जलवायु परिवर्तन : गड़बड़ा सकती है आर्थिकी
तमिलनाडु का धरमपुर रेशम के लिए मशहूर है। यहां सालाना लगभग 17 लाख टन रेशम कोकून की पैदावार होती है।
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पिछले कुछ हफ्तों में जिले भर में कोहरे और खराब जलवायु परिस्थितियों ने ऐसा डेरा डाला कि कोकून की कीमत में भारी वृद्धि हो गई। फरवरी के दूसरे हफ्ते में इसके दाम 857 प्रति किग्रा. दर्ज किए गए जबकि इस समय औसत कीमत 520 रु पये से अधिक नहीं होती।
आम तौर पर इस समय इलाके का मौसम खुला रहता है लेकिन इस बार गहने कोहरे और पाले से कोकून में नमी आ गई। इसके चलते अच्छी गुणवत्ता वाले रेशम का संकट दिखने लगा और दाम चढ़ गए। बदलते मौसम का असर शहतूत के पेड़ों पर भी देखा गया। विदित हो रेशम के कीड़ों का आहार शहतूत ही होता है। मंडी में आवक काम और दाम ज्यादा होने से बुनकर भी परेशान हैं। धर्मपुरी का रेशम तो एक उदाहरण भर है कि किस तरह समय से पहले गर्मी आने का व्यापक कुप्रभाव समाज पर पड़ रहा है।
प्रवासी पक्षियों का पहले लौटना, सड़क के कुत्ते और अन्य जानवरों के व्यवहार में अचानक उग्रता और रबी की फसल की पौष्टिकता में कमी, कुछ और ऐसे कुप्रभाव हैं, जो जलवायु परिवर्तन के कारण हमारे यहां दिखने लगे हैं। इस साल इतिहास में तीसरा सबसे गर्म जनवरी और फरवरी रहा। जनवरी में देश में बारिश 70% कम रही। पहाड़ी राज्यों में बारिश और बर्फबारी 80% तक कम रही। फरवरी के आखिरी हफ्ते में विदर्भ से ले कर तेलंगाना तक 40 की तरफ दौड़ते तापमान ने लू का अहसास करवा दिया। मार्च के दूसरे हफ्ते में ऐन होली पर बरसात और ओलावृष्टि ने फसल का नुकसान दुगुना कर दिया। उसके बाद फिर गर्मी तेवर दिखा रही है।
मौसम विभाग के मुताबिक अगले तीन हफ्तों में देश के अधिकांश हिस्सों में औसत तापमान सामान्य से अधिक रहने की संभावना है। उत्तराखंड के पवित्र तीर्थस्थल केदारनाथ में इस वर्ष पिछले 10 वर्षो में सबसे कम बर्फबारी दर्ज की गई है। इस बार सर्दियों में यहां सिर्फ दो फीट बर्फबारी हुई है, जो बीते वर्षो के मुकाबले काफी कम है। वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने इस पर चिंता जताई है, क्योंकि इससे न केवल क्षेत्र की पारिस्थितिकी प्रभावित होगी, बल्कि जल स्रेतों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
बीते 10 वर्षो में केदारनाथ में बर्फबारी का पैटर्न बदलता दिखा है। जहां 2015 में आठ फीट बर्फ गिरी थी, वहीं 2025 में यह घट कर मात्र दो फीट रह गई है। कम बर्फबारी और जल्द गर्मी से ग्लेशियर जल्दी पिघलेंगे और गंगा-यमुना जैसी नदियों का जल प्रवाह प्रभावित होगा। केदारनाथ क्षेत्र में पाई जाने वाली दुर्लभ वनस्पतियां और वृक्ष कम बर्फबारी के कारण प्रभावित हो सकते हैं। इससे इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी पर नकारात्मक असर पड़ेगा। कम बर्फबारी का मतलब है कि गर्मिंयों में जल स्रेतों में कमी आएगी जिससे पानी की किल्लत हो सकती है।
