राज-समाज : सरकार चलाना बनाम समाज निर्माण

Last Updated 09 Jul 2023 01:24:27 PM IST

मेरे एक बुजुर्ग मित्र हैं, और सरकार की सेवाओं में लंबे समय तक रहे हैं। इतने ईमानदार हैं कि आज भी अपने इलाज के सिलसिले में एम्स में सामान्य लोगों की तरह लाइन में खड़े मिल सकते हैं। लेकिन लोगों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का कोई जवाब नहीं है।


राज-समाज : सरकार चलाना बनाम समाज निर्माण

वे अपने नौकरशाही के जीवन के कड़वे अनुभव यह बताते हैं कि सरकार चलाने वाली चाहे कोई पार्टी और नेतृत्व हो लेकिन उनके सरकार चलाने की विचारधारा में कोई फर्क नहीं दिखता है। वे सरकार चलाने वाली विचारधारा और समाज निर्माण करने के वैचारिक औजार में बुनियादी फर्क बताते हैं। वे क्रमवार अपने अनुभव बताते हैं।

1) कांग्रेस की सरकार में एक राज्य के मुख्यमंत्री ने उनसे कहा कि उन्हें कोई भी मंत्री अपने साथ नहीं रखना चाहते हैं। लिहाजा, उनके लिए कोई ऐसा काम ढूंढ़ना होगा जो कि किसी मंत्री के अधीन नहीं हो।

2) जब ग्रामीण विकास में थे तब केंद्र में कई पार्टयिों की मिली-जुली सरकार थी। उस समय एक स्कीम चल रही थी। फूड फॉर वर्क। बहुत सारे संसद सदस्य इस स्कीम का पैसा अपने क्षेत्र के लिए कई तरफ के प्रोजेक्ट बनाकर ले लेते थे। इससे इस स्कीम का उद्देश्य पूरा करने में बाधा हो रही थी। सरकार का नेतृत्व करने वाले भी किसी संसदीय क्षेत्र से ही आते हैं। लिहाजा, वे भी खुद एक प्रोजेक्ट बनाकर लगभग 25 करोड़ रुपये अपने क्षेत्र के लिए लेना चाहते थे। उन्होंने उनके निजी सचिव से कहा कि उनके प्रोजेक्ट के लिए फिलहाल 25 करोड़ राशि की स्वीकृति नहीं दी जा सकती। कम राशि स्वीकृत की गई है। बस, दूसरे दिन उनका ट्रांसफर कर दिया गया।

3) जब राष्ट्रवादी मोर्चे वाली सरकार आई तब वे स्वास्थ्य विभाग में भेज दिए गए थे। तब सरकार का नेतृत्व चाहता था कि स्वास्थ्य विभाग में उनके एक चहेते को एक्सटेंशन दे दिया जाए। लेकिन वे विभाग का प्रमुख होने के नाते उस एक्सटेंशन को उचित नहीं मानते थे। विभाग के मंत्री भी एक्सटेंशन के पक्ष में नहीं थे। मंत्री  सत्ताधारी राष्ट्रवादी मोर्चे में थे और उनकी पार्टी उस मोर्चे की घटक थी। उन्होंने नेतृत्व के सचिव से कहा कि एक्सटेंशन की फाइल मंत्री के पास गई है, और उनके लिए यह उचित नहीं होगा कि वे फाइल वापस भेजने के लिए बोलें। दूसरे दिन वहां से भी उनका ट्रांसफर हो गया।

इन वास्तविक घटनाओं में राजनीतिक पार्टयिों और  प्रधानमंत्रियों, मंत्रियों और नौकरशाहों के नाम का उल्लेख नहीं किया गया है। उससे बचने की वजह यह है कि इन घटनाओं को इस रूप में देखने की कोशिश की जा सकती है कि सरकार चलाने की एक विचारधारा होती है। यहां इस फर्क को समझने के लिए इन उदाहरणों को दिया गया है कि जब पार्टयिां सरकार चलाने के लिए पहुंचती हैं, तो वे सरकार की विचारधारा में कैसे ढल जाती हैं, और जब लोगों के बीच जाती हैं, तो कैसे समाज निर्माण के लिए अपनी विचारधारा का प्रचार करती हैं। सरकार चलाने की विचारधारा और समाज निर्माण की विचारधारा के बीच जो दूरी दिखती है, उसकी वजह से ही लोगबाग आम तौर पर कहते सुने जा सकते हैं कि सरकार चाहे किसी पार्टी की हो ,सब एक ही रंग में ढल जाते हैं। इसकी वजहों को ही यहां समझने की कोशिश की जा सकती है। एक बुनियादी बात की तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए। वह यह कि समाज निर्माण के लिए व्यक्ति की चेतना में सामूहिकता की संस्कृति का विकास और विस्तार जरूरी होता है। सामूहिकता का मतलब समाज निर्माण के लिए लोगों के बीच मिल-जुल कर एक तरह के विचार विकसित करना होता है। वह सामूहिकता की चेतना समाज एक ऐसा ढांचा विकसित करती है जो सरकार के ढांचे को अपने तरीके से संचालित करने की ऊर्जा और ताकत देता है।

