दस्तकार : हुनरमंदों की आजीविका को बचाना जरूरी

Last Updated 13 Aug 2023 01:35:29 PM IST

हमारे देश में दस्तकारियों और हस्तशिल्प की आज क्या स्थिति है, उसे दो नजरियों से देखा जा सकता है। पहले नजरिए में ध्यान महानगरों में खुले हुए इंपोरियम और एक्सपोर्ट यानी निर्यात के बाजार पर केंद्रित है। निश्चय ही यहां काफी चकाचौंध है।


दस्तकार : हुनरमंदों की आजीविका को बचाना जरूरी

हालांकि अलग-अलग हस्तशिल्प के निर्यात में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। किन्तु क्या बढ़ते निर्यात के आंकड़ों और इंपोरियम की चमक-दमक के आधार पर ही यह कहा जा सकता है कि भारत के दस्तकारों की हालत सुधर रही है और उनके रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं? नहीं, निर्यात के बाजार और महानगरों की खरीद का लाभ तो भारत जैसे बड़े देश के कुछ दस्तकारों तक ही पहुंच पाता है।

अधिकांश दस्तकारों की हालत तो इस बात पर निर्भर करती है कि अपने ही देश के गांवों और छोटे शहरों के साधारण लोग उनके साथ जुड़े हुए है या नहीं, उनकी बनाई वस्तुओं को खरीद रहे है या नहीं? इतनी ही महत्त्वपूर्ण या कई बार तो इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि क्या दस्तकारों द्वारा घरेलू बाजार के लिए उत्पादन करने की स्थिति अनुकूल है? क्या उन्हें  पर्याप्त कच्चा माल आसानी से और उचित कीमत पर मिल रहा है? क्या लकड़ी का काम करने वालों को लकड़ी मिल रही है या जुलाहों को सूत मिल रहा है? क्या कुम्हारों को मिट्टी तक नसीब हो रही है या नहीं? दस्तकारियों और दस्तकारों की हालत को देखने का यह दूसरा नजरिया उस बड़े हिस्से पर केंद्रित है, जो इम्पोरियम और निर्यात बाजार की चमक-दमक से दूर है। यहां हालत बहुत चिंताजनक है। लाखों दस्तकारों से उनका बाजार छिनता जा रहा है, लाखों दस्तकारों को कच्चा माल नहीं मिल रहा है। यहां तक कि बहुत से कुम्हारों को ठीक तरह की मिट्टी तक नहीं मिल रही है। कितनी ही दस्तकारियां दम तोड़ रही है, कितने ही बहुत अच्छे हुनर के दस्तकार निराश बैठे हैं और कसम खा रहे हैं कि अपने बच्चों से आगे यह काम नहीं करवाएंगे। हजारों बढ़िया और बारीक हुनर वाले दस्तकार आज रोजी-रोटी की खातिर रिक्शा या ठेला चलाने के लिए मजबूर हो गए हैं।

इतना ही नहीं, जिन दस्तकारों की बनाई वस्तुएं विदेशी बाजार, दिल्ली, मुंबई के इंपोरियम तक पहुंच रही हैं, उनके बारे में भी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि उनकी आथिर्क हालत ठीक है। कई दस्तकारियां बड़े-बड़े बाजारों में तो पहुंच रही हैं पर ग्राहकों द्वारा दी गई ऊंची कीमत का बहुत मोटा हिस्सा कई स्तरों पर फैले बिचौलिये ले जाते हैं। जिसके हुनर के बल पर सारा कारोबार चल रहा है, उसे बहुत कम हिस्सा मिलता है। इन दस्तकारों की कमाई का बड़ा हिस्सा हड़पने वाले बिचौलिये इस बात का भी ध्यान नहीं रखते कि यदि यह हुनर ही नहीं बचा तो इस पर आधारित पूरे कारोबार को कौन बचाएगा और कैसे बचाएगा। विदेशी आर्डर हमारे अपने हाथ में नहीं हैं। कई कारणों से उनमें उतार-चढ़ाव हो रहे हैं।

यह सच है कि विदेशी ऑर्डरों से हमारे यहां कई दस्तकारों को रोजगार मिला और उनके महत्त्व को हम स्वीकार करते हैं। किन्तु उन्हें हम अपने दस्तकारी क्षेत्र का आधार नहीं बना सकते हैं। आधार तो हमारा अपना घरेलू बाजार ही रहना चाहिए। इस आधार को दस्तकारों के लिए सुरक्षित बनाना चाहिए। अपने दस्तकारों के लिए घरेलू बाजार को हमें प्राथमिकता देनी चाहिए और उसके ऊपर से यदि विदेशी ऑर्डरों से अतिरिक्त आमदनी हो जाए तो यह और भी अच्छा है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दस्तकारियों के पूरे कारोबार से जो आमदनी होती है, उसका पर्याप्त हिस्सा उन दस्तकारों तक जरूर पहुंचना चाहिए जिनकी मेहनत है, और जिनका हुनर है। साथ ही, उन्हें  जरूरी कच्चा माल सही दाम पर प्राप्त होता रहे, इसके लिए विशेष प्रयास की जरूरत हैं।

