चुनाव आयोग : फैसलों में दिखाई दे निष्पक्ष

Last Updated 09 Nov 2024 01:38:21 PM IST

वर्ष 2024 के लोक सभा चुनाव के बाद होने वाले कई विधानसभा के चुनावों में भारत निर्वाचन आयोग की भूमिका पर कई सवाल उठे हैं परंतु आयोग ने अपने फैसलों को बदलना तो दूर अपनी प्रतिक्रिया भी नहीं दी।


विवादों में घिरी ‘ईवीएम’ हो या चुनावों के बाद पड़ने वाले मतों की संख्या, चुनाव आयोग हमेशा ही चर्चा में रहा। परंतु हाल में आयोग ने आने वाले विधानसभा के चुनावों में कुछ ऐसे निर्णय लिए जिन्हें कड़ी निंदा का सामना करना पड़ा। ऐसे में यह भी देखना जरूरी है कि चुनाव आयोग, जिसकी कार्यशैली पर सवाल उठे, इन चुनाव के चलते लिए गए विवादित निर्णयों को कैसे सार्थक करेगा?

आम चुनाव हो या विधानसभा के चुनाव, मतदाता इन्हें हमेशा से ही पर्व की तरह मानता है। हर राजनैतिक दल वोटरों के सामने अगले पांच साल के लिए उनके मत की अपेक्षा में बड़े-बड़े वादे देकर लुभाने की कोशिश करते हैं। परंतु जनता भी जान चुकी है कि दल चाहे कोई भी हो, राजनैतिक वादे सभी दल ऐसे करते हैं मानो जनता उनके लिए पूजनीय है और ये नेता उनके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। परंतु क्या वास्तव में ऐसा होता है कि चुनावी वादे पूरे किए जाते हों? क्यों नेताओं को चुनावों के समय ही जनता की याद आती है? खैर, यह तो रही नेताओं की बात। आज जिस मुद्दे पर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जा रहा है वो है चुनावों में पारदर्शिता।

इन वादों को लेकर भी कई राजनैतिक दल अपने नेताओं को चेता रहे हैं कि वही वादे करें जो पूरे किए जा सकते हैं। सरकार चाहे किसी भी दल की क्यों न बने। चुनावों का आयोजन करने वाली सर्वोच्च सांविधानिक संस्था भारत निर्वाचन आयोग चुनावों को कितनी पारदर्शिता से कराता है, इसकी बात बीते  महीनों से सभी कर रहे हैं। चुनाव आयोग की प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि हर दल को पूरा मौका दिया जाए और निर्णय जनता के हाथों में छोड़ दिया जाए। बीते कुछ महीनों में चुनाव आयोग के साथ पहले ईवीएम को लेकर और फिर वीवीपैट को लेकर काफी विवाद रहा। हर विपक्षी दल ने एक सुर में कहा कि ईवीएम हटा कर बैलट पेपर पर ही चुनाव कराया जाए परंतु शीर्ष अदालत ने आयोग को निर्देश देते हुए अधिक सावधानी बरतने की बात कहते हुए ईवीएम को जारी रखा। ताजा मामला चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित तारीखों को बदलने को लेकर हुआ। आयोग ने यूपी, पंजाब और केरल की विधानसभा सीटों के उपचुनाव के लिए तारीखों को बदलने का निर्णय लिया।

गौरतलब है कि तारीख बदलने का काम पहली बार नहीं हुआ है, बल्कि एक ही साल में तीन बार ऐसा निर्णय लिया गया। एक बार मतगणना की तारीख बदली गई तो दो बार मतदान की तारीख। तारीख बदलने से मतदान और परिणामों पर क्या असर पड़ेगा, यह तो अलग विषय है परंतु चुनाव की तारीख घोषित करने के बाद उसे बदलना तो कई तरह के सवाल उठाता है। भारत निर्वाचन आयोग बहुत बड़ी संस्था है जिसका एकमात्र लक्ष्य देश में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराना है। जब भी चुनावों की तारीखें घोषित की जाती हैं, तो उसके पीछे एक कड़ा अभ्यास होता है। जैसे कि चुनाव की तारीख पर स्कूल के इम्तिहान न हों। यदि ऐसा होता है तो मतदान के लिए स्कूल उपलब्ध नहीं हो सकते। न ही इन तारीखों पर चुनाव ड्यूटी के लिए अध्यापक और अन्य स्कूली स्टाफ उपलब्ध हो सकता।

जिन तारीखों पर चुनाव होने हैं, उन दिनों में कोई त्योहार या पर्व न आते हों। ऐसा होने से भी मतदान की प्रक्रिया पर असर पड़ सकता है। चुनाव की तारीखों को तय करने से पहले ऐसे कई पहलू होते हैं, जिनका संज्ञान लिया जाता है। यदि चुनाव आयोग एक बार मतदान की तारीखों की घोषणा कर देता है तो उसमें बदलाव की गुंजाइश अप्रिय घटनाओं के चलते ही हो सकती है। यदि फिर भी चुनाव आयोग घोषणा के बाद तारीखों में बदलाव करता है, तो इसका मतलब हुआ कि चुनाव आयोग ने तारीखों की घोषणा से पहले इन सब बातों पर समग्रता से विचार नहीं किया अथवा राज्यों के निर्वाचन अधिकारी केंद्रीय चुनाव आयोग को क्षेत्र की धार्मिंक-सांस्कृतिक परंपरा की सही जानकारी नहीं दे सके। यदि त्योहारों की बात करें तो कोई भी ऐसा पर्व नहीं है, जिसकी तिथि पहले से तय नहीं होती।

तो क्या चुनाव आयोग सभी धर्मो के धार्मिंक और सांस्कृतिक कैलेंडर का संज्ञान नहीं लेता? क्या पवरे की महत्ता का आकलन आयोग अपने मन से करता है? यह तथ्य है कि चुनाव आयोग चुनाव घोषित करने से पहले हर राजनैतिक दल से चर्चा अवश्य करता है। क्या उस चर्चा में ये विषय नहीं उठाए जाते? यदि किसी राजनैतिक दल ने चुनाव की तारीखों को लेकर आपत्ति जताई तो उस पर आयोग ने देर से निर्णय क्यों लिया? जिस तरह केंद्रीय चुनाव आयोग इवीएम और वीवीपैट को लेकर पहले से ही विवादों में घिरा हुआ है, उसे चुनावों में पारदर्शिता का न केवल दावा करना चाहिए, बल्कि पारदर्शी दिखाई भी देना चाहिए। इसलिए चुनाव आयोग को सवालों को गंभीरता से लेना चाहिए और ख़्ाुद को संदेह से दूर रखने का प्रयास करना चाहिए। एक स्वस्थ लोकतंत्र की मजबूती के लिए निष्पक्ष एवं पारदर्शी चुनाव और चुनावी प्रक्रिया का होना ही समय की मांग है।
(लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

रजनीश कपूर


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