श्रद्धांजलि : शारदा सिन्हा : लोक संगीत का सूर्य

Last Updated 07 Nov 2024 12:54:05 PM IST

सघन चिकित्सा कक्ष की दीवारों को बेंध कर उन पंक्तियों की गूंज तो नहीं जा रही होगी जो देश-दुनिया में छठ पर बज रहे हैं, लेकिन इन गीतों का अपनी गायिका के साथ एक अदृश्य रिश्ता जरूर जुड़ रहा होगा।


छठ की सबसे लोकप्रिय गायिका शारदा सिन्हा के जीवन का सूर्य तो हमेशा के लिए डूब रहा था लेकिन छठ की गवाही भी थी कि लोक संगीत के आकाश पर इस सूर्य की चमक कभी कम नहीं होगी।  

छठ के अपने गीतों के बीच विख्यात गायिका शारदा सिन्हा अपनी अंतिम यात्रा को निकल पड़ीं, हालांकि कोई भी अभी इसके लिए तैयार नहीं था। वे जो अपने गीतों के माध्यम से किसी पारिवारिक सदस्य की तरह हमारे बीच हमेशा उपस्थित रहीं, हमारे पर्व-त्योहार, सुख- दुख में शामिल रहीं, और आगे भी बरसों-बरस तक भोजपुरी समाज में उनके बिना कितना विपन्न लगेगा। स्वयं शारदा सिन्हा ने एक बातचीत में मुझसे हंसते हुए कहा था, ‘लोग मुझे बताते हैं कि मेरे बगैर, मेरे गीतों के बगैर उन्हें छठ अधूरा-सा लगता है। वे कहते हैं कि जब हम छठ के सामान लेने जाते हैं बाजार तो बहुत सारे सामानों के साथ अगर शारदा सिन्हा के छठ के गीत नहीं लेते तो एक कमी सी लगती है। मेरे पास बहुत सारे फोन आते हैं, दूर-दराज के देशों से। वे कहते हैं कि हम बहुत दूर हैं लेकिन आपके गीतों को सुनने से लगता है कि जैसे हम भारत में हों। वे यहां से जाने वाले लोगों से भी मेरे गीत मंगवाते हैं और अपने पास रखते हैं।  बहुत सारे वीडियो से मुझे पता चलता है कि जो विदेश में हैं वे छठ की पूजा के समय भी मेरे गीत बजा कर पूजा करते हैं।’

समय बदलते रहे, बच्चे बड़े और बड़े बूढ़े होते गए, नये-नये गैजेट्स आते रहे, संगीत उद्योग करवट लेता रहा, बहुत सारे गायक-गायिकाओं के गीत गूंजते रहे लेकिन शारदा सिन्हा लंबे समय तक लोगों की पसंद बनी रहीं। उनके नाम को सम्मान के साथ लिया और सुना जाता रहा था तो इसकी कई वजहें भी थीं। संगीत की विभिन्न विधाओं की जानकारी होने, संगीत की शिक्षिका होने के बावजूद उन्होंने लोक संगीत की माटी से जुड़े उसके सौंधेपन, उसकी अनगढ़ता, उसके खुरदुरे शिल्प को बड़े जतन से बचाए रखा। यही कारण था कि जब वे गातीं तो लोक उससे जुड़ जाता था, अपने बीच का लगता रहा। वे सालों-साल घर-घर में पटना से वैदा बुलाती रहीं, बंगाल से सिंदूर मंगवाती रहीं, तनी ताक तक द बलमुवा की मिन्नत करती रहीं, लोग थे कि इस पुकार में अपने स्वर मिलाते रहे, मुस्कुराते और लजाते रहे। जगदंबा घर में दियरा., शिव मानत नाही. जैसी भक्ति रचनाएं वर्षो तक लोगों की प्रार्थनाओं में शामिल रहीं।  शारदा सिन्हा ने केकरा से कहां मिले..से जो लोकप्रियता पाई थी, वह उनकी लंबी संगीत यात्रा में कभी कम होती नहीं दिखी। वे हर घर-परिवार में कई-कई पीढ़ियों तक शामिल रहीं, उसके सुख-दुख को स्वर देती रहीं। भोजपुरी समाज की कल्पना शारदा सिन्हा के बीच अधूरी-सी लगती है। उनके गीतों ने न सिर्फ  लोकप्रियता की ऊंचाई को छूआ, बल्कि उस लोकप्रियता को लगातार कायम भी रखा।

