दूध और दूध से बने पदार्थ : सांच पर आंच का साया
अमेरिका में हमारे एक शुभचिंतक सतीश जी हैं, जिन्होंने मुंबई आईआईटी से पढ़ाई करके अमेरिका में अपार धन कमाया पर वे अत्यंत धार्मिंक हैं, और शास्त्रों में पारंगत भी।
दूध और दूध से बने पदार्थ : सांच पर आंच का साया |
उन्होंने गौवंश की सेवा के लिए ब्रज की एक गौशाला को 800 करोड़ रु पये दान दिया था पर अब वो गोरस (दूध, दही, छाछ, मक्खन, पनीर आदि) के दैनिक जीवन में उपभोग के घोर विरोधी हो गए हैं, और उस गौशाला को भी दान देना बंद कर दिया है। पिछले हफ्ते मेरी उनसे बीस बरस बाद टेलीफोन पर बात हुई तो उन्होंने मुझसे जोर देकर कहा, ‘मैं और मेरा परिवार गोरस का उपभोग तुरंत बंद कर दें और ‘वीगन’ बन जाएं।’ आज दुनिया में करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो वीगन बन चुके हैं यानी पशु आधारित किसी भी खाद्य पदार्थ का सेवन नहीं करते। मतलब डेयरी और मीट उत्पाद उनके भोजन से दूर जा चुके हैं।
मैं सतीश जी के जीवन की पवित्रता, आध्यात्मिक ज्ञान, संस्कृत में संभाषण करने की क्षमता और धर्मार्थ कार्यों में उदारता से दान देने की प्रवृत्ति का सम्मान करता हूं पर उनकी यह सलाह मेरे गले नहीं उतरी। मुरलीधर गोपाल के भक्त हम सब ब्रजवासी गोरस को अपने दैनिक जीवन से भला कैसे दूर कर सकते हैं? कल्पना कीजिए, आपको गर्म दूध, ठंडी लस्सी, पेड़े, गोघृत में चुपड़ी रोटी और नमक-जीरे की छौंक लगी छाछ या मलाईदार कुल्फी के सेवन से अगर अचानक वंचित कर दिया जाए तो हम ब्रजवासी जल बिन मछली की तरह तड़प जाएंगे।
हम ही क्यों, बाहर से श्रीवृंदावन बिहारी के दर्शन करने आने वाले करोड़ों भक्त, दर्शन करने के बाद सबसे पहले कुल्हड़ की लस्सी और वृंदावन के पेड़ों पर ही तो टूट कर पड़ते हैं। अगर उन्हें ये ही नहीं मिलेगा और ठाकुर जी की प्रसादी माखन मिश्री नहीं मिलेगी तो क्या ब्रज आने का उनका उत्साह आधा नहीं रह जाएगा? पर सतीश जी का तर्क भी बहुत वजनदार है। उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं ओटीटी प्लेटफार्म पर जा कर एक फिल्म ‘मां का दूध’ अवश्य देखूं।
ढाई घंटे की यह फिल्म बहुत गहन शोध और मेहनत से बनाई गई है। इसे देखने वाले का कलेजा कांप उठेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इस फिल्म को देखने से पता चलता है कि दूध के नाम पर अपने को शाकाहारी और सात्विक मानने वाले हम लोग भी, जाने-अनजाने ही पशु हिंसा के भयंकर पाप कर्म में लिप्त हो रहे हैं। यह फिल्म हम सब की आंखें खोल देती है, यह बता कर कि हम पढ़े-लिखे लोग भी किस तरह अपनी अज्ञानता के कारण अपने भोजन में नित्य जहर खा रहे हैं। आज महामारी की तरह फैलता कैंसर रोग इसका एक प्रमाण है। मैंने सतीश जी के कहने पर अभी गोरस का प्रयोग बंद नहीं किया है पर फिल्म देखने के बाद मैंने उनसे कहा कि उनकी बात में बहुत वजन है। पर यह भी कहा कि सदियों का अभ्यास क्षणों में आसानी से छोड़ा नहीं जाता। यहां आपके मन में प्रश्न उठेगा कि गोरस और शाकाहार करने वाले लोग पशु हत्या के पाप में कैसे लिप्त हो सकते हैं?
