मान्यता : दान करने से होता है गरीब कल्याण
भारत में हिन्दू सनातन संस्कृति के संस्कारों में दान- दक्षिणा की प्रथा का अलग ही महत्त्व है। भारत में विभिन्न त्यौहारों एवं महापुरुषों के जन्म दिवस पर मठों मंदिरों, गुरु द्वारों एवं अन्य पूजा स्थलों पर समाज के संपन्न नागरिकों द्वारा दान करने की प्रथा अति प्राचीन है।
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गरीब की मदद करना ईर की सबसे बड़ी सेवा माना जाता है। समाज में आपस में मिल-बांट कर खाने-पीने की प्रथा भारत में ही पाई जाती है। परिवार में किसी भी खुशी की घटना को समाज में विभिन्न वगरे के बीच आपस में बांटने की प्रथा भी भारत में ही पाई जाती है।
इस उपलक्ष्य में कई बार तो बड़े स्तर पर सामाजिक एवं धार्मिंक आयोजन भी किए जाते हैं। जन्म दिन मनाना, परिवार में शादी समारोह के पश्चात नाते-रिश्तेदारों, दोस्तों एवं मिलने-जुलने वालों को विशेष आयोजनों में आमंत्रित करना आदि बहुत ही सामान्य चलन है। एक अनुमान के अनुसार भारत के मठों, मंदिरों, गुरु द्वारों एवं अन्य पूजा स्थलों पर प्रति दिन 10 करोड़ से अधिक लोगों को प्रसाद के रूप में भोजन वितरित किया जाता है।
पूरी दुनिया में भारत ही ऐसा देश है, जिसमें निवासरत नागरिक, चाहे वह कितना भी गरीब क्यों न हो, अपनी कमाई में से कुछ राशि का दान तो जरूर करता है। भारतीय शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि हिन्दू सनातन संस्कृति के अनुरूप महर्षि दधीच ने तो देवताओं को असुरों पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से अपने शरीर को ही दान में दे दिया था, जिसे इतिहास में उच्चतम बलिदान की संज्ञा दी जाती है।
आज के युग में जब अर्थ को अत्यधिक महत्त्व मिल रहा है, तब अधिक से अधिक धन का दान करना ही शुभ कार्य माना जा रहा है। इस दृष्टि से वैश्विक स्तर पर नजर डालने पर ध्यान में आता है कि दुनिया में सबसे बड़े दानदाता के रूप में भारत के टाटा उद्योग समूह के रतन टाटा का नाम सबसे ऊपर उभर कर आता है। इस सूची में टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी टाटा का नाम भी सम्मान के साथ लिया जाता है, जिन्होंने अपने जीवन में शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में 8.29 लाख करोड़ रु पये की राशि का महादान किया था।
रतन टाटा के नेतृत्व में टाटा समूह ने वर्ष 2021 तक 8.59 लाख करोड़ की राशि का महादान किया था। रतन टाटा केवल भारत स्थित संस्थानों को ही दान नहीं देते थे बल्कि वैश्विक स्तर पर समाज की भलाई के लिए कार्य कर रहे संस्थानों को भी दान देते थे। रतन टाटा के पूर्वज पारसी समुदाय से थे और ईरान से आकर भारत में रच-बस गए थे। रतन टाटा ने न केवल भारतीय हिन्दू सनातन संस्कृति के संस्कारों को अपने जीवन में उतारा, बल्कि इन संस्कारों का अपने जीवनकाल में अक्षरश: अनुपालन भी किया।
टाटा समूह का वर्णन तो यहां केवल उदाहरण के रूप में किया जा रहा है अन्यथा भारत में ऐसे कई औद्योगिक घराने हैं, जिन्होंने अपनी पूरी संपत्ति को ही ट्रस्ट के माध्यम से समाज के उत्थान एवं समाज की भलाई के लिए दान में दे दिया। प्राचीन भारत में यह कार्य राजा-महाराजाओं द्वारा किया जाता था। हिन्दू सनातन संस्कृति के विभिन्न शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि ईर ने जिसको संपन्न बनाया है, उसे समाज में गरीब वर्ग की भलाई के लिए कार्य करना चाहिए। यह सहायता गरीबों को सीधे उपलब्ध कराई जा सकती है अथवा ट्रस्ट की स्थापना कर भी उनकी मदद की जा सकती है।
वर्तमान में तो निगमित सामाजिक दायित्व (सीएसआर- कॉरपोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी) के संबंध में कानून ही बना दिया गया है। जिन कंपनियों की संपत्ति 500 करोड़ रुपये से अधिक है अथवा जिन कंपनियों का वार्षिक व्यापार 1000 करोड़ रु पये से अधिक है अथवा जिन कंपनियों का वार्षिक शुद्ध लाभ 5 करोड़ से अधिक है, उन्हें इस कानून के अंतर्गत अपने वार्षिक शुद्ध लाभ के दो प्रतिशत की राशि का उपयोग समाज की भलाई के लिए चलाई जा रही परियोजनाओं पर खर्च करना आवश्यक होता है। इन विभिन्न मदों पर खर्च की जाने वाली राशि का प्रति वर्ष अंकेक्षण भी कराना होता है, ताकि जाना जा सके राशि का उपयोग समाज की भलाई के लिए किया गया है एवं इसका दुरु पयोग नहीं हुआ है।
भारत में गरीब वर्ग/परिवारों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने में संपन्न वर्ग द्वारा किए जाने वाले दान आदि की राशि से भी बहुत मदद मिलती है। सीएसआर के अंतर्गत चलाई जा रहीं विभिन्न योजनाओं का सीधा लाभ भी समाज के गरीब वर्ग को मिलता है। अत: विश्व में शायद भारत ही ऐसा देश है जहां सरकार एवं समाज मिल कर गरीब वर्ग की भलाई हेतु कार्य करते दिखाई देते हैं। इसीलिए कहा जा रहा है कि हिन्दू सनातन संस्कृति का विस्तार यदि वैश्विक स्तर पर होता है, तो पूरे विश्व का कल्याण हो सकता है एवं बहुत संभव है कि वैश्विक स्तर पर गरीबी का नाश होकर चहुं ओर खुशहाली फैलती दिखाई दे।
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