किसानों की आत्महत्या : कब तलक होगा समाधान
संख्या में किसान और खेतिहर मजदूर देश के विभिन्न राज्यों में प्रति वर्ष आत्महत्या करते हैं, अन्य पेशों की अपेक्षा आत्महत्या करने वालों में उनकी संख्या अधिक होती है।
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यद्यपि यह विव्यापी समस्या है किंतु भारत जैसे देश, जहां आधी से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है, में यह चिंता का विषय है। किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं सबसे अधिक महाराष्ट्र में होती हैं, जो संपन्न राज्य है, आंध्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और पंजाब में भी आत्महत्या के अधिक मामले सामने आते हैं।
आजादी के 75 वर्ष बाद भी छोटे और मार्जिनल किसानों को अर्थव्यवस्था में विकास का लाभ बड़े किसानों की अपेक्षा कम मिला। अधिकांश छोटे किसान कर्ज में डूबे होते हैं, प्राकृतिक आपदाओं से फसल के नुकसान को बर्दाश्त करने में असफल होते हैं, आमदनी इतनी नहीं होती कि घर के खर्चे पूरे कर सकें, शादी- ब्याह और त्योहारों, बच्चों की शिक्षा और परिवार के स्वास्थ्य के खर्चे निकाल सकें, जीवन सुख से बिता सकें। गांवों में पिछड़ों और दलितों की स्थिति तो और भी नाजुक है। खेती की बढ़ती लागत, सिंचाई की खराब व्यवस्था, महंगे रासायनिक उर्वरकों का उपयोग, नशाखोरी भी उनकी समस्याओं को बढ़ाते हैं। आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण मानसिक तनाव होता है जो फसल बर्बाद होने और पारिवारिक समस्याओं के कारण सबसे अधिक होता है। 1990 से शुरू आर्थिक सुधारों के फलस्वरूप निवेश औद्योगिक, वित्तीय और व्यावसायिक क्षेत्रों में अधिक होने लगा। कृषि गौण हो गई, शहरीकरण में तेजी आई, गांव पीछे रह गए। संसद और विधायिकाओं में गांव के प्रतिनिधियों की अधिकता के बावजूद छोटे किसानों और कृषि मजदूरों की हालत में खास सुधार नहीं हुआ। बड़े किसानों को लाभ हुआ, उनकी सरकार में भागीदारी बढ़ी, पॉलिटिकल पावर भी।
किसानों का नेतृत्व भी उन्हीं के हाथ में चला गया जो अब तक बरकरार है। कृषि उत्पादन का व्यापार उनके नियंत्रण में है, सरकार द्वारा कृषि कानूनों में सुधार, जो छोटे किसानों को लाभ दे सकता था, ठंडे बस्ते में रह गया। हरित क्रांति 1960 के दशक में हुई, खेती की पैदावार में अच्छी बढ़ोतरी हुई, किंतु खेती की लागत भी बढ़ती गई, कृषि उत्पादों की कीमत अपेक्षाकृत कम बढ़ी, क्रांति का बड़ा लाभ धनी किसानों को हुआ जिनके पास बड़े-बड़े खेत थे, छोटे किसान फिर भी मार्जिन पर ही रह गए।
1990 के दशक से किसानों की आत्महत्या की घटनाएं अधिक रिपोर्ट की गई। 1995-2013 के बीच 296438 किसानों ने आत्महत्या की। 2018 तक यह संख्या चार लाख के ऊपर पहुंच गई थी, प्रति दिन औसतन 48 आत्महत्या की घटनाएं रिपोर्ट की गई। 2017-21 के बीच 286000 आत्महत्या की घटनाएं हुई जिनमें 55 प्रतिशत किसानों द्वारा की गई थीं। नेशनल क्राइम ब्यूरो के अनुसार 2022 में 11290 किसानों और कृषि मजदूरों द्वारा आत्महत्या की रिपोर्टे आई। 2021 की अपेक्षा यह 3.7% व 2020 की अपेक्षा 5.7% अधिक था। 2020-22 में देश के दो तिहाई हिस्से में सूखा पड़ गया था, अत्यधिक गर्म हवाओं के कारण तापमान में और वृद्धि हो गई थी। फलस्वरूप गेहूं, फल-सब्जियों की पैदावार में कमी हुई। चारे के दामों में वृद्धि, पशुओं में बीमारी और मृत्यु से किसानों को और भी धक्का लगा। प्याज और टमाटर जैसी फसलों का बंपर उत्पादन भी कई बार किसानों के लिए मुसीबत बन जाता है। कीमतें गिर जाती हैं, फसल फेंकने तक की नौबत आ जाती है।
