हिमालय : हर दबाव से मुक्ति जरूरी
हिमालय भी अन्य पहाड़ों की तरह पलायन, भूखमरी और जलवायु के दबाव में है।
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संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन ने 11 दिसम्बर, 2021 के अंतरराष्ट्रीय पर्वत दिवस के अवसर पर बयान दिया था कि पर्वतीय क्षेत्रों में मौसम बदलाव और जैव-विविधता के कारण विकासशील देशों में 2000 2017 के बीच भूखमरी में वृद्धि हुई है। हिमालय में भी करीब 40 प्रतिशत लोग खाद्य असुरक्षा के जोखिमों में जीते हैं। पहले वे वन संसाधनों पर बहुत निर्भर करते थे।
वन संसाधनों को पौष्टिक आहार, पशुचारा, खेती में मदद , औषधीय प्रयोगों के लिए लेते थे परंतु इन सब के अलावा मानवीय जरूरतों के लिए खासकर जो हिमालय में नहीं रहते हैं उनके लिए दोहन का दबाव है, या उनकी जरूरतों के लिए अनुरक्षण और विकास का दबाव है जिनसे संबंधित योजनाओं में हिमालयवासियों का विचार के स्तर पर भी भागीदारी नहीं होती है, या उनको विश्वास में नहीं लिया जाता है। साफ ऊर्जा के लिए निर्भरता बांध जल विद्युत्त परियोजनाएं उनमें हादसे हो रहे हैं। जब बिजली का उपयोग करो तो याद करना कितनी मौतें हुई हैं। हिमालयी परिप्रेक्ष्य का यथार्थ है कि हिमालय को जिंदा रखना है तो हिमालय में लोगों को जिंदा रहना है। हिमालय में जिंदा रहना है तो हिमालय को जिंदा रखना है। आज हिमालयी क्षेत्र में पहाड़ ऐसे टूट रहे हैं पहाड़ियां ऐसे दरक रही हैं जैसे वे रेत के घरौंदें या ताश के पत्तों के घर हों।
पहले तो भूकंपों किंतु अब भूस्खलनों, बादल विस्फोटों से ऐसे हालात अक्सर बन रहे हैं। आम जन तब उन्हें नये आवासीय, खेती या आय उपार्जन के क्षेत्रों में बसाने की मांग करने लगते हैं। अकेले उत्तराखंड में ऐसी स्थितियां लगभग 500 गांवों में हैं। ऐसे में हिमालयी क्षेत्रों में विकास परियोजनाओं से विस्थापितों के अलावा आपदा प्रभावितों के पुनर्वास मानकों और प्रक्रियाओं पर जनसहभागी मंथन लगातार की जरूरत है। इस क्रम में लैंड पूलिंग और मलबा डंपिंग जोनों, दोनों विचारों को आगे बढ़ाने की जरूरत है। आपदाओं के न्यूनीकरण में पर्वतीय हरित आच्छादन विस्तार महत्त्वपूर्ण माना गया है किंतु इस विस्तार को जंगलों की हरितमा विस्तार तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए।
अतिरिक्त खेतीबाड़ी की हरितमा स्थायीकरण भी होना चाहिए। यदि यह जैविक भी हो तो जानवरों को पालना आवश्यक हो जाता है। जानवरों को पालने में परोक्ष रूप से परिवार भी बंधता है, जमीन का बंजर होना भी रुकता है। पलायन और खाद्य असुरक्षा को कम करने में यह ग्रामीणों का योगदान होता है। इसके लिए सरकारों को सुगमकर्ता की भूमिका में आना होगा। यहीं पर चकबंदी का सवाल महत्त्वपूर्ण हो जाता है। पास पास की लोग खेती करते हैं दूर की छोड़ देते हैं। खासकर जब परिवार में बुजुर्ग ही रह गए हों। बाकी परिवारी इधर-उधर हो गए हों। हिमालयी राज्यों में नित नये ईकोसेंसेटिव जोन घोषित होते हैं। इनके अंतर्गत कई प्रतिबंध लग जाते हैं।
