गोरैया दिवस : इनके बिना आंगन सूना
गोरैया जो कभी हर आंगन, छत तथा बगीचे में चहकती थी और हमारी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा हुआ करती थी, आज दुर्लभ होती जा रही है। प्यारा सा पक्षी, जो हमारे घरों और आसपास पेड़-पौधों पर बसेरा करता था, आज विलुप्ति के कगार पर है।
![]() गोरैया दिवस, इनके बिना आंगन सूना |
एक समय था, जब सुबह आंख खुलते ही गोरैया की चहचहाहट से दिलोदिमाग को सुकून मिलता था लेकिन अब यह चहचहाहट कहीं गायब सी हो गई है। गोरैया का भारतीय लोक कथाओं और कविताओं में विशेष स्थान रहा है, और यह हमारी भावनाओं और जीवन के दैनिक अनुभवों का हिस्सा रही है। करीब दो दशक पहले तक यह चिड़िया हर कहीं झुंड में उड़ती देखी जाती थी लेकिन अब संकटग्रस्त पक्षी की श्रेणी में आ गई है। भारत के अलावा यूरोप के कई हिस्सों में भी गोरैया की संख्या काफी कम हो गई है। नीदरलैंड में तो गोरैया को ‘दुर्लभ प्रजाति’ की श्रेणी में ही रख दिया गया है। जर्मनी, ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, चेक गणराज्य जैसे देशों में भी इनकी संख्या तेजी से घट रही है।
लोगों को गोरैया के संरक्षण के लिए उपाय करने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से हर साल 20 मार्च को ‘विश्व गोरैया दिवस’ मनाया जाता है। यह दिवस 2010 में ‘नेचर फॉरएवर सोसायटी’ द्वारा शुरू किया गया था, जिसकी स्थापना प्रसिद्ध भारतीय पर्यावरणविद् मोहम्मद दिलावर ने की थी। गोरैया केवल पक्षी नहीं है, बल्कि हमारे बचपन की यादों, संस्कृति और पर्यावरणीय संतुलन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, जिसका जैव-विविधता में महत्त्वपूर्ण योगदान है। गोरैया छोटे कीटों और अनाज के दानों पर निर्भर रहती है, जिससे कृषि भूमि पर कीटों की संख्या को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। गोरैया मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने में सहायता करती है।
यह खाद्य श्रृंखला का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है और अन्य प्राणियों के लिए भोजन के स्रेत के रूप में भी कार्य करती है। शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण गोरैया के प्राकृतिक आवास नष्ट हो रहे हैं। पेड़ों की कटाई और पारंपरिक घरों की जगह कंक्रीट के भवनों ने इनके घोंसले बनाने की जगह सीमित कर दी है। वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण गोरैया की संख्या में भारी गिरावट आई है। मोबाइल टावरों से निकलने वाली रेडिएशन भी इनके अस्तित्व के लिए खतरा बन रही है। कृषि में कीटनाशकों, रासायनिक खादों के अत्यधिक प्रयोग से गोरैया के लिए भोजन कम होता जा रहा है।
पिछले दो-ढ़ाई दशकों में हमारी जीवनशैली में बड़ा बदलाव आया है। निहित स्वाथरे के चलते हमने जंगल उजाड़ दिए, प्रकृति का संतुलन चक्र बनाए रखने में सहायक जीव-जंतुओं और पक्षियों की अनेक प्रजातियों का शिकार करके या उनके आशियाने उजाड़ कर उनके अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिया है। इसका असर गोरैया पर भी पड़ा है। भोजन तथा पानी की कमी, पक्के मकान बनने से घोंसलों के लिए स्थानों की कमी, कटते पेड़-पौधे, हमारी बदलती जीवनशैली, मोबाइल रेडिएशन का दुष्प्रभाव, तापमान में बढ़ोतरी आदि प्रमुख कारण हैं, जो गोरैया की विलुप्ति के बड़े कारण बन रहे हैं। गोरैया की आबादी घटने का बड़ा कारण यह भी है कि कई बार उनके घोंसले सुरक्षित स्थानों पर नहीं होने के कारण कौए तथा दूसरे हमलावर पक्षी उनके अंडों तथा बच्चों को खा जाते हैं।
आज की पीढ़ी प्रकृति और पक्षियों से दूर होती जा रही है। गोरैया संरक्षण के लिए जागरूकता की कमी भी इसके अस्तित्व के लिए चुनौती है। गोरैया के संरक्षण के लिए हमें अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाने चाहिए। पारंपरिक घरों की संरचना को ध्यान में रखते हुए घोंसला बनाने के लिए स्थान प्रदान करने की भी आवश्यकता है। कृषि में जैविक तरीके अपना कर कीटनाशकों के उपयोग को कम किया जा सकता है, जिससे गोरैया के लिए भोजन की उपलब्धता बढ़ेगी। गोरैया को घोंसला बनाने में मदद के लिए लकड़ी या मिट्टी के छोटे घर बनाए जा सकते हैं। घर-आंगन या छतों पर अनाज और पानी रखने से गोरैया को भोजन प्राप्त करने में सहायता मिल सकती है। गोरैया संरक्षण के लिए स्कूल-कॉलेजों और सामाजिक संस्थानों में जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए जाने की भी जरूरत है।
हालांकि सरकार और वन्यजीव संरक्षण संगठनों द्वारा कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, जिनका उद्देश्य गोरैया की संख्या बढ़ाना और इसके संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाना है। नेचर फॉरएवर सोसायटी, बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी तथा अन्य संगठनों ने गोरैया संरक्षण के लिए कई कार्यक्रम चलाए हैं। स्थानीय समुदायों और कुछ स्वयंसेवी संगठनों द्वारा घरों और सार्वजनिक स्थानों पर गोरैया के लिए घोंसले बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन इन प्रयासों में तेजी लाने और इनका दायरा बढ़ाए जाने की जरूरत है क्योंकि यदि हम अभी प्रयास नहीं करेंगे तो भविष्य में यह पक्षी केवल किताबों और कहानियों में ही बच पाएगा।
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