माओवादी : मुख्यधारा में लाने के ठोस उपाय जरूरी
नक्सलियों को जड़ से समाप्त करने या नक्सली समस्या के समाधान के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा किए जा रहे प्रयासों के चलते नक्सली हमलों में धीरे-धीरे कमी आ रही है, और नक्सल-प्रभावित क्षेत्र लगातार सिमटते जा रहे हैं।
माओवादी : मुख्यधारा में लाने के ठोस उपाय जरूरी |
हर व्यक्ति बेहतर और शांतिपूर्ण जीवन जीना चाहता है, और ऐसे में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयास सराहनीय हैं, लेकिन इससे भी बेहतर परिणाम तब मिलेंगे जब सरकारें पुनर्वास, रोजगार और विकास पर ध्यान केंद्रित करेंगी। हालांकि, इस दिशा में कुछ प्रयास जरूर किए गए हैं।
कई नक्सल-प्रभावित क्षेत्रों में सरकार ने सुरक्षा के साथ-साथ विकास कार्यों पर भी जोर दिया है। कई स्थानों पर सड़कों का निर्माण हुआ है, और बुनियादी सुविधाएं भी बहाल की गई हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में सुरक्षा बलों के साथ मिल कर जिला प्रशासन ने कई कार्यक्रम चलाए हैं, जिनमें ‘नक्सलवाद छोड़ो और विकास से नाता जोड़ो’ अभियान की विशेष चर्चा हुई। इस अभियान के तहत नक्सली आंदोलन छोड़ चुके लोगों को खेती, रोजगार और अन्य स्वरोजगार के अवसरों के बारे में जागरूक किया गया।
उन्हें प्रशिक्षण प्रदान किया गया ताकि वे विकास की मुख्यधारा से जुड़ सकें। पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए भी पहल की गई, जिससे बस्तर में पर्यटन व्यवसाय को उन्नत किया जा सके और आमदनी के स्रेत विकसित किए जा सकें। हथियार छोड़ चुके नक्सलियों के लिए यह महत्त्वपूर्ण प्रयास साबित हुआ जिससे अन्य नक्सल समर्थकों में भी सकारात्मक परिवर्तन देखे गए। उन्हें समझ में आया कि हिंसा छोड़ कर वे अपने और अपने समाज का भविष्य संवार सकते हैं। कई पूर्व नक्सली सरकारी नौकरी कर रहे हैं जबकि कुछ स्वरोजगार के जरिए जीवन यापन। लोगों का मानना है कि इसी प्रकार के विकास कार्यों से नक्सल-प्रभावित इलाकों को मुख्यधारा में लाया जा सकता है।
ज्ञात हो कि 2015 में वामपंथी उग्रवाद से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने एक नीति बनाई थी, जिसमें सुरक्षा के साथ-साथ विकास को भी अहमियत दी गई थी। सच्चाई यह है कि नक्सल-प्रभावित इलाकों में सरकार समय-समय पर विकास कार्य करती रही है। सड़क, इंटरनेट, अस्पताल और स्कूल जैसी बुनियादी सुविधाएं प्रदान की गई हैं। सैकड़ों मोबाइल टावर लगाए गए और हजारों किमी. सड़कों का निर्माण हुआ है। जवाहर नवोदय विद्यालय और केंद्रीय विद्यालय जैसे शैक्षिक संस्थान भी संचालित हो रहे हैं। 2013 में आजीविका योजना के तहत ‘रोशनी’ नामक पहल शुरू की गई थी, ताकि सबसे अधिक नक्सल-प्रभावित जिलों में युवाओं को रोजगार के लिए प्रशिक्षित किया जा सके। हालांकि, यह चिंता का विषय है कि 2015 तक बिहार और झारखंड राज्यों को ही इसके लिए फंड आवंटित हो सका था। पिछले साल नक्सलवाद समाप्त करने के लिए केंद्र ने ‘समाधान’ नामक 8 सूत्री पहल की भी घोषणा की थी, जिसके तहत नक्सलियों से लड़ने के लिए रणनीतियों और कार्ययोजनाओं पर बल दिया गया लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी।
दरअसल, नक्सल आंदोलन के उद्देश्यों और स्वरूप में बदलाव आया है। जहां उनकी लड़ाई आर्थिक-सामाजिक विषमता से है, वहीं दूसरी ओर यह समस्या राजनीतिक उलझनों में भी फंस गई है। राजनीतिक बयानबाजी के चलते उन्हें ज्यादा निशाना बनाया जा रहा है। कई राजनीतिज्ञ इस मुद्दे का राजनीतिक लाभ उठाने से भी नहीं चूकते। चिंताजनक है कि आजादी के 75 साल बाद भी अनुसूचित क्षेत्रों में समुचित विकास के ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं। संविधान की पांचवी अनुसूची को लागू करने में भी लापरवाही बरती गई। अनुसूचित क्षेत्रों में ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल की स्थापना की बात कही गई थी, लेकिन अब तक उस दिशा में ठोस पहल नहीं हो पाई।
नक्सलवाद की जड़ें गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी में गहराई से जुड़ी हैं। जब तक इन मुद्दों पर युद्ध स्तर पर काम नहीं होगा तब तक नक्सल समस्या का समाधान संभव नहीं है। हिंसा की घटनाओं के साथ-साथ ग्रामीणों के अधिकारों और उनकी समस्याओं पर भी ध्यान देना जरूरी है। स्थानीय लोगों का विश्वास जीतना और हथियार छोड़ चुके नक्सलियों से बातचीत कर समाधान निकालना आवश्यक है। गरीबी और भुखमरी जैसे मुद्दों पर ध्यान देना हिंसा का समर्थन करना नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य यह है कि हर व्यक्ति को संवैधानिक अधिकार मिलें और उसकी रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी जरूरतें पूरी हों। उनकी सुरक्षा और विकास के मार्ग प्रशस्त किए जाएं।
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