इंसानियत : मनुष्य की सबसे बड़ी पहचान रक्षक के रूप में
पृथ्वी पर जीवन के लाखों रूप हैं पर केवल मनुष्य में क्षमता है कि नियोजित ढंग से पृथ्वी के लाखों विविध तरह के जीवन-रूपों की रक्षा के लिए प्रयास कर सके, उनके पनपने और फलने-फूलने के अनुकूल पर्यावरण की रक्षा कर सके। मनुष्य की विशिष्ट क्षमताओं का मूल औचित्य इसी में है कि जीवन के विभिन्न रूपों की रक्षा करे।
इंसानियत : मनुष्य की सबसे बड़ी पहचान रक्षक के रूप में |
यही मानवता का मुख्य उद्देश्य है। जब मनुष्य अपने इस मूल उद्देश्य और औचित्य के अनुरूप जीते हैं, तभी वे इंसानियत की कसौटी पर खरा उतरते हैं, तभी सही अथरे में इंसान कहलाते हैं। जितनी बढ़ती संख्या में मनुष्य इंसानियत को प्राप्त करेंगे या इसके अनुरूप जीवन जिएंगे, उतनी ही पृथ्वी पर जीवन के विविध रूपों की रक्षा होगी।
सार्थक सामाजिक बदलाव की राह यही होनी चाहिए कि बढ़ती संख्या में मनुष्य अपने मूल उद्देश्य को पहचानें और विभिन्न जीवन रूपों के रक्षक के रूप में मनुष्य की मूल भूमिका को व्यापक पहचान मिले। जब इस तरह इंसानियत का प्रसार तेजी से होगा तो पृथ्वी पर मनुष्य सहित सभी जीवन रूपों के दुख-दर्द भी तेजी से कम होंगे। क्या ही अच्छी बात होती, कितनी सुंदर वह दुनिया होती, यदि पृथ्वी पर मनुष्य का जो कल्याणकारी उद्देश्य है, उसके अनुकूल ही सब मनुष्यों को स्वभाव सदा के लिए मिला होता। तब सभी मनुष्य अपना जीवन एक-दूसरे की व जीवन के अन्य रूपों की भलाई के लिए जीते व दुनिया सभी के लिए बहुत कल्याणकारी होती।
किंतु अफसोस कि ऐसा नहीं है। अपने मूल कर्त्तव्य व औचित्य के अनुरूप जीवन जीने के गुण ऐसे ही प्राप्त नहीं हो जाते हैं अपितु उन्हें विकसित करने के लिए काफी प्रयास करना पड़ता है। सभी मनुष्य ऐसे ही इंसान नहीं बन जाते, काफी प्रयास करने के बाद इंसान बन सकते हैं। हां, यदि समाज में अनुकूल माहौल हो तो मनुष्यों के इंसान बनने की संभावना बढ़ जाती है, यह कार्य सहज हो जाता है और अधिक संख्या में मनुष्य इंसान बनने लगते हैं।
जिस समाज में बहुत अन्याय और विषमता है, प्राय: वहां बहुत गरीबी व अभाव भी हैं। जब कोई व्यक्ति भूख से पीड़ित है या अन्य गंभीर अभावों से त्रस्त है तो उसे इंसानियत का उपदेश देना क्रूर मजाक है। यह अलग बात है कि कई गरीब घोर कठिनाइयों के बीच सच्चे इंसान का जीवन जीकर दिखा देते हैं। पर व्यापक सच्चाई यह है कि जिस समाज में विषमता व इससे उत्पन्न अभाव हैं, वहां बहुत से लोग अपनी बुनियादी जरूरतों के संघर्ष में इतने उलझे होते हैं कि उनके लिए दूसरों के दुख-दर्द दूर करने के लिए अधिक समय निकालना कठिन होता है। दूसरा अवरोध यह है कि मनुष्य को इंसान बनने के लिए जो प्रेरणादायक माहौल चाहिए वह प्राय: समाज में नजर नहीं आता।
इसके स्थान पर ऐसे जीवन मूल्य अधिक नजर आते हैं जो इंसानियत के रास्ते से विचलित करते हैं। सभी मनुष्यों के जीवन में अपनी कमजोरियों और इंसानियत के गुणों के बीच में संघर्ष होता है। विभिन्न तरह के ऐन्द्रिक सुखों का आकषर्ण उसके जीवन पर हावी होने का प्रयास करता है। जब यह विभिन्न तरह के ऐन्द्रिक सुख अंतहीन लालच का रूप ले लेते हैं तो वे मनुष्य पर हावी हो जाते हैं व मनुष्य के कार्य व व्यवहार को नियंत्रित करने लगते हैं। इस स्थिति में मनुष्य जीवन भर इन ऐन्द्रिक सुखों के पीछे भागता-भटकता रहता है व अपने मूल कर्त्तव्य की बात को भूल जाता है। इतना ही नहीं, ऐन्द्रिक सुखों का पीछा करने में अगर उसे अपने मूल कर्त्तव्य को, इंसानियत के उसूलों को रौंदना भी पड़े तो उसे कोई हिचक नहीं होती है।