जलवायु परिवर्तन का असर किस कदर पहाड़ों पर है, इसका उदाहरण इन दिनों धौलछीना के इर्द-गिर्द और बिनसर अभयारण्य के जंगलों में साफ दिख रहा है। पहाड़ में अक्सर फरवरी के दूसरे पखवाड़े से मार्च में खिलने वाला बुरांस का फूल इस बार जनवरी में ही खिल गया था। इससे लोग हैरत में हैं और मौसम चक्र में परिवर्तन को इसकी वजह मानते हैं। जंगलों में कई जगह काफल फरवरी में ही पकने लगा था। आम तौर पर पहाड़ के जंगलों में बुरांस का फूल 15 मार्च के बाद भी खिलता है। इसके बाद ही मार्च के दूसरे पखवाड़े और अप्रैल में काफल पकता है। मगर अब प्रकृति अपना अलग रंग दिखा रही है।
हैरान करने वाली बात यह है कि इस बार जनवरी के पहले पखवाड़े से ही धौलछीना के आसपास तथा बिनसर अभयारण्य के जंगलों में बुरांस खिल गया। ठीक इसी तरह से हिमाचल प्रदेश में भी बुरांस और काफल समय से बहुत पहले जनवरी में फल-फूल गए। जलवायु बदलाव का असर असम के धुबरी जिले में अजीब ही तरह से देखा जा रहा है। यहां बहने वाली ब्रह्मपुत्र नदी में अचानक हिल्सा मछलियों की संख्या बढ़ती देखी जा रही है, जो जनवरी-फरवरी के महीनों में अस्वाभाविक है। वास्तव में इसका समय मई, जून, जुलाई और अगस्त होता है। विदित हो कि हिल्सा मछलियां समुद्र के मुहाने से अक्टूबर में ब्रह्मपुत्र नदी में अंडे देने के लिए बंगाल की खाड़ी से आती हैं। हालांकि, मौसम और प्रकृति में अस्वाभाविक परिवर्तन और ब्रह्मपुत्र नदी के धीरे-धीरे सूखने के कारण हिल्सा मछलियां इस साल जनवरी के अंत से नदी में चढ़ने लगी हैं।
पर्याप्त ठंड न पड़ने, जाड़े में होने वाली बरसात के न आने और फरवरी में ही गर्मी का असर मध्य भारत के खेतों में रबी की फसल पर कीट के रूप में सामने आ रहा है। विशेष रूप से गेहूं में चंडवा, सरसों, मटर और चना की फसलों में माहू और इल्ली का प्रकोप बढ़ गया है, जिसके कारण इन फसलों में फूल गिरने लगे हैं, और किसानों को भारी नुकसान हो रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि इन कीटों के कारण आगामी दिनों में चना, मटर और सरसों का उत्पादन 30 प्रतिशत तक घट सकता है। सब्जी भी गर्मी के प्रकोप से बची नहीं रही। मिर्च, टमाटर, बैंगन, भिंडी जैसी सब्जी फसलों में भी माहू का प्रकोप बढ़ गया है। शाम होते ही अब खेत के करीब की सड़कों से निकलना मुश्किल है क्योंकि वाहनों की रोशनी होते ही माहू कीट के घने झुंड आ जाते हैं। कीट से बचने के लिए यदि किसान कीटनाशक का इस्तेमाल करता है, तो एक तो लागत बढ़ती है, दूसरा, गुणवत्ता भी प्रभावित होती है।
कश्मीर में गर्मी के कारण सेब फल से ले कर केसर तक की खेती बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। वहां जमीन शुष्क है, और तालाब-झरने सूख गए हैं। उधर केरल के लिए चेतावनी है कि आम तौर पर मार्च-अप्रैल में आने वाली हीटवेव जैसी स्थिति इस साल राज्य में पहले ही आ गई। जनवरी के आखिरी सप्ताह में कन्नूर में दिन का तापमान 36.6 डिग्री सेल्सियस और कोट्टायम में 36.5 डिग्री सेल्सियस तक जा पहुंचा था। आईएमडी ने भी चेतावनी जारी की है कि तापमान में वृद्धि जारी रहेगी जो केरल के जलवायु पैटर्न में चिंताजनक बदलाव को दर्शा रहा है। मौसम के बदलते मिजाज से आम लोगों की रोजी-रोटी के साधन, व्यवहार और स्वास्थ्य, तीनों प्रभावित हो रहे हैं। वैसे तो हर राज्य ने जलवायु परिवर्तन से निबटने की दसवर्षीय कार्य योजनाएं बना रखी हैं, लेकिन फिलहाल उनके असर जमीन पर कहीं नहीं दिख रहे।
(लेख में विचार निजी हैं)
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