श्रीलंका में सत्ता बदलाव के मायने

Last Updated 25 Sep 2024 12:49:36 PM IST

श्रीलंका में बहुदलीय प्रणाली से चुनाव में वामपंथी नेता अनुरा कुमारा दिसानायके का राष्ट्रपति चुना जाना न केवल एशिया महाद्वीप के लिए वरन वर्तमान विश्व के लिए भी महत्त्वपूर्ण संकेत है।


नेपाल के बाद श्रीलंका में वामपंथ की विजय से जहां उपनिवेशवाद विरोधी पुराने नारे को नया जीवन मिलता दिख रहा है कि ‘साम्राज्यवाद की कब्र बनेगी एशिया की धरती पर’, वहीं परिवर्तन का चक्र लैटिन अमेरिका से घूम कर पृथ्वी के हमारे गोलार्ध की तरफ आता भी दिख रहा है। कुछ दिन पहले न केवल वामपंथ मर गया था, बल्कि मार्क्‍सवाद भी फिर जीने वाला नहीं था। लेकिन नव-उदारवाद की नीति-कर्ज से विकास और समृद्धि हासिल करने-की दारु ण विफलता ने पहले लैटिन अमेरिकी देशों में, अब एशियाई देशों में वामपंथ की लहर जगा दी है.
इसका सबसे बड़ा संकेत यह है कि विचार मरता नहीं। इसीलिए मृत भगत सिंह ब्रिटिश शासन के लिए जिंदा भगत सिंह से ज्यादा खतरनाक था। यह बात प्राचीन काल से चली आती है।

इसीलिए चार्वाक की निंदा आदिकाव्य रामायण में करनी पड़ी थी! इसीलिए बुद्ध की मृत्यु के शताब्दियों बाद भारतीय सामंतवाद और उसके ब्राह्मणवाद को बुद्ध के प्रभाव उन्मूलन की जरूरत पड़ी। मार्क्‍सवाद अज तक की समस्त यथार्थवादी और क्रांतिकारी दर्शन परंपराओं का उत्कर्ष है; उस पर हमला भी उतना ही भयानक है, और उसका जीवट भी उतना ही दुर्दम्य है। ऐतिहासिक संयोग मानिए कि जिस समय दूसरे गोलार्ध पर विश्व शक्ति अमेरिका में दो पूंजीवादी दलों के बीच बहुमत पाने के लिए जबरदस्त होड़ लगी है, उसी समय अंग्रेजों के गुलाम रह चुके सिलोन (श्रीलंका) में दिहाड़ी मजदूर के बेटे ने चुनाव जीत कर लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था वाले देशों को दिशा दी है।

दिसानायके, जिनका लोकप्रिय नाम ‘एकेडी’ (अनुरा कुमारा दिसानायके) है, लोकप्रिय नेता होने के साथ ही निडर क्रांतिकारी रहे हैं, जिस ‘जनताविमुक्ति पेरामुना’ पार्टी के कार्यकर्ता हैं, उसने 1987 में दूसरी सशस्त्र क्रांति के प्रयत्न में असफलता के बाद ‘पीपुल्स पावर गठबंधन’ बनाया। 2022 में श्रीलंका के चरम आर्थिक-राजनीतिक संकट के दौरान जनता के विद्रोह का नेतृत्व करने वालों में प्रमुख थे।

2024 के चुनाव से सात महीने पहले फरवरी में वे निजी तौर पर भारत आए थे, यहां विदेश मंत्री और सुरक्षा सलाहकार से मुलाकातें की थीं। इससे पता चलता है कि श्रीलंका में परिवर्तन का जितना सीधा प्रभाव भारत पर पड़ता है, सम्राट अशोक के समय से-साढ़े तीन हजार साल के-वाणिज्यिक संबंध और वर्तमानकालिक तमिल समस्या के कारण, उतना ही प्रभाव भारत से संबंध का श्रीलंका पर भी पड़ता है। लेकिन एक मार्क्‍सवादी के चुनाव से भारत के ‘बौद्धिक’ क्षेत्र में आशंका फैल गई कि चीन समर्थक एकेडी भारत के लिए प्रतिकूल होंगे। ऐसी ही आशंका नेपाल में मार्क्‍सवादी प्रचंड के राष्ट्रपति बनने के बाद व्यापी थी।