सवाल पूछा जा सकता है कि राजनीतिक पार्टयिां जब चुनाव मैदान में होती हैं तो वोट के लिए एक सामूहिकता का ही निर्माण तो करती हैं? यह सही जवाब है। लेकिन इस जवाब में एक खास पहलू की तरफ ध्यान दिया जा सकता है। राजनीतिक पार्टयिां चुनाव मैदान में उतर कर अपने पक्ष में सामूहिकता का निर्माण करती हैं, और महज इसलिए करती हैं कि वे सरकार चलाने के लिए समर्थन चाहती हैं। लेकिन समाज निर्माण का काम पांच साल के अंतराल में चुनाव प्रचार के लिए निर्धारित ‘पांच दिनों’ का कार्यक्रम नहीं हो सकता है। समाज निर्माण लगातार चलने वाली प्रक्रिया होती है। दूसरी बात कि दो हफ्ते के चुनाव प्रचार में राजनीतिक पार्टयिां सामूहिकता की चेतना का निर्माण नहीं करती है । सामूहिकता का कोई ढांचा तैयार नहीं होता है। किसी एक विषय और मुद्दे को लेकर भावना पैदा करने की कोशिश होती है। या फिर समस्याओं से ग्रस्त और ऊबे हुए लोगों के पास राहत मिलने के आासन पर सामूहिक भरोसा करने की बाध्यता होती है। इस तरह की सामूहिकता में समूह की संस्कृति का विकास और विस्तार नहीं होता है, बल्कि समूह में दिखते हुए भी हर व्यक्ति अलग-अलग होता है। समूह और भीड़ में यही फर्क होता है। इसीलिए आम तौर पर पाया जाता है कि हर व्यक्ति अपने-अपने स्तर से अपनी समस्याओं से बाहर निकलने की कोशिश करता है जबकि वह समस्या आम होती है।

सरकार और समाज निर्माण की विचारधारा में फर्क को दूसरे नजरिए से भी देखा जा सकता है। राजनीतिक पार्टयिां क्या वास्तव में सांगठनिक विशेषताओं पर खड़ी हैं? सांगठनिक विशेषताओं में प्रमुख समाज निर्माण के लिए किसी विचारधारा के उद्देश्यों तक पहुंचने के लिए कार्यकर्ताओं के बीच सहमति और सहयोग की भावना और प्रतिबद्धता होती है। इसमें सांगठनिक नेतृत्व का ढांचा अपने आप बनता है। लेकिन हम यह पाते हैं कि नेतृत्व ही वास्तव में राजनीतिक पार्टी है। नेतृत्व को ही समर्थन मिलता है। उसकी वजह यह भी हो सकती है जो समाज की पुरानी और जड़ हो चुकी संस्थाएं मानी जाती हैं। पुरानी संस्थाओं में धर्म का विशेष प्रभाव है और भारतीय संदर्भ में जाति भी दूसरी प्रभावकारी संस्था है। राजनीतिक पार्टयिों के नेतृत्व सामाजिक समर्थन हासिल करने में कामयाब हो जाते हैं, तो उनका विभिन्न स्तरों पर व्यक्तिगत हित सर्वोपरि दिखता है। समाज गरीब हो रहा है और राजनीति अमीरों का खेल बन गया है। निन्यानवे प्रतिशत से ज्यादा लोग चुनाव लड़ने की स्थिति से बाहर धकेले जा चुके हैं। इसीलिए चुनाव में समर्थन हासिल करने के लिए जिस परिवार की इंजीनियरिंग का निशाना बैठ जाता है, वह सत्ता संचालन का हकदार हो जाता है। इसमें  राजनीतिक संस्कृति में किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं करने की शर्त शामिल होती है। राजनीतिक स्थितियों में परिवर्तन करने के लिए लोगों का समाज निर्माण के लिए संगठित होने की भावना और आंदोलन विकसित करना इसीलिए जरूरी माना जाता है। आंदोलन का मतलब संगठित होने के विचार  और उसके मुकाम तक पहुंचने के लिए प्रयास होता है।

अनिल चमड़िया


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