पर्यावरण दिवस : सम्मिलित प्रयास से दूर होंगी दुारियां

Last Updated 04 Jun 2024 01:43:35 PM IST

देश में चुनावी पारा चरम सीमा पर है तो प्रचंड गर्मी ने दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र, उत्तराखंड आदि राज्यों के कई शहरों ने तमाम रिकार्ड तोड़ दिए हैं।


पर्यावरण दिवस : सम्मिलित प्रयास से दूर होंगी दुारियां

ग्लेशियर पिघल रहे हैं, समुद्र तल बढ़ रहा है, तापमान ऊपर नीचे हो रहा है। सर्दी के मौसम में गर्मी और गर्मी के मौसम में सर्दी, इलाके सूख रहे हैं तो कहीं वनों में आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। चिंता का विषय है कि वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन के कारण पर्यावरण में भारी बदलाव हो रहा है। इन चरम मौसमी घटनाओं से भारत ही नहीं विश्व स्तर पर भी कई देशों में कहर बरपा है। वैश्विक स्तर पर माना गया है कि इसके लिए कहीं-न-कहीं मानवीय गतिविधियां भी जिम्मेदार हैं।

आप देखेंगे कि मई के महीने में दिल्ली और आसपास के राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राज्यों में 50 डिग्री सेल्सियस के आसपास तापमान पहुंच गया। इसके कारण हीट वेव की स्थिति बनी रही। बंगाल की खाड़ी में हाल ही में 135 किलोमीटर की रफ्तार से रेमल तूफान ने दस्तक दी। पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, नार्थ ईस्ट और बंगलादेश के तटवर्ती इलाकों में तबाही मचाई। अप्रैल में कई राज्यों के जंगल धधक उठे। आग से वनों का क्षरण, बहुमूल्य संपदा और कार्बन नष्ट होते हैं। अब मानसून असंतुलित हो गए हैं। भू-जल रसातल में पहुंच गया है, जिसके चलते भारत के बेंगलुरू, दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, हैदराबाद, जयपुर, इंदौर आदि महानगरों सहित कई शहरों में पानी का संकट गहराया हुआ है।

विशेषज्ञों ने चेताया है कि ऐसा ही रहा तो पानी के संकट से और भी कई शहर जद में आ सकते हैं। कई नदियां पानी की कमी से सूख रही हैं। इतिहास के पन्नों को पलटें तो बढ़ते वैश्विक तापमान की बढ़ोतरी और मौसम के बदलावों को लेकर संयुक्त राष्ट्र में 1992 में आयोजित ’रियो अर्थ समिट’ में चिंता की गई थी। फिर 1997 के क्योटो प्रोटोकाल के जरिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने और 2015 में आयोजित कॉप-15 पेरिस, फ्रास में पेरिस समझौते के जरिए जलवायु परिवर्तन और इसके नकारात्मक प्रभावों से निपटने को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा, सहयोग और समाधान की आवश्यकता पर जोर दिया गया।

इसके तहत वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम पर सीमित कर 1.5 डिग्री सेल्सियस रखने का प्रयास किया जाएगा। जीवन स्तर में बेहतरी की दौड़ में जीवाश्म ईधन के अनियंत्रित प्रयोग और औद्योगिकीकरण का जलवायु परिवर्तन पर विशेष प्रभाव पड़ा है। ग्रीन हाउस गैसों, कार्बन उत्सर्जन और उससे बढ़े ग्लोबल वार्मिग के कारण विश्व में चरम मौसमी घटनाएं हो रहीं है। समुद्र के बढ़ते जलस्तर से द्वीपीय विकासशील देशों और आबादी को खतरा है।

महत्त्वपूर्ण खाद्य श्रृंखला, पर्यटन और अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है। अस्थिर तटीय विकास, समुद्र से अत्यधिक मछली दोहन, गहरे समुद्र में खनन, अनियंत्रित प्रदूषण और प्लास्टिक कचने की समुद्र में मौजूदगी से समुद्र का पारिस्थतिकी तंत्र बिगड़ रहा है। इन सबसे बचने के लिए हमें गैस उत्सर्जन कम करना होगा। हाल ही में केरल के कोच्चि में संपन्न 46वीं अंटार्कटिका संधि परामर्शदात्री बैठक एटीसीएम और 26वीं पर्यावरण संरक्षण समिति सीईपी में ध्रुव पर बढ़ती गतिविधियों पर 60 देशों के प्रतिनिधि इस ठंडे महाद्वीप के भविष्य पर चिंता व्यक्त की गई। अंटार्कटिका में विश्व के प्रमुख देश अनुसंधान कर रहे हैं तो यहां कुछ वर्षो से पर्यटकों की बढ़ती संख्या में वृद्धि, चिंता और मुद्दा बन गया है।

1966 से एटीसीएम में पर्यटन को विनियमित करने पर चर्चा चल रही है, लेकिन यह एजेंडा आइटम, सत्र, कागजात या संकल्प तक ही सीमित रहे हैं। मुद्दा उठा है कि अब जरूरी है कि उत्तरदायित्वपूर्ण अनुसंधान सुनिश्चित करने के लिए व्यापक नियम बनाए जाएं। मई के महिने में रिलीज हुई ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट’ की ‘स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायर्नमेंट 2024 इन फिगर्स रिपोर्ट’ ने भारत के पर्यावरण संबंधी आंकड़े दिए हैं।

रिपोर्ट में भारत में वर्ष 2022 में जहां 365 दिन में 314 चरम मौसमी घटनाओं को देखा गया वहीं 2023 में यह 318 दिन रहा। 2023 में देश में रिकार्ड तोड़ तापमान बढ़ा और बारिश हुई। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस समस्या में सबसे बड़ा योगदान विकसित देशों का है। हालांकि अभी संयुक्त राष्ट्र की कॉप 26 (ग्लासगो), कॉप 27 (शर्म अल शेख) और कॉप 28 (दुबई) में अहम फैसले हुए हैं।

इनमें सबसे बड़ी सफलता हानि एवं क्षति कोष और ऊर्जा उत्पादन जीवाश्म ईधन से दूर जाने पर सहमति के अलावा ग्रीन हाउस गैसों और कार्बन शमन पर दृढ़ संकल्प निर्णय हुए।  वहीं, भारत की कुल 4,44,969 मेगावाट उत्पादित ऊर्जा में से 48 प्रतिशत थर्मल पावर, 33 प्रतिशत अक्षय उर्जा, 11 प्रतिशत हाइड्रो, 6 प्रतिशत गैस और 2 प्रतिशत न्यूक्लियर उर्जा से उत्पादित है। अक्षय ऊर्जा में बदलना है, जबकि कुल एनर्जी आवश्कताओं को 2030 तक 45 प्रतिशत कम करना और 2070 तक नेट जीरो करना है। भारत की जिम्मेदारी बनती है उसे बहुत सारी नीतियों पर काम करना पड़ेगा। यह भी ध्यान रखना होगा कि विकास की आवश्यकता की गति धीमी भी ना हो।

अनिरुद्ध गौड़


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