं भी इसी काल में जन्म लेती हैं। यदि हम नवजात शिशु के स्वास्थ्य की शुरुआती देखभाल की बात करें तो सर्वप्रथम उसे ‘मां का पहला दूध (कोलोस्ट्रम)’, पहले छह माह ‘पूर्णत: स्तनपान’, छह माह के बाद ‘स्तनपान भी, आहार भी’, ‘अनिवार्य टीके’ और आवश्यक ‘पोषण’ दिया जाना महत्त्वपूर्ण है। जन्म के पहले 1000 दिन (गर्भधारण से लेकर 2 साल तक) बच्चे के स्वास्थ्य के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं। इस दौरान देखभाल से मां के साथ-साथ बच्चे को भविष्य में कुपोषण, निमोनिया/डायरिया, मोटापा (चाइल्डहुड ओबेसिटी) जैसे रोगों से बचाया जा सकता है।
आज के दिन मातृत्व एवं शिशु स्वास्थ्य की बात हो रही है, तो बताना जरूरी है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत जननी सुरक्षा योजना, जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम, प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व कार्यक्रम, टीकाकरण तथा अन्य विभागों द्वारा एनिमिया-मुक्त भारत, राष्ट्रीय पोषण मिशन, प्रधानमंत्री मातृत्व वंदना योजना जैस कार्यक्रम चला कर व्यापक स्तर पर बदलाव लाने की कवायद की जा रही है।
गर्भवती महिलाओं को गर्भकाल में नि:शुल्क अल्ट्रासाउंड की सेवाएं सरकारी सेवा केंद्रों के साथ-साथ प्रत्येक माह की 1, 9, 16 एवं 24 तारीख को प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व दिवस में वाउचर जारी कर निजी क्षेत्र के अल्ट्रासाउंड केंद्रों से उपलब्ध कराई जा रही हैं। आवश्यकता इस बात है कि गर्भधारण होते ही शीघ्र पंजीकरण, चार अनिवार्य जांचें, अल्ट्रासाउंड, आयरन व कैल्शियम की गोलियों का नियमित सेवन करने के लिए महिलाएं स्वयं तैयार हों एवं उन्हें परिवार का समर्थन भी मिले। स्वास्थ्य मौलिक अधिकार है, और इसे सुनिश्चित करने के लिए सरकार के साथ-साथ सभी नागरिकों/संगठनों को यथासंभव अपने स्तर से स्वास्थ्य सेवाओं की ग्राह्यता बढ़ाने के लिए पहल करनी होगी। तभी हम सशक्त राष्ट्र के निर्माण का सपना पूरा होता देख सकेंगे।
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