ऐसे समय में आत्महत्या की घटनाएं बढ़ जाती हैं। महाराष्ट्र सरकार ने 2008 में मनी लेंडिंग रेग्युलेशन एक्ट पास किया था। इसका उद्देश्य था साहूकारों द्वारा भारी ब्याज और उगाही के तरीकों पर नियंत्रण करना। किसानों को आपदा से बचाने के लिए महाराष्ट्र सरकार द्वारा उठाए गए कदम प्रभावशाली नहीं रहे। इंदिरा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ डवलपमेंट रिसर्च द्वारा महाराष्ट्र में भारी संख्या में किसानों द्वारा आत्महत्या के मुख्य कारण थे-किसानों पर कर्ज, कम आमदनी, मौसम की मार, सूखा आदि से फसलों की बर्बादी, पारिवारिक समस्याएं जैसे बीमारी, लड़िकयों की शादी में दहेज, शिक्षा की कमी आदि। पूर्वोत्तर के राज्यों, उत्तर प्रदेश और बिहार, हरियाणा, केंद्रशासित चंडीगढ़, पांडिचेरी और लक्षद्वीप में किसानों द्वारा आत्महत्या की कम घटनाएं आती हैं। कृषि क्षेत्र में आत्महत्या रोकने के जो प्रयास अब तक किए गए हैं, वे आधे-अधूरे हैं। किसानों की आमदनी जब तक इतनी नहीं होती कि अपना जीवन यापन ठीक से कर सकें, इस स्थिति में बदलाव संभव नहीं है। चुनाव के समय राजनीतिक पार्टयिां किसानों के कर्ज माफ करने और उनको जो सुविधाएं देने का वादा करती हैं, चुनाव बाद उन्हें भूल जाती हैं।
केंद्र सरकार की कुछ योजनाओं का लाभ किसानों तक पहुंचा है इसमें संदेह नहीं किंतु इनमें से अधिकांश योजनाओं का लाभ बड़े किसानों को अधिक हुआ है। किसान क्रेडिट कार्ड, फसल बीमा योजना, उर्वरक पर नीमकोटि, लघु सिंचाई योजनाएं किसानों के लिए लाभप्रद हैं। गांव में सड़क, बिजली स्वच्छ पेयजल,शौचालय आदि की व्यवस्था भी किसानों के जीवन स्तर को उठाने में कारगर हुई हैं किंतु कृषि और ग्रामीण विकास के लिए जो बजट आवंटन केंद्र और राज्य सरकारें करती हैं, वह आवश्यकता से बहुत कम है। किसानों के लिए प्रधानमंत्री की मानदेय योजना अच्छी है किंतु इसमें दिए जाने वाली राशि ?6000 वर्ष की है जो बढ़ाई जानी चाहिए। प्राकृतिक आपदाओं और मौसम की मार से जब भी फसलों को नुकसान होता है राज्य और केंद्र सरकारों की जिम्मेदारी बनती है कि तुरंत किसानों को नुकसान की भरपाई की जाए। किसानों को उनके उत्पाद का पूरा पैसा नहीं मिलता, कृषि पदार्थोंकी कीमत औद्योगिक पदार्थोंके मुकाबले बहुत कम है, जो औद्योगिक क्रांति की देन है, यह विव्यापी समस्या है। खाद्यान्नों के अच्छे उत्पादन के बल पर ही सरकार के लिए संभव है कि 80 करोड लोगों को मुफ्त राशन दिया जा रहा है, दूसरे देशों को भी निर्यात किया जाता है। किसानों की आय दुगनी करने के लिए सरकार ने जो वादे किए हैं, उनको अमल में लाने की आवश्यकता है।
(लेख में विचार निजी हैं)
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