सियासत : केजरीवाल की गुगली
आतिशी मार्लेना अब दिल्ली की नई मुख्यमंत्री हैं। अरविंद केजरीवाल जमानत पर बाहर आने के बाद अचानक इस्तीफा देने की घोषणा करेंगे इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। आखिर, जो नेता जेल में रहते हुए मुख्यमंत्री पद छोड़ने को तैयार नहीं था, वह जमानत के बाद ऐसा करेगा कल्पना की भी कैसे जा सकती थी।
सियासत : केजरीवाल की गुगली |
केजरीवाल की राजनीति कभी ऐसी धारा और धुरी पर नहीं चलती कि आप उनके अगले कदम का अनुमान लगा सकें। उन्होंने घोषणा कर दी लेकिन इस्तीफा दिया नहीं। इसके लिए भी 48 घंटे का समय दे दिया यानी देश 48 घंटे कल्पना करता रहे कि वह क्या करेंगे, इस्तीफा देते हुए मुख्यमंत्री के रूप में किसके नाम की घोषणा करेंगे और सबकी दृष्टि उनकी ओर लगी रहे। अगर जेल से इस्तीफा दे देते तो अपने इसे मनमाफिक मोड़ देना और इस तरह का माहौल निर्मिंत कर देना संभव नहीं होता।
अगले वर्ष आरंभ में दिल्ली विधानसभा का चुनाव है। निश्चित रूप से उनकी राजनीति उस पर केंद्रित होगी और लगातार वह इसी तरह चर्चा में बने रहने के लिए कुछ अकल्पनीय करते रहेंगे। अन्ना अभियान से लेकर अभी तक उनकी राजनीति, तौर-तरीकों, चरित्र आदि पर नजर रखने वालों के लिए इसे पचा पाना कठिन हो रहा था कि जमानत पर आने के बाद केजरीवाल सामान्य गतिविधियों तक कैसे सीमित हैं। तो अब वह आगे क्या करेंगे इसके बारे में भी कोई टिप्पणी करना जोखिम भरा होगा। प्रश्न है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? क्या वाकई परिस्थितियां ऐसी हैं कि वो जिस दिशा में घटना को बनाए रखना चाहते हैं वही बने और निश्चित तौर पर वही बनी रहेगी? पहले प्रश्न का उत्तर यही है कि जमानत मिलने के बावजूद न तो वे अपनी कैबिनेट की बैठक बुला सकते थे, न सचिवालय ही जा सकते थे, और न मुख्यमंत्री के रूप में किसी फाइल पर हस्ताक्षर कर सकते थे यानी जमानत पर रिहा होना उनके लिए पूर्ण राहत का विषय नहीं था।
अगर चुनाव के बीच लोगों को पल्रोभन या लुभाने के लिए घोषणाएं करनी हैं, तो उसके लिए भी मुख्यमंत्री के रूप में भूमिका निभाना होगा। कैबिनेट की बैठक भी बुलाने की आवश्यकता पड़ सकती है। हाथ पूरी तरह बंधे होने पर वह कुछ नहीं कर सकते थे। लेकिन भले वे पद पर न रहें, मुख्यमंत्री कोई भी हो, असली नीति निर्धारक वही होंगे। फाइल पर उनके हस्ताक्षर नहीं होंगे किंतु निर्णय और शब्दावली उन्हीं की होगी।
इस्तीफा देने को इस तरह पेश कर रहे हैं, जिससे जनता की पूरी सहानुभूति उनके साथ हो और चुनाव तक उनकी यही कोशिश जारी रहेगी। जब उनकी गिरफ्तारी हुई तो आम आदमी पार्टी के नेताओं ने दिल्ली में एक लंबा आंदोलन चलाने की कोशिश की लेकिन ऐसा नहीं हो सका। जितनी संख्या में और आक्रामकता से लोगों के निकलने की संभावना थी वह दिखाई नहीं पड़ा। स्वयं उनकी पार्टी के अंदर भी धीरे-धीरे वातावरण बन रहा था कि शराब नीति मामले में भ्रष्टाचार तो हुआ है। उनके विधायक और पाषर्द पार्टी छोड़कर गए। पार्टी और आम कार्यकर्ताओं के अंदर का यह भाव दिल्ली में उनकी राजनीति के कमजोर होने का संकेत दे रहा था। मुख्यमंत्री पद पर बने रहकर शायद उन्हें लगा हो कि फिर से पहले की तरह जन समर्थन पाना संभव नहीं होगा। इस आधार पर निष्कर्ष यही आएगा कि जो त्यागपत्र उन्हें स्वाभाविक रूप से देना था उन्होंने उसे ऐसा दांव बना दिया है, जिसकी काट मुश्किल लगती है।
