उत्तराखंड : संभालें पारिस्थितिकी परिवेश
दिसम्बर 2022 में जोशीमठ में अपने भवनों, सड़कों, खेतों में दिखतीं दरारें, कहीं-कहीं भवनों का तिरछा होता देख तथा पानी के फव्वारे फूटते देख भयंकर जाड़ों में भी दिन-रात भारत-चीन के सीमांत नगर जोशीमठ के निवासी सुरक्षित पुनर्वासन के लिए प्रदर्शन में जुटे थे।
उत्तराखंड : संभालें पारिस्थितिकी परिवेश |
इसरो की वेबसाइट के अनुसार अप्रैल- नवम्बर, 2022 के बीच धंसाव 8-9 सेमी. था जबकि दिसम्बर 27, 2022 से जनवरी 8, 2023 के केवल बारह दिनों में यह 5-4 सेमी. था। उन्हीं दिनों अन्य नगरों और गांवों से भी जोशीमठ जैसी स्थितियों के उपजने की खबरें आने लगी थीं। तब उत्तराखंड सरकार ने जोशीमठ सहित एक दर्जन से ज्यादा नगरों की धारण क्षमता का आकलन करवाने की सार्वजनिक घोषणा की थी। पुन: 2024 में चारधाम यात्रा पड़ावों और प्रमुख पर्यटक स्थलों में श्रद्धालुओं और पर्यटकों की एक ही दिन में हजारों की भीड़ पहुंचने तथा वाहनों से जाम जैसी समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में राज्य सरकार ने यात्रा मागरे के पड़ावों और भारी भीड़ से बोझिल नगरों की धारण क्षमता का आकलन करवाने का अपना मंतव्य व्यक्त कर दिया था किन्तु ठोस कार्रवाई न तो 2022 में हुई और न ही 2025 तक भी होती दिखी है।
जोशीमठ का परिप्रेक्ष्य जनसंख्या भार और बाहरी आती-जाती भीड़ की बजाय वहां की भूगर्भीय कमजोरियों का है जबकि तीर्थ और पर्यटन स्थलों का मामला भीड़भाड़ का है। जोशीमठ की बसावट एक पुराने भूस्खलन, हिमस्खलन मोरेन हिमोड के ऊपर है। ड्रेनेज पैटर्न की भी समस्या है। हालांकि स्थानीय ‘जोशीमठ बचाओ संघर्ष समितिई भूधंसाव और दरारों के लिए एक जल विद्युत परियोजना की कई किमी. की सुरंग और हेलंग बायपास निर्माण को आज भी जिम्मेदार मानती है। निस्संदेह उत्तराखंड के पर्वतीय नगर और गांवों की धारण क्षमता के आकलन की आवश्यकता है परंतु इसके लिए सरकार और आम जन में भी एक समग्र समझ पैदा होना जरूरी है।
धारण क्षमता आकलन प्राथमिक समाधान की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि वहनीय क्षमता की लक्ष्मण रेखा को लांघने के जोखिमों के संदर्भ में सचेत होने की प्रक्रिया है। धारण क्षमता जान कर तब फायदा है जब हम उसके प्रति संवेदित हों किन्तु पिछले दो सालों से स्मरण कराया जा रहा है कि दिल्ली से देहरादून का सफर अब सात की जगह दो घंटे का होने वाला है। देहरादून से मसूरी और वहां से होते हुए पर्यटन और तीर्थस्थलों तक पहुंचने में जाम न लगे, पार्किंग में भी दिक्कत न हो, इसके लिए सुरंगें प्रस्तावित हैं। ऋषिकेश से टिहरी बांध झील तक सफर दो घंटे कम हो जाए, इसके लिए भी कई किमी. की सुरंग बनेगी।
केंद्रीय परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के हवाले से एक समाचार था कि गंगोत्री और यमुनोत्री को जोड़ने वाली उत्तराखंड की सबसे लंबी सुरंग बनाई जानी है। साढ़े चार किमी. लंबी यह राह तीन साल में एक हजार करोड़ रुपये की लागत से बनेगी। सैकड़ों किमी. सुरंग जिन गांवों के नीचे जाएंगी उनसे उन गांवों की धारण क्षमता बढ़ेगी तो नहीं, घटेगी ही। जहां रेलवे सुरंग या जलविद्युत परियोजनाओं की सुरंग गांवों और के नीचे खोदी गई हैं, उन सब के यही अनुभव हैं।