तब ‘हिन्दू राष्ट्र’ के चोले से बाहर निकले नेपाल के साथ भारत के हिन्दू-ह्रदय-सम्राट शासकों ने संबंध खराब करने की काफी कोशिशें की थीं। नेपाल के तो चीन से भौगोलिक और ऐतिहासिक संबंध बहुत प्रगाढ़ हैं लेकिन श्रीलंका की स्थिति अलग है। नेपाल धरती से घिरा है तो श्रीलंका समुद्र से घिरा है। जितने सुदीर्घ नेपाल-भारत संबंध हैं, उतने ही श्रीलंका-भारत संबंध भी हैं। तीसरी शताब्दी ईसापूर्व में अशोक ने पुत्र-पुत्री महिंद-संघमित्रा को बौद्ध धर्म के साथ श्रीलंका भेजा था। नेपाल से भिन्न श्रीलंका की बहुसंख्यक आबादी बौद्ध हो गई। सदियों बाद जब दक्षिण भारत के मछुआरे और व्यापारी वहां जाकर बसे, उसके बहुत बाद बौद्ध-तमिल संघर्ष शुरू हुआ।

आज के श्रीलंका में बौद्ध सिंहलियों और तमिल हिन्दुओं के बीच संघर्ष वहां संकट का बड़ा कारण है। इसलिए दोनों देशों के संबंध का निर्वाह किसी की व्यक्तिगत इच्छा या विचारधारा की सीमाओं से बंधा नहीं है। भारत 1947 में स्वतंत्र हुआ तो श्रीलंका 1948 में। दोनों की नियति में समानता है। दोनों ने समाजवादी रु झान वाली स्वतंत्र नीतियों पर चलने का निश्चय किया। थोड़ा आगे-पीछे श्रीलंका के लोकप्रिय नेता भंडारनायके की और भारत की प्रभावशाली नेता इंदिरा गांधी की हत्या सीआईए की योजना के तहत हुई। इसके पहले सातवे दशक में दोनों देशों में हरित क्रांति हुई। उसके बाद कुछ आगे-पीछे दोनों ही नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों पर चले। इन नीतियों से उत्पन्न संकट ने भारत की विशाल आबादी और अर्थव्यवस्था को कुछ कम और श्रीलंका की छोटी आबादी और अर्थव्यवस्था को ज्यादा प्रभावित किया।

लॉकडाउन ने श्रीलंका में आर्थिक गतिविधियों को निष्क्रिय कर दिया। जैसे 1987 में आर्थिक संकट के साथ तमिल उग्रवाद और सिंहली राष्ट्रवाद के बीच सामाजिक तनाव बढ़ गया था, उसी तरह 2022-24 में सभी समस्याएं एक साथ घिर आई। नतीजा यह कि 2022 में जिस संकट ने राष्ट्रपति गोटाबाया को सत्ताच्युत होकर देश छोड़ने पर विवश किया था, उसी के चलते 2024 के चुनाव में जनता ने दक्षिणपंथी दलों को बहिष्कृत करके कम्युनिस्ट क्रांतिकारी को सत्ता सौंपी।

एकेडी ने अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रपति विक्रमसिंघे पर लगभग 12 लाख मतों से विजय प्राप्त की। दो करोड़ की अल्प-जनसंख्या वाले देश में बड़ा फासला है। प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें बधाई दी तो वह केवल सद्भावना नहीं थी। उन्होंने उत्तर में दोनों देशों में सहयोग मजबूत होने की प्रतिबद्धता जताई, यह भी केवल औपचारिकता नहीं है। सामाजिक तनाव, सांप्रदायिक टकराव, क्षेत्रीय विषमता, घोर निर्धनता से दोनों देश परेशान हैं। पड़ोसियों में अच्छे रिश्ते दोनों के विकास में मददगार हैं। एकेडी को सिंहली बहुसंख्यकों के वोट का बहुमत मिला ही है, बड़ी संख्या में तमिल अल्पसंख्यकों का वोट भी मिला है।

आशा बंधती है कि जिन तमिल उग्रवादियों के संगठन ‘लिट्टे’ को अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने ‘आतंकवादी’ संज्ञा प्रदान की थी, उनकी नई पीढ़ी पुराना वैमनस्य भूल कर आर्थिक निर्माण और सामाजिक सौहार्द की नीतियां क्रियान्वित करने में नई सरकार का साथ देगी। जिस आशा में जनता ने एक गैर-सशस्त्र विद्रोह के बाद जनतांत्रिक माध्यम से परिवर्तन की कोशिश की है, उसी संकल्प से सरकार और विपक्ष, पूर्वी सिंहल-क्षेत्र और दक्षिणी तमिल प्रधान क्षेत्र, जनता और सरकार मिल कर इस कोशिश में सफलता पाएंगे।
(लेख में व्यक्त विचार  निजी हैं)

अजय तिवारी


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