उनको अपने अनुरूप जेल से निकल कर राजनीति करने में कोई समस्या भी नहीं थी। अस्वीकार्य शराब नीति और भ्रष्टाचार के आरोपों में काफी हद तक दिखती सच्चाई के होते हुए दिल्ली की मुख्य पार्टी भाजपा ने अगर यह स्थिति पैदा नहीं की कि केजरीवाल और आप को रक्षात्मक या बचाव की मुद्रा अपनानी पड़े तो फिर उनके सामने अपनी राजनीति के लिए अपने अनुसार मोड़ देने के लिए खुला मैदान है। अरविंद केजरीवाल जेल में रहते हुए मुख्यमंत्री बने रहे और भाजपा इसे दिल्ली की जनता के बीच बड़ा मुद्दा नहीं बना सकी।
केजरीवाल और मनीष सिसोदिया, दोनों दिल्ली के मोहल्ले-मोहल्ले में जाएंगे और लोगों के बीच बोलेंगे कि प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और पूरी भाजपा हमारी सरकार और पार्टी को खत्म करने के लिए कानूनी एजेंसियों का दुरु पयोग कर रहे हैं जबकि हम निर्दोष हैं, तो उसी भाषा या उससे ज्यादा प्रभावी भाषा में जनता के बीच जाकर प्रत्युत्तर देने या खंडित करने का स्वाभाविक कार्यक्रम क्या दिल्ली की दूसरी राजनीतिक धारा ने बनाया है? केजरीवाल जैसी चाहेंगे वैसी राजनीति करेंगे, वो अपनी शैली में व्यापक वर्ग को यह समझाने में सफल भी हो सकते हैं कि वाकई वे निर्दोष हैं, भाजपा सत्ता की ताकत से उनको खत्म करना चाहती है। संभव है इससे फिर माहौल ऐसा बन जाए कि विधानसभा चुनाव में आप फिर बाजी मार ले।
गहराई से देखिए, उन्होंने कितनी कुटिलता से अपनी जमानत की व्याख्या की। कहा कि इस समय तो कोर्ट केवल जमानत ही उन्हें दे सकती थी क्योंकि मुकदमा तो पता नहीं 5 साल, 10 साल, 15 साल चलेगा। इसलिए मैं जनता के बीच जाऊंगा और जनता जब निर्वाचित कर मुझे निर्दोष साबित कर देगी तभी मैं पद संभालूंगा। हालांकि वह दोषी हैं, या नहीं हैं, इसका निर्णय तो न्यायालय को करना है। चुनाव में हार-जीत कानूनी रूप से दोषी या निर्दोष होने का प्रमाणपत्र नहीं होती किंतु यह केजरीवाल का ऐसा मोहक-मायावी राजनीतिक दांव है, जिसका उत्तर राजनीतिक तौर पर मिलता दिख नहीं रहा है। वैसे लोक सभा चुनाव में अंतरिम और अंतरालबद्ध जमानत पर बाहर आने पर भी उन्हें सहानुभूति का लाभ नहीं मिला। दिल्ली की सातों सीटें भाजपा की झोली में चली गई। लेकिन लोक सभा चुनाव और विधानसभा चुनाव के परिणाम दिल्ली में पिछले दो चुनावों से अलग-अलग आ रहे हैं।
हमारा दुर्भाग्य है कि राजनीति में कोई भी सामान्य सिद्धांतों, मूल्यों और विचारधाराओं तक को ताक पर रखकर लोगों को मोहित करने की शैली में सच को झूठ और झूठ को सच बनाने में सफल हो रहा है। उच्चतम न्यायालय ने जमानत के साथ सार्वजनिक तौर पर मुकदमे पर कोई बयान न देने की शर्त लगाई है किंतु वह बयान दे रहे हैं, और उन पर कोई रोक नहीं। इसी तरह उनके साथी भी बयान दे रहे हैं कि अभी तक ईडी सीबीआई को कुछ नहीं मिला, कितने रुपये की रिकवरी हुई। पहले की तरह ही सरकार और पार्टी, दोनों का नियंत्रण अरविंद केजरीवाल के हाथों है, केवल संवैधानिक रूप से वह घोषित मुख्यमंत्री नहीं हैं।
(लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
| Tweet |