खास बात यह है कि ये प्रस्तावित मेगा निर्माण उन क्षेत्रों के बीच से होने हैं जो राज्य के दशकों से आधिकारिक चिन्हित इको सेंसेटिव जोन हैं। टिहरी बांध जलाशय निर्माण के साथ ही उत्तरकाशी से आगे तक भागीरथी इको सेंसेटिव जोन अधिघोषित हो गया था। इसमें कई पारिस्थितिकीय प्रतिबंध लगाए गए थे। देहरादून-मसूरी का क्षेत्र निर्माण कायरे के संदर्भ में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में ही इको सेंसेटिव क्षेत्र घोषित कर दिया गया था। अब तो हवाई पट्टियों के निर्माण की भी होड़ लगी है। एक साथ अंडे और मांस पाने के लिए मुर्गी को मारने में भी जब कोई गुरेज नहीं तो धारण क्षमता जान कर भी क्या होगा या फिर इसे जाना ही क्यों जा रहा है।
ख्याल यह भी रहे कि भीड़ से बदरीनाथ केदारनाथ जैसी जगहों पर कूड़ा प्रबंधन, खुले में शौच रोकना जैसी समस्या भी हो जाती हैं।
जोशीमठ जैसे नगरों के भूगर्भीय कारकों को तो बदला नहीं जा सकता। केवल उन कमजोरियों को और कमजोर न करने की दिशा में सचेत रहना होता है। किसी स्थल की धारण क्षमता को केवल इंजीनियरिंग संदर्भ में मृदा परतों पर किसी निर्माण भार की मान्य परिभाषा से इत्तर अभी भी भूगर्भीय हलचल में भूकंपकीय और जलवायु बदलावों के दंशों से निरंतर सहम जाने वाले हिमालयी क्षेत्रीय पारिस्थितिकी परिवेश के संसाधनों पर भार से भी जोड़ कर समझें।
जहां मानव के वश के बाहर के इन कारणों के कारण धारण क्षमता के संदर्भ में अंतिम रूप से कभी भी कुछ कहना संभव नहीं होगा। मानव वश के समाधान तो बापू के इस कथन में ही ढूंढें कि पृथ्वी-प्रकृति के पास दुनिया भर के लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है किन्तु लालच के लिए नहीं है। उसी तरह हम धारण क्षमता बढ़ा सकते हैं। हम जर्जर होकर भी फिर से उठने की राह पकड़ सकते हैं किन्तु अनुशासित होकर उपभेग को कम से कम करके लालच को कम करके।
बहुत जरूरी है कि यदि आपको पहाड़ों में उनकी धारण क्षमता को अपने लिए कम से कम क्षत-विक्षत करके रहना है तो अपनी मानसिक धारण क्षमता भी बढ़ाइए कि पहाड़ प्रकृति के साथ समन्वय में रह सकें। पहाड़ पहाड़ रह कर अपनी आबोहवा से जैव-विविधता से आपको पर्याप्त दे सकते हैं किन्तु उनको मैदान बना कर पाना चाहेंगे तो उसकी वहनीय क्षमता टूट जाएगी क्योंकि तब किसी भी निर्माण कारणों गहराई तक काटना होगा। ऐसे में अस्थिर ढलानों को स्थिर करने का काम न किया जाए तो निर्माण की धारण क्षमता सवालों के घेरे में ही रहेगी। वाहन खड़े करना भी उत्तराखंड में मौत को न्योता देना रहा है। ऐसे ही नागरीय जल स्रेतों की जलापूर्ति की कितनी ही क्षमता हो यदि भूस्खलन या सड़क निर्माण के दौरान गहरे कटानों या विस्फोटों से यदि वे क्षतिग्रस्त हो गए हों तो उनके पहले की आकलित धारण क्षमता पर तो भरोसा नहीं होगा।
(लेख में विचार निजी हैं)
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