विरासत : मांझी के कुछ सपने पूरे, कुछ अधूरे
दशरथ मांझी ने जीवन जीने की ऐसी राह दिखाई जो अपने त्याग के बल पर आसपास के सभी लोगों, अपने और अनेक गांवों के लोगों की भलाई पर आधारित थी।
![]() विरासत : मांझी के कुछ सपने पूरे, कुछ अधूरे |
पर्वत पुरुष के रूप से पहचान बनाने वाले इस महादलित समुदाय के महापुरुष ने सबसे निर्धन भूमिहीन परिवार में जन्म लेने के बावजूद ऐसे कार्य किए जिनसे आज तक अनेक जाने-माने व्यक्ति तो उनका सम्मान करते ही हैं, राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री और देश के पूर्व प्रधानमंत्री तक उनकी प्रशंसा कर चुके हैं। गांव के मौजूदा मुखिया कहते हैं कि दशरथ मांझी ने वि के मानचित्र पर इस उपेक्षित क्षेत्र की उपस्थिति दर्ज करवा दी।
दशरथ ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने जीवन-भर अपने दिल से दूसरों के हित को ऊपर समझा और व्यापक जन-हित के लिए कुछ करने की ठान ली तो फिर उसके लिए आश्चर्यजनक दृढ़-निश्चय से कार्य किया। गया जिले (बिहार) में स्थित उनके गेहलौर गांव (प्रखंड मोहरा) में एक ऊंचा, विकट पहाड़ है, जिसके कारण सबसे नजदीक के शहर की सुविधाओं, अस्पताल, स्कूल, रोजगार-स्थल से संपर्क नहीं हो पाता था और कोई 15 किमी. की दूरी 55 किमी. के लंबे रास्ते से पार करनी पड़ती थी। इसी पहाड़ पर किसी आजीविका अर्जन के लिए गए दशरथ को खाना-पानी देने उनकी पत्नी फाल्गुनी देवी गई तो विकट पहाड़ पर गिर कर घायल हो गई।
अपने स्वभाव के अनुकूल सबके दर्द को अपनाने वाले दशरथ पत्नी की पीड़ा से कैसे आहत न होते और इसी स्थिति में उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि पहाड़ को तोड़ कर ऐसी राह निकालेंगे जिससे गांववासी दूसरी पार की सुविधाओं तक पंहुच सकें। तभी से हथौड़ा-छेनी लेकर पहाड़ तोड़ने में लग गए और 22 वर्षो तक 1960 से 1982 तक इस काम में लगे रहे और अंत में सफलता प्राप्त की। 26 वर्ष में यह कार्य आरंभ कर 48 वर्ष की आयु में पूर्ण किया। पहले तो आसपास के लोगों ने उनका मजाक उड़ाया पर जैसे-जैसे वे सफलता के नजदीक पहुंचे तो उन्होंने कुछ सहायता भी की। सफलता मिलने के बाद दशरथ मांझी के बनाए रास्ते को सरकार ने कुछ और चौड़ा कर दिया और धीरे-धीरे यह सामान्य सड़क बन गई।
दशरथ मांझी के कार्य को समझने के लिए जरूरी है कि वे संत कबीर के प्रति बहुत आस्थावान थे। उनके विचारों से प्रेरित वे दूसरों की भलाई के लिए प्रयासरत रहे। जब यह लेखक उन्हें जानने-पहचानने वाले कुछ आसपास के गांववासियों से मिला, तो उन्होंने बताया कि वे मीठी भाषा बोलते थे पर इसमें कभी-कभी कठोर सच्चाई भी कह जाते थे। इन लोगों ने बताया कि वे जब वहां से गुजरते तो हथौड़े-छेनी से पहाड़ तोड़ने के काम में मांझी को तल्लीन देखते। इसके साथ-साथ वे मजदूरी कर अपने चार सदस्यों के परिवार का भरण-पोषण भी करते थे। अपनी जरूरतों को न्यूनतम रखते थे। भूख-प्यास दूर रखने के लिए खिचड़ी और सत्तू उन्हें प्रिय थे। सत्तू तथा पानी साथ रखते थे। पहाड़ में राह निकालने की सफलता प्राप्त करने के बाद भी वे गांववासियों की भलाई के लिए सक्रिय रहे और रेल पटरी के किनारे चल कर दिल्ली पहुंच गए।
उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले, और बाद में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिले। बहुत बड़े नेताओं का सम्मान उन्हें मिला। वर्ष 2007 में दिल्ली के एम्स अस्पताल में मृत्यु होने पर उनके गांव में उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान से हुआ, उनकी समाधि बनाई गई, उनकी याद में प्रवेश द्वार बनाए गए। पर हाल में यह लेखक जब गेहलौर पंचायत की सबसे निर्धन बस्तियों में गया और मांझी समुदाय के अनेक परिवारों से बातचीत की तो उसने देखा-सुना कि ये परिवार दूर-दूर की ईट-भट्ठों में प्रवासी मजदूर के रूप में जाते हैं।
