सिंधु जल संधि : भारत-पाक में बढ़ता तनाव
सिंधु जल संधि (IWT) के अंतर्गत भारत ने इसी साल 30 अगस्त को औपचारिक तौर से नोटिस दिया था कि वह इस पुरानी हो चुकी संधि पर नये सिरे से समीक्षा और संशोधन के लिए बातचीत करे, लेकिन पाकिस्तान का कहना है कि उसके लिए जल संधि अत्यंत महत्त्वपूर्ण है,अतएव भारत से अपेक्षा है कि वह संधि के प्रावधानों का पालन करे।
सिंधु जल संधि : भारत-पाक में बढ़ता तनाव |
पाकिस्तान का यह रुख उल्टा चोर कोतवाल को डांटे जैसा है। पाकिस्तान भारत की दो महत्त्वाकांक्षी पनबिजली परियोजनाओं पर भी आपत्ति जता रहा है। भारत इस विषय पर भी पाकिस्तान को 25 जनवरी, 2023 को नोटिस दे चुका है। भारत का आरोप है कि पाक इससे जुड़े मुद्दे को परस्पर बातचीत या पूर्व गठित व्यवस्था के तहत सुलझाने को लेकर गंभीर नहीं है। भारत की कोशिश रही है कि उसके उठाए मुद्दों को उदारतापूर्वक सुलझा लिया जाए। इस दौरान पांच बैठकें भी हुई लेकिन बेनतीजा रहीं।
विश्व बैंक की मध्यस्थता में 19 सितम्बर, 1960 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान ने सिंधु जल-संधि पर हस्ताक्षर किए थे। इसके तहत पाकिस्तान से पूर्वी क्षेत्र की तीन नदियों व्यास, रावी व सतलुज की जल राशि पर नियंत्रण भारत के सुपुर्द किया गया था और पश्चिमी नदियों सिंधु, चिनाब व झेलम पर नियंत्रण की जिम्मेदारी पाक को सौंपी गई थी। भारत के ऊपरी हिस्से में बहने वाली इन छह नदियों का 80.52 यानी 167.2 अरब घन मीटर पानी पाकिस्तान को हर साल दिया जाता है जबकि भारत के हिस्से में महज 19.48 प्रतिशत पानी ही शेष रह जाता है। नदियों की ऊपरी धारा (भारत में बहने वाला पानी) के जल-बंटवारे में उदारता की ऐसी अनूठी मिसाल दुनिया के किसी भी अन्य जल-समझौते में देखने में नहीं आई है।
इसलिए अमेरिकी सीनेट की विदेशी मामलों से संबंधित समिति ने 2011 में दावा किया था कि यह संधि दुनिया की सफलतम संधियों में से एक है। लेकिन यह संधि केवल इसलिए सफल है, क्योंकि भारत संधियों की शतरे को निभाने के प्रति उदार एवं प्रतिबद्ध बना हुआ है जबकि जम्मू-कश्मीर को हर साल इस संधि के पालन में 60 हजार करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है। भारत की भूमि पर इन नदियों का अकूत जल भंडार होने के बावजूद संधि के चलते इस राज्य को बिजली नहीं मिल पा रही।
दरअसल, सिंधु-संधि के तहत उत्तर से दक्षिण को बांटने वाली एक रेखा सुनिश्चित की गई है। इसके तहत सिंधु क्षेत्र में आने वाली तीन नदियां सिंधु, चिनाब और झेलम पूरी तरह पाकिस्तान को उपहार में दे दी गई हैं। इसके उलट भारतीय संप्रभुता वाले क्षेत्र में आने वाली व्यास, रावी व सतलुज नदियों के बचे हिस्से में ही जल सीमित रह गया है। इस लिहाज से यह संधि दुनिया की ऐसी इकलौती अंतर्देशीय जल संधि है, जिसमें सीमित संप्रभुता का सिद्धांत लागू होता है और संधि की असमान शतरे के चलते ऊपरी जलधारा वाला देश नीचे की ओर प्रवाहित होने वाली जलधारा वाले देश पाकिस्तान के लिए अपने हितों की न केवल अनदेखी करता है, अपितु बलिदान कर देता है।
दरअसल, पाकिस्तान की प्रकृति में ही अहसानफरामोशी है। इसीलिए भारत ने जब झेलम की सहायक नदी किशनगंगा पर बनने वाली ‘किशनगंगा जल विद्युत परियोजना’ की बुनियाद रखी तो पाकिस्तान ने बुनियाद रखते ही नीदरलैंड में स्थित ‘अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायालय’ में 2010 में ही आपात्ति दर्ज करा दी थी। जम्मू-कश्मीर के बारामूला जिले में किशनगंगा नदी पर 300 मेगावाट की जल विद्युत परियोजना प्रस्तावित है। हालांकि 20 दिसम्बर, 2013 को इसका फैसला भी हो गया था। दुर्भाग्य कह लें या भारत द्वारा ठीक से अपने पक्ष की पैरवी नहीं करने के कारण यह निर्णय भारत के व्यापक हित साधे रखने में असफल रहा है।
न्यायालय ने भारत को परियोजना निर्माण की अनुमति तो दे दी लेकिन भारत को बाध्य किया गया कि वह ‘रन ऑफ दि रिवर’ पण्राली के तहत नदियों का प्रवाह निरंतर जारी रखे। हैरानी की बात यह भी है कि यहां सत्तारूढ़ रहने वाली सरकारों और अलगाववादी जमातों ने इस बुनियादी मुद्दे को उछाल कर पाकिस्तान को कठघरे में कभी खड़ा नहीं किया? इसलिए आतंक का माकूल जवाब देने के लिए भारत सरकार को सिंधु जल को कूटनीतिक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करने की जरूरत है।
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