जब किसी में अंतहीन लालच होता है तो उसमें दूसरों के हक व जरूरत की परवाह न कर अपने लिए अधिक छीनने की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से पनपती है। वह बिना किसी झिझक के दूसरे मनुष्य के दुख की परवाह किए बिना उसका हक व संसाधन छीन सकता है। जहां तक पशु-पक्षियों के हक या उनका जीवन तक छीनने का सवाल है, तो इसके बारे में तो वह और भी कम चिंता करता है। जब दुनिया में अंतहीन लालच वाले मनुष्य अधिक पनपते हैं तो दुनिया इंसानियत के मूल उद्देश्य से बुरी तरह भटक जाती है।
इस दुनिया में कुछ शक्तिशाली मनुष्यों के अत्यधिक लालच व उपभोग के कारण बड़ी संख्या के अन्य मनुष्यों व अन्य जीवों का दुख-दर्द बहुत बढ़ जाता है। जब किसी देश या क्षेत्र में बहुत से लोगों में अंतहीन लालच की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है तो पहले वे अपने देश के लोगों को लूटते हैं व आपस में लड़ते-झगड़ते हैं। फिर दूसरे देशों या क्षेत्रों पर हमले करते हैं। पशु-पक्षियों, जलचरों के आवासों, वनों, नदियों, समुद्रों को भी बुरी तरह तबाह करते हैं। अत: मनुष्य का अंतहीन लालच इंसानियत की राह में सबसे बड़ा अवरोध है।
इस लालच को रोकने के लिए जरूरी है कि मनुष्य के ऐन्द्रिक सुखों की चाह नियंत्रित व मर्यादित हो। यदि यह नियंत्रण न हुआ तो अंतहीन लालच के चक्कर में फंस कर मनुष्य इंसानियत की राह से विमुख हो जाएगा। किंतु आज का हमारा समाज इंसानियत के अनुरूप गुण व सामथ्र्य विकसित करने को पर्याप्त महत्त्त्व नहीं दे रहा है। विश्व की अर्थव्यवस्था, राजनीति, इससे जुड़ा प्रचार-प्रसार, सामाजिक मूल्य, ये सब शक्तिशालियों के वर्चस्व पर आधारित ढांचे को चलाने पर आधारित हैं। इस तरह की कठिन परिस्थितियां इंसानियत की राह में जबरदस्त अवरोध बनी हुई हैं, पर हमें उनके बीच में से ही राह निकालनी पड़ेगी।
पहली बात तो यह है कि विषमता के स्थान पर समता, अन्याय के स्थान पर न्याय लाकर ऐसा समाज बनाया जाए जिसमें लोगों के लिए अपनी जरूरतें पूरी करना आसान हो। वैसे तो अनेक गरीब लोग अपनी निर्धनता के बावजूद सच्चे इंसान का जीवन पहले से जी रहे हैं। पर अभाव दूर होने पर यह सामथ्र्य अधिक लोगों के लिए बढ़ जाएगा। जीवन की बुनियादी जरूरतों की ओर से निश्चिंत होकर वे अपने जीवन में पर्याप्त समय और स्थान दूसरों की भलाई को दे सकते हैं।
साथ ही समाज में ऐसा माहौल बनाना बहुत जरूरी है जिससे लोग सच्चे इंसान बनने के लिए निरंतर प्रेरित हों। गरीबी, शोषण, विषमता दूर होने से यह संभावना बनती है कि जो लोग अब तक अपने अभाव दूर करने के संघर्ष में ही उलझे रहते थे, वे अब इंसानियत के व्यापक उद्देश्यों के अनुकूल जीवन जी सकें। किंतु जरूरी नहीं है कि इस सामथ्र्य का वास्तविक उपयोग इसी दिशा में हो। हो सकता है कि जिन्हें पहले जैसे अभाव नहीं हैं वे अब अपने ऐन्द्रिक सुखों या सुविधाओं में ही उलझते चले जाएं। अत: समाज में-परिवार व शिक्षा संस्थानों में, कार्यालयों व व्यावसायिक संगठनों में, संस्थानों व सम्मेलनों में, मेलों व त्यौहारों में, साहित्य व कलाओं में, प्रचार व प्रसार माध्यमों में जहां भी संभव हो हर स्तर पर ऐसा माहौल बनाने की जरूरत है, जो लोगों को सच्चे इंसान बनने के लिए प्रेरित करता रहे।
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