हमारे खेतों, बगीचों और वनों मे ऐसे तरह-तरह के पौधे, झाड़ियां, पेड़ आदि मिलते हैं, जिनसे हम अनेक तरह के प्राकृतिक रंग प्राप्त कर सकते हैं। आज रासायनिक रंगों के उपयोग से बहुत प्रदूषण फैल रहा है। कुछ रासायनिक रंगों के उपयोग पर तो कई जगह प्रतिबंध भी लगाए गए हैं। ऐसे रासायनिक रंगों का उपयोग हो तो कुछ महत्त्वपूर्ण स्थानों पर वस्त्र की बिक्री नहीं हो सकेगी। इस स्थिति में प्राकृतिक रंगों का महत्त्व और भी बढ़ गया है। इनका उचित उपयोग किया जाए तो निर्यात बाजार में भी बहुत सहायता मिल सकती है। अत: अनेक दस्तकारियों को आगे बढ़ाने में प्राकृतिक रंग देने वाले पौधों के संरक्षण से बहुत सहायता मिल सकती है।

जहां तक औद्योगिक नीति का सवाल है, तो आज जो इतनी तरह-तरह की औद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन हो रहा है, दस्तकारियों को भी इनमें एक महत्त्वपूर्ण जगह मिलनी चाहिए। जिन कार्यों और स्थानों में दस्तकारियों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, जहां पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना वे बहुत से लोगों को रोजगार दे रही हैं, और साथ ही महत्त्वपूर्ण उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन कर रही हैं, वहां उनकी इस महत्त्वपूर्ण भूमिका को क्यों न स्वीकार किया जाए? उदाहरण के लिए हमारे देश के अनेक भागों में तरह-तरह के बांस और बेंत से कार्य करने वाले दस्तकार टोकरी, डलिया आदि अनेक तरह की दैनिक जीवन की वस्तुओं की आपूर्ति करते हैं। अब इस क्षेत्र में प्लास्टिक का प्रवेश भला क्यों हो? क्यों न पर्यावरण और रोजगार, दोनों की दृष्टि से उचित इस दस्तकारी को आगे बढ़ावा दिया जाए।

उनके कार्य की स्थायी  सुरक्षा के लिए उन्हें बांस और बेंत उगाने के लिए कुछ भूमि दी जाए जिससे उन्हें कच्चे माल की कमी का सामना न करना पड़े। इस तरह छोटे-छोटे उपाय अपना कर हम अनेक दस्तकारियों को बचा सकते हैं और वे पर्यावरण तथा रोजगार संरक्षण, दोनों उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुये उपभोक्ताओं की जरूरत को पूरा कर सकते हैं। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि दैनिक उपयोग की इन दस्तकारियों में जो सहज सुंदरता है, वह प्लास्टिक में नहीं हो सकती है। हम अपनी औद्योगिक नीति में पर्यावरण संरक्षण और रोजगार बचाने की बात तो करते हैं पर व्यावहारिक स्तर पर हम इन अति महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों की उपेक्षा करते हैं। यदि हम वास्तव में इन उद्देश्यों को महत्त्व देते हैं तो यह स्पष्ट है कि अनेक जरूरतों को दस्तकारियों के माध्यम से पूरा कर इन उद्देश्यों की प्राप्ति बहुत अच्छी तरह से की जा सकती है। विशेषकर सरकारी कार्यालयों के लिए जो ऑर्डर हैं-वर्दी, परदे, टेबल क्लॉथ, डस्ट बिन आदि कितनी ही विविध वस्तुओं के ऑर्डर, जिन्हें दस्तकारियों के स्तर पर बखूबी पूरा किया जा सकता है, को तो दस्तकारियों को ही दिया जाना चाहिए। यह बात तो पूरी तरह सरकार के हाथ में है तो भी इसकी उपेक्षा क्यों होती है? हां, दस्तकारियों की गुणवत्ता बनी रहे इसके लिए असरदार कदम उठाए जा सकते हैं।

दस्तकारियों की सहायता के लिए कोई भी नीति अपनाई जाए, कोई भी उपाय किए जाएं उनमें हमें इस बुनियादी बात को नहीं भूलना चाहिए कि हमें वास्तविक दस्तकार तक, वास्तविक मेहनतकश और हुनरमंद तक पहुंचना है। जो तरह-तरह के बिचौलिये सरकारी सहायता का लाभ बटोरने के लिए तैयार रहते हैं पर साथ ही गरीब जरूरतमंद दस्तकार का शोषण करने में भी आगे है, उनसे हमें बचना है, उनके दबदबे को दस्तकारी क्षेत्र में कम करना है और हो सके तो दूर करना है।

भारत डोगरा


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