अर्थव्यवस्था : दुनिया खोज रही विकास की संतुलित राह

Last Updated 23 Jul 2023 01:52:45 PM IST

विश्व में बढ़ते आर्थिक तनावों के बीच अनेक विशेषज्ञ विकास की सही व संतुलित राह पर नये सिरे से सोच रहे हैं। केवल राष्ट्रीय आय व जीएनपी की वृद्धि पर फोकस करना उचित नहीं रहा क्योंकि प्राय: जीएनपी की तेज वृद्धि के दौर में ही पर्यावरण का विनाश असहनीय हद तक बढ़ गया है।


अर्थव्यवस्था : दुनिया खोज रही विकास की संतुलित राह

यदि कोई समुदाय एक वर्ष में अपने वन काट के बेच देता है तो उसकी आय में अधिक वृद्धि दर्ज होती है जबकि कोई समुदाय वनों को बचा कर रखता है तो उसकी आय में वृद्धि दर्ज नहीं होती है। किसी बस्ती में शराब व जुए का कारोबार दूर-दूर तक फैलता है तो उसकी आय में तेज वृद्धि दर्ज हो जाती है, जबकि इससे किसी की भी भलाई नहीं हो रही। विषमता व शोषण के बढ़ने के दौर में भी राष्ट्रीय आय में वृद्धि दर्ज हो सकती है।

अत: राष्ट्रीय आय में वृद्धि के मानदंड को छोड़कर हमें यह पूछना चाहिए कि दुनिया बेहतर बन रही है कि नहीं। और इस व्यापक सोच में यह सवाल बहुत जरूरी हो जाता है कि क्या सब लोगों की बुनियादी जरूरतें बेहतर ढंग से पूरी हो रही हैं या नहीं। सब लोगों की रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा की जरूरतों को पूरा करना बड़ी प्राथमिकता बनना चाहिए। बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के प्रयास केवल अल्पकालीन नहीं होने चाहिए अपितु टिकाऊ  भी होने चाहिए। यह तभी हो सकता है जब प्राकृतिक संसाधनों के आधार को, पर्यावरण की रक्षा को साथ-साथ उच्च महत्व मिले। भोजन और आश्रय से बड़ी जरूरत साफ हवा व पानी की है, यह जरूरत भी पर्यावरण की रक्षा से जुड़ी है।

पर्यावरण रक्षा का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि जलवायु बदलाव के संकट को नियंत्रित करने के जो भी प्रयास अभी संभव हैं, वे किए जाएं तथा साथ ही बचाव की तैयारी भी की जाए। बढ़ती आपदाओं से बचाव की बेहतर तैयारी को विभिन्न स्तरों पर समुचित महत्व देना जरूरी है। पर यह तभी संभव हो सकेगा जब विश्व व राष्ट्रीय स्तर पर संपत्ति व आय की अत्यधिक विषमताओं को कम किया जा सके और इस तरह उच्चतम प्राथमिकता वाले कायरे को बढ़ाने के लिए आर्थिक संसाधन प्राप्त किए जा सकें। अत: विश्व स्तर पर व अपने देश के स्तर पर आर्थिक विषमता को कम करना बहुत जरूरी है।
क्या राष्ट्रीय आय के स्थान पर कोई दूसरा ऐसा मापक तैयार हो सकता है, जो वास्तविक प्रगति को बेहतर ढंग से परिलक्षित करे? इस सवाल को सुलझाने के लिए फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति सरकोजी ने एक अन्तरराष्ट्रीय आयोग का ही गठन कर दिया, जिसके लिए अमत्र्य सेन व जोसफ स्टिगलिट्ज जैसे विश्व ख्याति प्राप्त अर्थशास्त्रियों की सेवाएं भी प्राप्त की गई। इस आयोग ने कुछ मूल्यवान सुझाव तो दिए पर इस विवाद का कोई ऐसा समान नहीं निकला जिसे व्यापक स्वीकृति प्राप्त हो।