लेकिन जमाना कितना भी बदला, बोल्ड और बिंदास हुआ, भोजपुरी को व्यावसायिक फायदे का चस्का लगा, अश्लील, फूहड़ और द्विअर्थी चाशनी गीतों में मिलाई गई, शारदा सिन्हा के निश्चय को कोई डिगा नहीं सका। उन्होंने अपने गीतों में मर्यादा से कोई समझौता नहीं किया। भोजपुरी पर कीचड़ उछाले जाते रहे लेकिन शारदा सिन्हा का आंचल कभी मैला नहीं हुआ। उन्होंने फिल्में चुनीं तो राजश्री बैनर की और जब कभी किसी और के लिए भी गाया तो शालीनता से समझौता नहीं किया, हिंसा और गालियों से भरी ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में भी वे तार बिजली..ही गाकर लौट आई।

शारदा सिन्हा ने एक बार बताया था कि छठ के गीतों को पहले-पहल रिकार्ड कराने जब वे गई तो एचएमवी वाले तैयार नहीं थे। वे इन गीतों को समझते नहीं थे। वे इन्हें नहीं करना चाहते थे क्योंकि उनके अनुसार इनकी भाषा बहुत कठिन थी। 1978-79 में गाया था उन्होंने -‘अंगना में पोखरी खनाय..’। जब यह आया तो बहुत ही लोकप्रिय हुआ। 2016 में एक बार फिर कीर्तिमान बना जब उन्होंने ‘पहिले पहल..’ गाया। छठ की एक घटना के बारे में उन्होंने बताया था, ‘एक बार की बात है कि पटना में बहुत इच्छा हुई कि छठ करूं। सीधा पल्ला करके, सिर पर आंचल लेकर जाने की सोची जिससे लोग पहचान न सकें। कुछ मीडिया वाले भी साथ हो गए, बोले कि हम आपको ले चलेंगे।

इसी दौरान एक बुजुर्ग महिला मुझे दिखीं जो दंडवत पण्राम करते छठ की पूजा को जा रही थीं। मेरी इच्छा उन्हें पण्राम करने की हुई लेकिन मैं जैसे ही उन्हें पण्राम करने को झुकी, लोगों ने मुझे पहचान लिया। फिर तो सैकड़ों लोग मुझे ही पण्राम करने लगे। मैं बुरी तरह घिर गई, बहुत घबरा गई। किसी प्रकार पुलिस आदि की मदद से मुझे निकाला जा सका। उसके बाद मैं कभी घाट पर नहीं गई।’ वह कहती थीं, ‘ छठ एक ऐसा पर्व है जिसमें उगते सूर्य के साथ ही डूबते सूर्य की भी पूजा होती है। ऐसा हमारे यहां ही होता है। उगते सूर्य को तो दुनिया पण्राम करती है, इसको लेकर मुहावरा भी है लेकिन डूबते सूर्य की पूजा हमारी परंपरा में है। अंधकार के बाद फिर प्रकाश आता है। उजाले की, प्रकाश की प्रत्याशा, उसकी उम्मीद में अंधकार को भी पण्राम करते हैं। डूबते सूर्य को भी पण्राम करते हैं कि आपको फिर उगकर हमें प्रकाशित करना है। यह हमारी आशा है, हमारे मन का विश्वास है कि हर अंधकार के बाद प्रकाश को आना है। सूर्य को डूबना है लेकिन अगले दिन उगकर हमें फिर प्रकाशित करना है।’

शारदा सिन्हा को राजनीति के ऑफर भी बहुतेरे मिले। शायद ही कोई ऐसा छोटा-बड़ा सियासी दल हो, जिसने उनको अपने यहां आने का निमत्रंण न दिया हो? लेकिन वे सभी ऑफरों को सहर्ष ठुकराती गई। कई मर्तबा उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा भी कि उन्हें राजनीति बिल्कुल पसंद नहीं। समाज ने उन्हें छठ कोकिला की उपाधि दे रखी थी जिसे वह सबसे बड़ा सम्मान ताउम्र मानती रहीं। छठ पर अपनी मीठी आवाज से संगीत प्रेमियों की जुबान पर ऐसे चढ़ी कि कभी उतर ही नहीं पाई। शारदा सिन्हा के गीत केवल डूबते-उगते सूर्य की पूजा के पर्व के गीत तो हैं ही, उन गीतों के पास बैठ कर हमारे जीवन का अंधेरा भी दूर होता है।

आलोक पराड़कर


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