थलापति विजय की पार्टी : द्रविड़ राष्ट्रवाद रहेगा या ढहेगा
तमिल अभिनेता थलापति विजय ने तमिलनाडु की राजनीति में धमाकेदार एंट्री कर प्रदेश की राजनीति के दोनों ध्रुवों-द्रमुक और भाजपा-को चौंका दिया है।
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तमिलनाडु विधानसभा चुनाव से डेढ़ साल पहले विजय की इस मुनादी ने सियासतदानों के साथ ही तमिलनाडु के सियासी पंडितों को भी सकते में डाल दिया है। पहली ही रैली में तीन लाख लोगों को जुटाने में कामयाब हुए विजय ने साबित कर दिया है कि सिनेमा के पर्दे ही नहीं, सियासत के मंच पर भी उनका जादू सिर चढ़कर बोलने वाला है। तमिलनाडु की क्षेत्रीय राजनीति की लीक से इतर उनकी पार्टी तमिलगा वेन्नी कझगम (टीवीके) ने द्रविड़ राष्ट्रवाद के उन्मादी घोड़े पर सवारी करने से परहेज किया है। हालांकि विजय इसका मुखर विरोध करते भी नहीं दिख रहे हैं।
विजय की कोशिश तमिलनाडु में वैकल्पिक राजनीति देने की है। इसलिए सामाजिक न्याय के नारे पर ज्यादा फोकस कर रहे हैं। क्षेत्रीय अस्मिता की भावनाओं को भुनाने के लिए उसे उछालने से भी परहेज नहीं कर रहे। लेकिन उनकी शब्दावली में द्रविड़ अस्मिता की जगह तमिल अस्मिता को तवज्जो है। जाहिर है कि वे ऐसा कर हिन्दू भावनाओें को ठेस पहुंचाने से बच रहे हैं क्योंकि द्रविड़ अस्मिता और तमिल अस्मिता में महीन सी विभाजन रेखा है। द्रविड़ अस्मिता जहां हिन्दू शास्त्रों, परंपराओं और मान्यताओं को खारिज करती है, वहीं तमिल अस्मिता हिन्दू परंपरा के तमिल ऋषियों, विद्वानों और शास्त्रों की महिमा के गर्व पर केंद्रित है। इससे विजय ने तमिलनाडु की राजनीति की दोनों प्रमुख धाराओं को साथ साधने की कोशिश की है। इस राजनीति से द्रविड़वादी और हिन्दुत्व की राजनीति के पैरोकार, दोनों के समर्थकों के ब़ड़े हिस्से का रु झान टीवीके की ओर हो सकता है।
परंतु इस राह में एक खतरा भी है। तमिलनाडु में राजनीति को लेकर जनमानस तक में जिस तरह की तीखी वैचारिक विभाजन देखने को मिलती है, उस स्थिति में मध्यमार्गी या उदारपंथी राजनीति को तवज्जो मिलने की संभावना कम ही दिखती है। विजय द्रविड़ राजनीति से अलग तमिल अस्मिता की जो लाइन ले रहे हैं, उसके तहत भाजपा भी उनके निशाने पर है, परंतु इसके लिए वे हिन्दुत्व पर करु णानिधि या स्टालिन की तरह प्रहार भी नहीं कर रहे। यह उनके सोचे-समझे वैचारिक अभियान का हिस्सा है। इसके तहत वे जहां हर विचारधारा के मोहभंग समर्थकों में सियासी आधार तलाश रहे हैं, वहीं तमिल राजनीति में हाशिये पर रही मध्यमार्गी राजनीति को मुख्य आधार देने की कोशिश भी कर रहे हैं। सामाजिक न्याय के नारे को उछाल कर उन्होंने अपने दूरगामी राजनीतिक इरादे के भी संकेत दे दिए हैं। इसके तहत सियासी रसूख में हाशिये पर रहीं जातियों को एकजुट कर बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में विकसित करने का प्रयोग भी शामिल हो सकता है। बिहार में नीतीश कुमार और उत्तर प्रदेश में भाजपा इसका सफल प्रयोग कर चुके हैं।