इन स्थितियों में भी लोगों के यहां रहने और विकास करने के अवसर कैसे बनाए रखे जाएं इसी के लिए ऐसे क्षेत्रों में जोनल मास्टर प्लान बनाए जाते हैं। जनता का कहना है कि ईको सेंसेटिव क्षेत्र बनाने के पहले उनकी राय नहीं ली गई जबकि इस राय को विशेषकर महिलाओं से लेने की भी जिम्मेदारी राज्य सरकार की थी। जो लोग हिमालय की संवेदनशीलता के ही नाम पर अलग हिमालय नीति की मांग करते हैं, उन्हें हिमालय में बढ़ते ईकोसेंसेटिव क्षेत्र के संदर्भ में समाधानों की राह बतानी होगी। केवल टकरावों से काम नहीं चलेगा। सड़कों की राह आपदा के मामले भी लगातार बढ़ रहे हैं। इनमें पेड़ों की कटाई विस्फोट से निरंतर भूस्खलन के क्षेत्र बन रहे हैं। खड़े चलते वाहनों और व्यक्तियों पर भारी मलबा-पत्थर गिर रहे हैं। इनसे लोग घायल ही नहीं हो रहे हैं, बल्कि जान भी गंवा रहे हैं। सरकारें ही अधिकांश राजमार्ग बनाती हैं और वे ही नियम तोड़ती हैं।
उत्तराखंड की ही चारधाम यात्रा मार्ग या ऑल वेदर रोड का उदाहरण लें। बिना पर्यावरण प्रभाव के आकलन के बन रही पारिस्थिकी को नुकसान पहुंचाते इस राजमार्ग का मामला एक जनहित याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय में भी पहुंचा। उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई के दौरान ही चारधाम राजमार्ग पर डॉ. रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में एक हाईपार्वड कमेटी गठित की। संभवतया अक्टूबर, 2019 में ही इस समिति ने केंद्र सरकार के राजमार्ग निर्माण से संबंधित मंत्रालय से चारधाम राजमार्ग के पर्यावरण प्रभाव आकलन करवाए किंतु इस पर 6-7 माह तक कोई कार्यवाही नहीं हुई थी। काम बदस्तूर जारी रहा। समाचारों के अनुसार क्षुब्ध और आक्रोशित समिति चेयरमैन डॉ. रवि चोपड़ा ने यह कहते हुए कि इस राजमार्ग परियोजना निर्माण में वन्यजीव और वानिकी के नियमों की इतनी अवहेलना और उल्लंघन हुआ है कि लगता ही नहीं है कि कानून का कोई शासन है।
आम आदमी, जो हिमालय में बाहर से जा रहा है, वो सोचे मैं हिमालय देखने जा रहा हूं। क्या वहां कूड़े के ढेर देख कर आपको ठीक लगेगा आप कि इतनी दूर से आए सुंदरता देखने और आपको गंदगी दिख रही है। ऐसे ही आप सोचें कि हिमालय में जिस जगह से आप गंदगी बिखरा कर लौट रहे हैं, वहां आपके बाद पहुंचने वाले को कैसा लगेगा। फिर आप सोचें कि आपके जैसे कई लोग गंदगी छोड़ कर जा रहे हैं तो आपके बाद स्थानीय लोगों को कैसा लगेगा। कूड़ा-कचरा यात्राओं में आप छोड़ रहे हैं। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं में खुले में शौच हो रहे हैं। केदारनाथ यात्रा समाप्ति पर इसी संदर्भ में एसटीपी की स्थापना की चर्चा भी चली थी। अंतत: एक मनीषी के एक हिमालयी राज्य में दिए गए इस सुझाव के परिप्रेक्ष्य में यह भी कहना है कि घाम साफ आसमान की वजह से पहाड़ों में है। परिवहन का यहां इतना भार न पैदा कर दीजिए कि जाड़ों में दिल्ली का गैस चैम्बरीय समॉग हिमालय के शिखर नभों को छू ले। अब वनाग्नियों का प्रारंभ शीतकाल में हो रहा है।
(लेख में विचार निजी हैं)
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