मोटापा : स्लिम होने की हाराकिरी सोच

Last Updated 17 Mar 2025 01:31:40 PM IST

अठारह साल की एक लड़की की मौत..वजह? उसने खाना छोड़ दिया था। सुनने में यह जितना अविसनीय लगता है, हकीकत उससे कहीं ज्यादा भयावह है। केरल की श्रीनंदा, जो कभी खिलखिलाती जिंदगी जी रही थी, धीरे-धीरे खुद को खत्म करने लगी-मात्र इसलिए पतली दिखना चाहती थी।


मोटापा : स्लिम होने की हाराकिरी सोच

एनोरेक्सिया नर्वोसा, ऐसी बीमारी जिसमें व्यक्ति जरूरत से ज्यादा पतला होने की कोशिश में खुद को भूखा रखने लगता है, उसका जीवन लील गई। वह खुद को मोटी समझती थी, जबकि उसका वजन केवल 24 किलो रह गया था।

क्या यह महज एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है, या फिर एक बड़ी सामाजिक समस्या की भयावह तस्वीर? आज के दौर में सोशल मीडिया और यूट्यूब ने ‘परफेक्ट बॉडी’ के नाम पर युवाओं के दिमाग में ऐसा डर भर दिया है, जो धीरे-धीरे उन्हें भीतर से खत्म कर रहा है। हर जगह एक ही संदेश: ‘‘पतले रहो, सुंदर दिखो, नहीं तो तुम स्वीकार किए जाने के योग्य नहीं हो!’ यह कैसा समाज बना रहे हैं हम, जहां खूबसूरती के पैमाने इंसान की सेहत और जिंदगी से बड़े हो चुके हैं? श्रीनंदा की मौत अकेली नहीं है। हजारों किशोर और युवा इस मानसिकता की गिरफ्त में आ चुके हैं। शोध बताते हैं कि एनोरेक्सिया नर्वोसा से जूझने वालों में से 5 से 10 प्रतिशत की जान चली जाती है। 

यह कोई फैशन ट्रेंड नहीं, बल्कि गंभीर मानसिक बीमारी है, लेकिन इसे लेकर जागरूकता इतनी कम है कि जब तक स्थिति बिगड़ नहीं जाती, तब तक इसे गंभीरता से नहीं लिया जाता। क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ी को इसी तरह खोते रहेंगे? यह समस्या आखिर, पैदा कहां से हो रही है? सोशल मीडिया, फिल्में, फैशन इंडस्ट्री-सब मिल कर एक आदर्श शरीर की परिभाषा बना रहे हैं, जिसमें ‘स्लिमनेस’ ही खूबसूरती और सफलता की पहचान है। लड़कियां खुद को बॉलीवुड की अभिनेत्रियों और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स से तुलना करने लगती हैं, जो हमेशा पतली, टोंड बॉडी में नजर आती हैं। उन्हें यह नहीं बताया जाता कि इन तस्वीरों के पीछे कड़ी मेहनत ही नहीं, बल्कि एडिटिंग, फिल्टर्स और कभी-कभी खतरनाक डायटिंग भी होती है।

जब एक किशोरी दर्पण में खुद को देखती है और उन ‘आदर्श’ छवियों से तुलना करती है, तो वह खुद को कमतर महसूस करने लगती है। फिर शुरू होता है खाना छोड़ने, अत्यधिक व्यायाम करने और खुद को तकलीफ देने का खतरनाक सिलसिला। क्या इसके लिए केवल सोशल मीडिया ही जिम्मेदार है? नहीं। समाज में बचपन से ही बच्चों को शरीर को लेकर ताने सुनने पड़ते हैं-‘इतने मोटे मत बनो’, ‘पतले रहोगे तो अच्छे लगोगे’। खासकर लड़कियों पर यह दबाव ज्यादा रहता है। परिवार, स्कूल, रिश्तेदार-हर कोई जाने-अनजाने ऐसी टिप्पणियां कर देता है, जो किसी के भी आत्मविश्वास को जड़ से हिला देती हैं। क्या किसी की सुंदरता को सिर्फ  उसके वजन से मापा जाना चाहिए?

डॉक्टरों के अनुसार, एनोरेक्सिया सिर्फ  शारीरिक समस्या नहीं, बल्कि मानसिक बीमारी भी है। इसके शिकार लोग जरूरत से ज्यादा परफेक्शनिस्ट होते हैं, जिन पर समाज की अपेक्षाओं का दबाव हावी रहता है। वे खुद को भूखा रखते हैं, शरीर में ऊर्जा की कमी होती है, अंग काम करना बंद कर देते हैं, और धीरे-धीरे वे मौत के करीब पहुंच जाते हैं। समस्या की जड़ तक जाना जरूरी है। सबसे पहले, हमें अपनी सोच बदलनी होगी। क्या वाकई खूबसूरती केवल पतलेपन में है? क्या स्वस्थ, खुशहाल इंसान ज्यादा सुंदर नहीं है? बॉडी पॉजिटिविटी को बढ़ावा देने की जरूरत है, जिससे हर व्यक्ति अपने शरीर को अपनाए, उसे प्यार करे, और अवास्तविक सौंदर्य मानकों के पीछे भागने की बजाय अपनी सेहत को प्राथमिकता दे। अभिभावकों की भी भूमिका अहम है। जब बच्चा बार-बार अपना वजन तौलता है, खाने से बचता है, या अपने शरीर को लेकर असंतुष्ट दिखता है, तो यह सिर्फ  आदत नहीं, बल्कि खतरे की घंटी हो सकती है।

ऐसे में तुरंत उससे बात करें, उसे समझाएं कि असली खूबसूरती क्या होती है, और जरूरत पड़े तो मनोवैज्ञानिक मदद लेने से न हिचकिचाएं। मीडिया और विज्ञापन उद्योग को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। वे चाहें तो सौंदर्य के असली मायने बदल सकते हैं। फैशन इंडस्ट्री को समझना होगा कि हर शरीर खूबसूरत होता है। केवल पतलेपन को बढ़ावा देना खतरनाक हो सकता है। सरकार सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अनिरयलिस्टिक बॉडी इमेज को प्रमोट करने वाले कंटेंट पर सख्ती करे। स्कूलों में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ाई जाए। श्रीनंदा चली गई, लेकिन उसके पीछे एक सवाल छोड़ गई-क्या हम अब भी नहीं जागेंगे? क्या हमें वाकई इस ‘स्लिमनेस की सनक’ को और जिंदगियां लीलने देना चाहिए? या फिर समय आ गया है कि हम अपने बच्चों, अपने समाज और खुद को समझाएं कि असली खूबसूरती स्वस्थ शरीर और खुशहाल मन में होती है? फैसला हमें करना है-कहीं बहुत देर न हो जाए।

सोनम लववंशी


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