शोषण की स्थिति में प्रवासी मजदूरी करने को मजबूर हैं क्योंकि स्थानीय स्तर पर रोजगार बहुत ही कम हैं। पेयजल का घोर संकट भी उनकी बस्तियों में है। कुछ बस्तियों के लोगों को पुराने जमींदारों के वंशज यह कह कर धमकाते हैं कि यह उनकी जमीन है। यहां से हट जाओ और उनसे पैसा वसूलते हैं। ऐसे अनेक महादलित परिवारों को वन-विभाग हटने को कहता है। हाईवे चौड़ा होने से विस्थापन का खतरा है और सबसे निर्धन परिवारों को डर है कि सभी कागज-पत्र न होने पर उन्हें ठीक से अन्य स्थान पर बसाया नहीं जाएगा। बिजली के भारी बिल कुछ परिवारों को भेजे गए हैं। कुल मिला कर ऐसे अनेक परिवारों, जो नाती-रिश्तेदारी में दशरथ मांझी से जुड़े हैं, से बातचीत करने पर स्पष्ट हुआ कि वे बहुत कठिन स्थिति में जी रहे हैं और यह स्थिति आगे और भी विकट हो सकती है।
दूसरी ओर, इस विकट स्थिति के बीच राहत दिलवाने का कार्य इस पंचायत में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की सम्मान परियोजना के अंतर्गत किया गया है। इसका क्रियान्वयन सहभागी शिक्षण केंद्र के कर्मठ कार्यकर्ताओं की सहायता से किया गया है। इसके अंतर्गत बकरी-पालन और सिलाई प्रशिक्षण देकर रोजगारों को बढ़ाने, मातृत्व सुरक्षा, स्कूलों और आंगनवाड़ी के सुधार, स्कूल-पूर्व शिक्षा के विस्तार, प्रकाश और पानी की कुछ स्थानों पर बेहतर व्यवस्था, पोषण और स्वास्थ्य सुधार के महत्त्वपूर्ण कार्य किए गए हैं। दशरथ मांझी स्वास्थ्य और शिक्षा सुधार के लिए और बेहतर आजीविकाओं के लिए प्रतिबद्ध रहे और यह कार्य उनकी चाह के अनुसार है। कम समय में ही इस परियोजना ने उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की और निर्धन परिवारों सहित गांव समुदाय का विास भी प्राप्त किया। यह 18 महीने की परियोजना है और इसे और इसके कायरे को बढ़ाने, समुदाय से और व्यापक और दीर्घकालीन संबंध बनाने की जरूरत है।
जहां इन सभी सहायता-कायरे की सफलता को और बढ़ाना चाहिए वहां निर्धन परिवारों, दलित और महादलित परिवारों की कुछ अधिक गंभीर समस्याओं पर अधिक ध्यान देने और विशेषकर उनके आवास भूमि-अधिकारों को अधिक सुरक्षित करने की आवश्यकता है। जहां एक ओर ये परिवार कृषि भूमि से वंचित हैं, वहां दूसरी ओर यदि इनके आवास-भूमि अधिकार भी पक्के नहीं किए जाएंगे, तो इससे परिवारों का दुख-दर्द बहुत बढ़ जाएगा और यह दशरथ मांझी के विचारों और विरासत के बहुत प्रतिकूल होगा।
दशरथ ने पूरे गांव की भलाई के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया, उनकी समाधि बनाई गई और मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री स्तर पर उनके कार्य को मान्यता मिली। इस सबके बावजूद उनके मांझी समुदाय को आज भी दूर-दूर के ईट-भट्ठों में शोषण सहना पड़ता है और उनके आवास भूमि अधिकार तक पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं तो यह सभी की चिंता का विषय होना चाहिए। दशरथ मांझी को अपने सभी गांववासियों और आसपास के गांवों के लोगों के हितों की चिंता थी और उन्होंने पर्वत काट कर भी उनके लिए रास्ता बना दिया। आज समाज की व्यापक जिम्मेदारी है कि उनके जैसे निर्धन परिवारों की रक्षा करे। सम्मान परियोजना ने इस सोच को आगे बढ़ाया है-शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका रक्षा के कायरे को आगे बढ़ा कर। अब इस पहल को और व्यापक करना जरूरी है ताकि यहां के निर्धन परिवारों को अधिक व्यापक और दीर्घकालीन सहायता और राहत मिल सके।
| Tweet![]() |