मुद्दा : यादों में रह जाएंगी छावनियां
आने वाले दिनों में देश की छावनियों का स्वरूप सिरे से बदल जाने वाला है। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले स्थित योल छावनी से यह शुरुआत हो चुकी है। योल छावनी को अब सैन्य अड्डे और असैन्य इलाके में बांटा जाएगा।
मुद्दा : यादों में रह जाएंगी छावनियां |
असैन्य इलाके का स्थानीय नगर पालिका में विलय कर दिया जाएगा। रक्षा मंत्रालय द्वारा इस बाबत जारी अधिसूचना के बाद हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल ने छावनी बोर्ड योल के सिविल एरिया को धर्मशाला विकास खंड की पंचायतों में विलीन करने का आदेश दिया है।
देश की सभी छावनियों का स्वरूप इसी प्रकार बदला जाना है। छावनी क्षेत्र के लिए बजट रक्षा मंत्रालय के रक्षा संपदा विभाग से आता है। बजट का एक हिस्सा असैन्य इलाकों पर खर्च होने से सैन्य इलाके को लगता है कि उसे जरूरत के मुताबिक बजट नहीं मिल पाता। सैन्य और असैन्य इलाकों के बीच बुनियादी सुविधाओं को लेकर भी खींचतान जैसी स्थिति रहती है। इसलिए नागरिक इलाकों को छावनी क्षेत्र से अलग करने की मांग लंबे समय से की जा रही थी। 2019 में हिमाचल प्रदेश के छावनी क्षेत्र के लोगों ने सेना के दबाव से मुक्त करने की मांग करते हुए जोरदार आंदोलन भी चलाया था। उनका कहना था कि अपने मकानों में मरम्मत तक के लिए सैन्य अधिकारियों से मंजूरी लेनी होती है। पानी की आपूर्ति में जब-तब बाधित कर दी जाती है। गौरतलब है कि छावनियां औपनिवेशिक संरचनाएं हैं। योल कस्बे की स्थापना 1849 में हुई थी और यंग ऑफिसर्स लिविंग का संक्षिप्तीकरण है योल। पहले विश्व युद्ध के बाद यहां युद्धबंदियों को रखा जाता था। अलबत्ता, योल छावनी की विधिवत स्थापना 1942 में हुई थी। अब छावनी क्षेत्रों को स्थायी रूप से सैन्य और नागरिक क्षेत्रों में बांटे जाने के फैसले की शुरुआत योल छावनी से कर दी गई है।
किसी छावनी क्षेत्र से आप गुजर रहे हों तो यह नहीं बता सकते कि वह कौन से शहर की छावनी है। सभी में गजब की एकरूपता है। पूरे दिन पीटी, परेड, क्लब कल्चर, खिलाड़ियों के मैदानों में जुटान आदि हर कैंट में दिखलाई पड़ता है। देश के हर प्रांत-क्षेत्र के लोग छावनी में रहते हैं। तमाम छावनियों का भूगोल एक जैसा होता है। हरियाली से ढंका। सुरक्षा का आलम यह कि छोटे बच्चे भी आसपास के बाजार और स्कूलों के मैदान में दिन के किसी भी पहर चहलकदमी कर आते हैं। पेड़ों पर चढ़कर उछल-कूद मचाने, ‘चोर-सिपाही’ खेल खेलने, रास्ते में कहीं भी मिल जाने वाले पेड़ या झाड़ से आम या बेर तोड़ लेने जैसे नजारे यहां आम होते हैं। गुलाब की सोंधी सी खुशबू चहुंओर बिखरी रहती है। लोगों में सामाजिकता भी गजब की होती है। एक दूसरे की चिंता करने वाली।
छावनियां अंग्रेजों की देन हैं। देश में 62 छावनियां हैं। आजादी के समय 56 छावनियां थीं, और 1947 के बाद छह और छावनियां अधिसूचित की गई। इस क्रम में 1962 में अजमेर अंतिम 62वीं छावनी बनी। पहली छावनी बंगाल के बैरेकपुर 1765 में हुगली नदी के किनारे बसाई गई। इसे फ्रेंच के खिलाफ सतर्क रहने के मद्देनजर बसाया गया था। दरअसल, फ्रेंच ने हुगली नदी के दूसरी तरफ चंद्रनागोर (अब चंदननगर) को जीत कर वहां अपने सैनिकों को जमावड़ा कर लिया था। उसके जवाब में अंग्रेजों ने हुगली नदी के दूसरी तरफ छावनी आबाद की। बाद के समय में उन्होंने आगरा, रानीखेत, कसौली में अपने कब्जे में आए क्षेत्रों में छावनियां बसानी शुरू कर दीं। ब्रिटिशकाल में छावनियों का अपना अलग रुतबा था। ब्रिटिशराज समाप्त होने के बाद भी छावनियां बनी रहीं। यहां सैनिकों के फैमिली क्र्वाटर लाइन और बैरकें होती हैं। व्यवस्थित और उम्दा बाजार, स्कूल, स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ। वाडरे में बंटे छावनी क्षेत्र से निर्वाचित वार्ड सदस्य छावनी क्षेत्र संबंधी फैसले लेते हैं, लेकिन बोर्ड का प्रशासक सैनिक अधिकारी होता है।
हाल के समय में रास्तों और सड़कों पर चलने के अधिकार को लेकर मसला उभरा। आतंकवाद के बाद से सैन्य क्षेत्रों की कुछ सड़कों पर आम आवाजाही प्रतिबंधित करने से नागरिक आबादी को परेशानी हुई। हालांकि 2018 में सरकार ने छावनी क्षेत्रों की सड़कों को सार्वजनिक उपयोग के लिए खोल दिया था। सैन्य क्षेत्र में रहने वाले पूर्व सैनिक अफसर चाहते हैं कि सड़कों को आम लोगों के लिए न खोला जाए क्योंकि इससे सुरक्षा को खतरा पैदा हो जाएगा। पिछले वर्ष सकिंदराबाद छावनी में सेना ने एक सड़क पर आम आवाजाही रोकी गई थी। सड़क का इस्तेमाल करने वाले साढ़े तीन लाख से ज्यादा सिविलियंस को वैकल्पिक मार्ग का इस्तेमाल करना पड़ा और सड़कों पर भीड़भाड़ और अफरातफरी फैल गई। लोगों ने इस रोक के विरोध में कैंडल मार्च निकाला। इस मांग के साथ कि ब्लॉक की गई सड़क को जनता के लिए खोला जाए।
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