तमिलनाडु की राजनीति में ब्राह्मण विरोध पर केंद्रित द्रविड़ अस्मिता की राजनीति ही ज्यादा प्रभावी रही है। तमिलनाडु में पिछड़े या दलितों के अंदर जातीय अस्मिता की राजनीति अभी गौण है। देश भर में जातीय राजनीति के उभार, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मामलों में जातीय गणित के मुताबिक हिस्सेदारी की मांग जोर पकड़ रही है। तमिलनाडु भी इससे अछूता नहीं रह सकता। इसलिए एक हिसाब से देखा जाए तो ‘जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी भागीदारी’ के नारे का स्पेस तमिलनाडु की राजनीति में काफी हद तक खाली है। विजय के लिए इस अवसर को भरने के पर्याप्त अवसर हैं। वह जिस तमिल अस्मिता के मुद्दे को जोर-शोर से उठा रहे हैं, उसकी जड़ें सुदूर अतीत में कहीं न कहीं हिन्दू या सनातन परंपरा से जाकर एकाकार होने लगती हैं।
भाजपा को भी प्रखर राष्ट्रवाद या व्यापक हिन्दुत्व के आवरण में एक बड़ी विचारधारा के घटक के तौर पर इससे परहेज नहीं है। इसलिए तमिलनाडु में पैर जमाने के लिए भाजपा इसे प्रोत्साहित भी करती रही है। तमिलनाडु में भाजपा के सैद्धांतिक रणनीतिकार द्रविड़ राष्ट्रवाद के खिलाफ तमिल उपराष्ट्रवाद को आजमाते भी रहे हैं। तमिलनाडु में भाजपा की सियासी सफलता के सतत परंतु सीमित विस्तार में इसकी काफी भूमिका मानी जाती रही है। अन्ना द्रमुक के साथ भाजपा की गठबंधन साझेदारी के भी संभव हो सकने के पीछे यह एक बड़ा कारण रहा। द्रमुक और स्टालिन की काट में भाजपा इसी का प्रयोग करती दिख रही है।
ऐसे में देखा जाए तो थलापति विजय और भाजपा की राजनीति का वैचारिक आधार कई विंदुओं पर काफी हद तक मिलता-जुलता दिखाई दे रहा है। ऐसी स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि विजय तमिलनाडु के आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा की सियासत को वैचारिक विस्तार देंगे या समान धरातल पर वोटों के साझीदार की भूमिका निभाएंगे। यह साझेदारी समान आधार पर नये वोट बैंक पैदा कर तीसरा विकल्प देने की कोशिश, व्यापक वातावरण बना कर भाजपा को ताकतवर बनाने और उसी समर्थन से नई राजनीतिक शक्ति बनने की भी हो सकती है। या फिर समान आधार पर भाजपा के साथ वोटों के बंटवारे से द्रमुक को फायदा पहुंचाने की हद तक भी जा सकती है। विजय के सियासी उभार से भाजपा ही डरी हुई नहीं है। द्रमुक नेताओं की चिंता भी साफ देखी जा रही है क्योंकि विजय की तमिल अस्मिता के मुद्दे में सनातन धर्म के खिलाफ प्रतिक्रियात्मक आयाम के अलावा वे सभी मुद्दे शामिल हैं, जिनकी बात द्रमुक नेता करते रहे हैं। इसलिए द्रविड़ विचारधारा के समर्थकों के एक बड़े हिस्से की स्वीकार्यता भी विजय को मिल सकती है।
इन्हीं मुद्दों को बिना हिन्दुत्व विरोध के उदार तरीके से पेश करने के कारण भाजपा के साथ टीवीके का समझौता हो गया तो द्रमुक को कड़े मुकाबले का सामना करना पड़ सकता है। दक्षिणी राज्यों में अपनी सीमा के अहसास के कारण भाजपा को इससे परहेज भी नहीं हो सकता। आंध्र प्रदेश में भी भाजपा ने अपने गठबंधन साझीदार पवन कल्याण को मुखर हिन्दुत्व का पैरोकार बनने के लिए पूरा समर्थन दिया है, बल्कि प्रेक्षकों का तो यहां तक कहना है कि तिरुपति मंदिर में मिलावटी मिठाई का मामला सामने आने के बाद उठे विवाद में तो भाजपा पवन कल्याण के पीछे चलती नजर आई। इसलिए फिलहाल थलापति विजय के दोनों हाथ में लड्डू हैं-वे तमिलनाडु की राजनीति में नई धारा तैयार करें या फिर द्रमुक के खिलाफ भाजपा के साथ रणनीतिक मोर्चा बनाएं।
(लेख में विचार निजी हैं)
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