इस फिल्म को देखने से पता चलता है कि दूध के लालच में बिना दूध देने वाली करोड़ों गायों और उनके बछड़ों को रोज कत्ल किया जा रहा है, और उनके मांस का व्यापार अन्य देशों की तुलना में तपोभूमि भारत में सबसे ज्यादा हो रहा है। जब भगवान श्रीकृष्ण-बलराम गायों को चराते थे तब भारत की अर्थव्यवस्था गोवंश और कृषि पर आधारित थी। गऊ माता के दूध, गोबर और मूत्र से हमारा शरीर और पर्यावरण पुष्ट होता था और बैल कृषि के काम आते थे। दूध न देने वाली बूढ़ी गाय और हल में न जुत सकने वाले बैल कसाईखाने को नहीं बेचे जाते थे, बल्कि परिवार के बुजुगरे की तरह उनकी घर पर ही आजीवन सेवा होती थी। उनकी मृत्यु पर परिवार में ऐसे ही शोक मनाया जाता था जैसे परिवार के मुखिया के मरने पर मनाया जाता है।
पिछले दशकों में आधुनिक खेती के नाम पर खनिज, उर्वरक, कीटनाशक, डीजल ट्रैक्टर और अन्य आधुनिक उपकरणों को भारतीय किसानों पर क्रमश: थोप दिया गया। नतीजतन, किसान की भूमि की उर्वरता, उसके परिवार का स्वास्थ्य, उसकी आर्थिक स्थिति और उसके परिवेश पर ग्रहण लग गया। इस तथाकथित विकसित कृषि ने उसे कहीं का न छोड़ा। यह मत सोचिएगा कि इस सबका असर केवल किसानों के परिवार पर ही पड़ा है, बल्कि आप और हम भी इस दुश्चक्र में फंस कर स्वस्थ जीवन जीने की संभावना से हर दिन दूर होते जा रहे हैं।
नकली दूध का कारोबार
क्या आप जानते हैं कि भारत में रोजाना मात्र 14 करोड़ लीटर दूध का उत्पादन होता है जबकि भारत में हर दिन 64 करोड़ लीटर दूध और उससे बने पदार्थों की खपत होती है। यह खपत 50 करोड़ लीटर नकली सिंथेटिक दूध बना कर ही पूरी की जाती है। गोपाल की लीलाभूमि ब्रज तक में नकली दूध का कारोबार खुलेआम धड़ल्ले से किया जा रहा है। कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। इस तरह दूध के नाम पर हम सब अपने परिवार को जहर खिला रहे हैं। मूल प्रश्न पर लौटें, गौ रस पान से हिंसा कैसे होती है? जब केवल दूध की चाहत है तो दूध देना बंद करने वाली गायों को कसाईखाने में कटने के लिए भेज दिया जाता है। इसी तरह जब खेती में बैल की जगह ट्रैक्टर जुतने लगे तो बछड़े और बैल का धड़ल्ले से उपयोग मांस के व्यापार के लिए होने लगा है। इस तरह उनकी हत्या के लिए हम सब भी अपराधी हैं। इस गंभीर विषय को पूरी तरह समझने के लिए आप ‘मां का दूध’ फिल्म जरूर देखिएगा। यह गंभीर चर्चा हम आगे भी जारी रखेंगे। मैंने सतीश जी को आासन दिया है कि इस गंभीर विषय पर मैं अभी और शोध करूंगा और इसके हल का अपने जीवन में हम क्या विकल्प सोच सकते हैं, इस पर भी अनुभवी लोगों से प्रश्न पूछूंगा, तभी कोई निर्णय ले पाने की स्थिति में पहुंच पाऊंगा। पाठक भी इस विषय पर गहरी जांच करें।
(लेखक के निजी विचार हैं)
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