राजनीति : ईमानदारी और शुचिता बेहद जरूरी

Last Updated 07 Nov 2024 12:38:30 PM IST

‘विजिलेंस अवेयरनेस वीक’। जी हां, हर साल देश अक्टूबर के अंतिम सप्ताह और नवम्बर के पहले हफ्ते में इसी नाम से सतर्कता एवं जागरूकता सप्ताह मनाता आ रहा है। इस बार भी मना।


इस मौके पर केंद्र सरकार की विभिन्न संस्थाओं में कर्मचारियों एवं अधिकारियों को भ्रष्टाचार न करने और सार्वजनिक जीवन में शुचिता एवं ईमानदारी का पालन करने की शपथ दिलाई जाती है। मगर भ्रष्टाचार है कि जाता ही नहीं और जागरूकता है कि आने के बावजूद भी कामयाब होती नहीं दिखती।  

कुछ साल पहले ही अण्णा हजारे का आंदोलन  भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में बदलाव लाने के  लिए बड़ा चर्चित रहा और लगा कि आंदोलन से देश की हालत एवं हालात बदलेंगे पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। इससे पूर्व हमारे प्रधानमंत्री ने 2014 में सीना ठोक कर कहा था-‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’। मगर हालत में बहुत ज्यादा बदलाव कहीं नजर नहीं आता। भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी हटाने के फेल्योर ने कई सवाल खड़े किए हैं।

भले ही संविधान के अनुसार भ्रष्टाचार के लिए यहां कोई जगह नहीं है, मगर भ्रष्टाचार की बीमारी इतनी गहरी पैठ कर गई है कि उसके इलाज के लिए छोटे-मोटे चीरे से काम नहीं चलने वाला।  देश सचमुच इस बीमारी से मुक्ति चाहता है, तो उसे कड़ा रुख अपनाते हुए बड़े ऑपरेशन की तैयारी करनी पड़ेगी।

आम आदमी से बात करें तो वह साफ कहता है कि भ्रष्टाचार सर्वत्र व्याप्त है। एक वाक्य ‘ईमानदार वही है जिसे मौका नहीं मिला’ कहीं खुल कर तो कहीं दबी आवाज में सुना जा सकता है। ऐसा भी नहीं है कि भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार कोई नया हो, भ्रष्टाचार की पदचाप तो यहां अस्सी के दशक से ही सुनाई देने लगी थी। जब पॉवर, राजनीति, ओहदा, सामथ्र्य और भ्रष्टाचार कमोबेश एक दूसरे के पर्याय बन कर उभरते चले गए। याद कीजिए, 1974 में इंदिरा गांधी पर स्टेट बैंक से पैसे निकालने का आरोप, जब कहा गया कि नटवर लाल ने उनकी आवाज की नकल करके यह कृत्य किया था। तब इंदिरा पर किसी ने भी शक नहीं किया था, पर बाद में उनकी ईमानदारी की छवि में भी दम नहीं रहा। 1989-1991 में तो सीघे-सीधे तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ही हषर्द मेहता और लक्खू भाई पाठक मामलों में कठघरे में आ गए। उन्हें बेईमान तो सिद्ध नहीं किया जा सका पर आम आदमी ने शक किया। इससे पहले भी राजीव गांधी पर बोफोर्स मामले में कमीशन के आरोप लग चुके थे, फिर फेयरफैक्स लाकर वीपी सिंह को लपेटने की कोशिश हुई पर चली नहीं जबकि क्वात्रोचि और बोफोर्स का भूत लंबे समय तक जिंदा रहा।

इसके बाद तो एक प्रकार से भ्रष्टाचार के संदर्भ में बेशर्मी के युग की शुरु आत हो गई।  एक दो करोड़ को तो नेता भ्रष्टाचार मानते ही नहीं। कहते हैं कि अमुक की हैसियत इतनी है कि इतनी छोटी सी रकम के लिए नहीं गिरेगा यानी गिरावट भी अब हैसियत के अनुसार होने लगी है। हालांकि भ्रष्टाचार ने केंद्र और राज्यों में समय-समय पर अनेक लोगों, नेताओं, अफसरों और कर्मचारियों की बलि भी ली हैं पर भ्रष्टाचार न केवल बना और बचा ही रहा अपितु बढ़ता भी गया है, और हालात यहां तक पंहुच गए हैं कि राजनीति में ऊंचे पदों पर बैठे व्यक्तियों पर हर कोई उंगली उठाता दिख रहा है। कितना अच्छा होता कि लोग इस दोषारोपण पर विश्वास न कर पाते पर आज ऐसे हालात हैं, तो इसके बारे में भी हमें सोचना ही होगा कि आखिर, ऐसे हालात पैदा ही क्यों हुए कि बजाय आरोप लगाने वाले पर शक करने के, लोग जिन पर आरोप लग रहे हैं, उन्हीं पर उंगली उठा रहे हैं।   

नेताओं और उनके इर्द गिर्द जुटे अधिकारियों, दलालों, ठेकेदारों की बेतहाशा बढ़ती संपत्ति लोग देख रहे हैं। यह भी कि थोड़े दिन पहले ही सत्ता या राजनीति में आए लोग अचानक कैसे करोड़पति, अरबपति हो जाते हैं। खैर, समय-समय पर आंदोलन आएंगे और जाएंगे पर यक्ष प्रश्न तो वही है कि भ्रष्टाचार का अजदहा कब और कैसे मरेगा? और मरेगा भी या हमें ही मार कर दम लेगा। इस बात पर चिंतन करने का वक्त अब से बेहतर कब होगा? यह हम सोचें और सोचें मात्र नहीं वरन भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को जड़ से उखाड़ फेंकें। ऐसा कुछ करें कि नये लोगों को सीख मिले, पुराने सुधरें और देश का उत्थान हो।

जरूरी है नेता ही नहीं अपितु हम यानी आम आदमी भी खुद के अंदर झांके। कंबल, रजाई, दारु , जाति, धर्म, संप्रदाय से विरत हो अच्छे और सच्चे लोगों को ही संसद और विधानसभाओं में भेजें। माना भूख है, गरीबी है, डर है, पर हर डर के आगे जीत है। वही जीत पाने का वक्त है आज। यदि भ्रष्टाचार के बेलगाम घोड़ों को रोकना है तथा देश को शुचिता के रास्ते पर डालना है तो सतर्कता एवं जागरूकता को जीवन का अनिवार्य अंग बनाना पड़ेगा। जीवन में शुचिता तथा ईमानदारी एवं निस्पृहता को सर्वोपरि स्थान देना पड़ेगा तब कहीं जाकर सतर्कता एवं जागरूकता सप्ताह जैसे औपचारिक अभियान यथार्थ के धरातल पर उतर पाएंगे।

डॉ. घनश्याम बादल


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