कबूतरों से खतरा : हल तो निकालना ही होगा
हाल ही में कुछ अध्ययनों से चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं, जिनमें कबूतरों से खतरे की बात बताई गई है।
कबूतरों से खतरा : हल तो निकालना ही होगा |
इनमें नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टीबी एंड रेस्पिरेटरी डिजीज के डॉ. मीत घोनिया ने बताया कि कबूतर की बीट में साल्मोनेला, ई. कोली और इंफ्लूएंजा-जैसे रोगाणु होते हैं, जिनसे अस्थमा-जैसी गंभीर बीमारी हो सकती है। कहा है कि इन दिनों ऐसे मरीजों की संख्या बढ़ रही है, जो कबूतरों के संपर्क में रहे हैं। उसका कारण यही माना जा रहा है कि कबूतरों की बीट में जो रसायन पाया जाता है, वह स्वास्थ्य के लिए काफी खतरनाक है।
डॉ. मीत ने बताया कि जब कबूतर एक जगह ज्यादा संख्या में होते हैं, तब उनकी बीट से क्रिप्टोकोकी जैसे फंगल बीजाणुओं के फैलने का खतरा बढ़ जाता है। यही बीजाणु हवा में अधिक मात्रा में होने के कारण व्यक्ति की सांस के माध्यम से फेफड़ों में चला जाता है। फिर सांस लेने में परेशानी हो जाती है। इस परेशानी से अस्थमा के मरीज बढ़ रहे हैं। यह एक ऐसा बीजाणु है, जो मनुष्य की जान लेने का कारण बनता है।
गंभीर बीमारी टीबी के फैलने के खतरों को देखते हुए दिल्ली नगर निगम ने प्रस्ताव रखा है कि दिल्ली में कबूतरों की बढ़ती आबादी को रोकने के लिए कबूतरों को दाना देने वालों को रोका जाए। यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश की जा रही है कि जहां-जहां दिल्ली शहर में कबूतरों को दाना डालने के स्थान लोगों ने बनाए हैं, उन्हें बंद किया जाए। एमसीडी द्वारा दाना डालने वाले स्थानों को रोकने से जनता खुश नहीं है। उसका कारण है लोगों की भावना। वे इन पक्षियों को जीवित रखना चाहते हैं। इतना ही नहीं, दाना देने वाली जगहों पर ऐसे व्यापारी भी बैठे होते हैं, जो कबूतरों के लिए दाना बिकवाते हैं; वे भी इस रोक से परेशान हैं, उनकी रोजी-रोटी पर असर पड़ रहा है। दिल्ली के कनाट प्लेस, बाराखंबा, मंडी हाउस, पटेल नगर, शंकर रोड, मंदिर मार्ग, कड़कड़डूमा, करोल बाग और रोहतक रोड के कई इलाकों के चौक-चौराहों पर कबूतरों के लिए दानागाह हैं। इन स्थानों पर नागरिक दूर-दूर से कबूतरों को दाना देने आते हैं, और उनके लिए पीने के पानी का बंदोबस्त भी किया जाता है। देखा गया है कि अधिकांश पक्षियों की प्रजातियां दिल्ली से लुप्त होती जा रही हैं।
गौरया को दिल्ली राज्य के पक्षी की मान्यता दी गई थी पर आज वह खोजने पर भी नहीं मिलती; लुप्त होने का कारण दिल्ली अब उसके रहने लायक नहीं रह गई। छोटे-छोटे स्थानों और पाकरे में वह अपनी संतति बढ़ाने के लिए घोसलों का निर्माण करती थी, लेकिन अब वे स्थान उसके लिए उपयुक्त नहीं रहे। साथ ही, भीड़ भरे स्थानों में गौरया का जीना दूभर हो गया है। ऐसे ही बहुत सारी प्रजातियां दिल्ली से लुप्त हो गई हैं। अब कबूतर ही दिल्ली में सर्वाइव कर रहे हैं क्योंकि वे बड़ी-बड़ी बहुमंजिली इमारतों में अपने घोसले बनाने का प्रयास करते हैं, छिपने का स्थान ढूंढ़ कर संतति बढ़ाते हैं। इसलिए कुछ स्थानों को छोड़ कर कबूतर दिख जाते हैं। वैसे कबूतर का मनुष्य से पुराना रिश्ता भी है। पुराने जमाने में वे ही संदेशवाहक का काम करते थे। राजा-महाराजाओं के संदेशों को पहुंचाने का इतिहास कबूतरों का ही रहा है।
इससे पता चलता है कि वे अक्सर आदमियों के करीब ही रहना ज्यादा पसंद करते हैं, लेकिन आज देश की बढ़ती अबादी महानगरों में ही सिमटने को अपना भविष्य मानती है। इस कारण इको सिस्टम ही बदल रहा है। वैज्ञानिक उपलब्धि का फायदा मनुष्य तो ले रहा है पर पर्यावरण को दरकिनार कर नई-नई दुारियों को बुलावा भी दे रहा है। संतुलित विकास का समीकरण ही बदल गया है। इसके साथ ही नये-नये वायरस भी जन्म ले रहे हैं, उनकी वजह से पूरा विश्व ही परेशानियों से जूझ रहा है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण कोरोना काल है। मृत्यु का तांडव कोरोना काल में रहा। अब आप अपने आसपास के जीव- जंतुओं को ही मिटाना चाहते हैं। वैसे, शांति के प्रतीक कबूतरों से अगर वाकई मानव जीवन को खतरा है, तो इसका हल तलाशना भी वैज्ञानिकों के लिए जरूरी है।
दिल्ली के चिकित्सकों ने भी कबूतरों के आवासों को मिटाने के लिए एमसीडी की योजना को सही माना है, और कबूतरों के पोषण के स्थानों को मिटाने का बिल लाया जा रहा है, लेकिन कबूतरों को संरक्षण देने में वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम, 1972 की धारा 9/51 काम कर सकती है। दिल्ली के प्रशासकों और वैज्ञानिकों को ऐसे अनुसंधान की ओर बढ़ना चाहिए जिसमें फंगस, साल्मोनेला ई. कोली-जो कबूतरों को हमसे दूर करता जा रहा है-को मारने के लिए दवा का ईजाद किया जाना निहायत जरूरी है, ताकि हमारा एक प्रिय पक्षी हमसे दूर न होने पाए।
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