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने मानवीय विकास सूचकांक तैयार करने का कार्य आरंभ किया और दावा किया गया कि ‘ह्यूमन डवलपमेंट इंडेक्स’ या ‘मानवीय विकास सूचकांक’ से किसी समाज की प्रगति को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। इसकी आरंभिक वर्षो में तो काफी प्रशंसा हुई। पर कुछ समय बाद इसकी विसंगतियां भी स्पष्ट होने लगीं। इस सूचकांक के आधार पर भी शीर्ष पर वही देश आने लगे जिनकी जीवन-शैली पर्यावरण की व्यापक तबाही पर आधारित थी, या जहां सामाजिक टूटन काफी बढ़ चुकी थी। जिन देशों में आत्म-हत्या दर काफी अधिक थी, या जहां परिवार बुरी तरह बिखर रहा था, या जो शीघ्र ही आर्थिक तबाही के कगार पर आ गए (जैसे आइसलैंड), ऐसे देशों को भी इस सूचकांक ने शिखर पर दिखाया था।
ब्रिटिश सोशल साईस रिसर्च काउंसिल (ब्रिटिशा समाज शास्त्र अनुसंधान परिषद) द्वारा किए गए एक सव्रेक्षण में ऐसे ही सवाल सामने आए हैं। इस सव्रेक्षण में पांच वर्षो के दौरान तीन बार 1500 सामान्य नागरिकों के सैम्पल से पूछा गया कि जीवन को बेहतर बनाने के लिए वे किन बातों को महत्व देते हैं और क्या उन्हें लगता है कि जीवन पहले से बेहतर हो रहा है या नहीं। ब्रिटेन के समाज (अन्य पश्चिमी विकसित देशों की तरह) को काफी भौतिकवादी माना जाता है पर 71 प्रतिशत लोगों ने जीवन की गुणवत्ता (क्वालिटी) के बढ़ने या जीवन बेहतर होने में जिन बातों को महत्व दिया उनका आय या दौलत के बढ़ने से कोई संबंध नहीं था। उपभोक्ता वस्तुओं से अधिक महत्व ‘अच्छे पारिवारिक जीवन’ और ‘संतोष की स्थिति’ को देने वाले लोगों की संख्या अधिक थी।

खुशहाली की स्थिति बनाए रखने में शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक स्वास्थ्य की समग्र सोच को महत्व दिया गया है। खुशहाली का बहुत महत्वपूर्ण संबंध हमारे पारिवारिक व अन्य नजदीकी सामाजिक संबंधों से है। यदि इस पर समुचित ध्यान न दिया गया तो बढ़ती आय के दौर में भी खुशहाली कम हो सकती है।

दुख-दर्द को दूर करने का अर्थ केवल परोपकारी कार्य नहीं है अपितु जो अन्याय और विषमता व्यापक स्तर पर दुख-दर्द का कारण बनते हैं, उन्हें दूर करना सबसे जरूरी है। गरीब व कमजोर वर्ग के दुख-दर्द अधिक हैं अत: उन पर अधिक ध्यान देना चाहिए। विश्व में समता और न्याय को आगे बढ़ाने में समाजवाद की सोच की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पर हाल के वर्षो में विविध कारणों से दुनिया भर में समाजवाद की सोच क्षतिग्रस्त हुई है। एक ओर समाजवाद से जुड़ी ताकतें कमजोर हुई हैं तथा दूसरी ओर समाजवाद की सोच से जुड़ी स्पष्टता में और उसे बदलते समय के साथ ढालने में कमी आई है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि दुनिया को समाजवाद और समाजवादी सोच की बहुत जरूरत है। समाजवाद की सोच में सबसे मूल बात यह है कि आर्थिक और सामाजिक समता व न्याय के लक्ष्यों को सबसे ऊपर रखा जाता है, सबसे अधिक प्राथमिकता दी जाती है। समता और न्याय के उद्देश्यों को अन्य विचाराराओं के लोग भी कुछ हद तक मान्यता दे सकते हैं और देते हैं पर समाजवाद की विशिष्ट पहचान आर्थिक और सामाजिक समता व न्याय को उच्चतम प्राथमिकता देने व नीतियों का आधार बनाने में है।

यह एक अलग सवाल है कि विश्व स्तर पर समाजवाद का दावा करने वाले कई संगठन इस मूल पहचान पर खरे नहीं उतर पाए हैं, पर समाजवाद की मूल पहचान इस सिद्धांत में ही है। अब आगे चुनौती यह है कि विभिन्न देशों व समाजों में स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार इस सिद्धांत के आधार पर किस तरह सही एजेंडा तैयार किया जाएगा जो सही तथ्यात्मक स्थिति पर आधारित हो। इसके लिए बहुत अध्ययनशीलता व गहरी निष्ठा की जरूरत है। निष्ठा व अध्ययनशीलता के अभाव में या तो सही कार्यक्रम बन नहीं पाता है या उसे ठीक से निभाया नहीं जाता है। ऐसे कार्यक्रम को निभाने के लिए जो गहरी प्रतिबद्धता चाहिए, कई कठिनाइयों को सहने का साहस चाहिए वह प्राय: उपलब नहीं होता है। तभी ऐसे कार्य कर लिए जाते हैं, जो सिद्धांतों के प्रतिकूल सिद्ध होते हैं।

इन सब कारणों से समाजवाद की वैचारिक स्पष्टता को बनाए रखने व उसके आधार पर विस्तृत स्थानीय कार्यक्रम तय करने की चुनौती पीछे छूटती गई है। पर आज भी बहुत देरी नहीं हुई है। आज भी सही प्राथमिकता को ऊपर रखते हुए प्रयास किए जाएं तो ये प्रयास समाज के लिए बहुत हितकारी सिद्ध होंगे।

भारत डोगरा


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