सामयिक : यह बहुलतावाद का अनादर है

Last Updated 08 Jul 2023 01:33:03 PM IST

विगत पचहत्तर साल के चुनावी जनादेश का आकलन करें तो वर्ष 1977 के पश्चात किसी दल या गठबंधन ने केंद्र में तीसरी बार सरकार नहीं बना पाया है।


सामयिक : यह बहुलतावाद का अनादर है

कुछ राज्यों में जरूर तीसरी बार या उससे अधिक बार एक दल की सरकार बनी है। परंतु लंबे समय तक सत्ता में रहने के लिए उस दल को एक करिश्माई नेता या कोई नीति विशेष की ज़रूरत पड़ी है। भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को एक लोकप्रिय नेता के रूप में प्रचारित किया और वह राम मंदिर, अनुच्छेद 370 एवं राष्ट्रवाद को राजनीतिक एजेंडा बनाकर 2014 और 2019 लोकसभा चुनावों को जीतने में सफल रही है। उसने 2024 में हैट्रिक बनाने के लिए अभी से ही महाजनसंपर्क अभियान शुरू कर दिया है। वहीं, विपक्षी दलों की नज़र में भाजपा मूलत: लोकतंत्र विरोधी है, विभाजनकारी राजनीति में लगी है और सत्ता में बने रहने के लिए सरकारी एजेंसियों का लगातार दुरु पयोग कर रही है। यही कारण है कि विपक्षी दल एकजुट होकर उसके खिलाफ लड़ने का प्रयास कर रहे हैं।

भाजपा हिंदुत्व की आक्रामक राजनीति के ज़रिए बहुसंख्यक समाज को सक्रिय कर बहुलतावादी लोकतंत्र को बहुसंख्यकवाद की तरफ़ खींचने का प्रयास कर रही है। वास्तव में यह लोकतंत्र विरोधी कृत्य है। बहुसंख्यक होने का मतलब यह क़तई नहीं है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया, परम्पराएं और मूल्यों को नज़रअंदाज़ करने की उसे इजाजत मिल गई है। संविधान में सभी धर्म को बराबरी का अधिकार है। सभी अल्पसंख्यक समुदायों को उनके धर्म, भाषा, लिपि और संस्कृति को संवैधानिक संरक्षण मिला हुआ है। यही कारण है कि समान नागरिक क़ानून को राज्य के नीति-निदेशक तत्व के अंतर्गत अनुच्छेद 44 में रखा गया है। इस विषय की जटिलता, अंतर्विरोध और संवेदनशीलता को स्वीकारते हुए राज्य को उपयुक्त समय पर आम सहमति बनाने का सुझाव दिया गया है। विवाह, तलाक़, उत्तराधिकार, बच्चे को गोद लेना और बच्चों का पालन अधिकार में समान अधिकार की बात मुख्यतौर पर जेंडर केंद्रित है। इन बिंदुओं पर हर धर्म की अपनी मान्यता व प्रथाएं हैं। मानवीय और नारीवादी दृष्टिकोण से उसमें परिवर्तन की ज़रूरत भी है। परंतु सिर्फ विधायी हस्तक्षेप से इसे दुरु स्त करना नामुमकिन है। हिंदू धर्म की मान्यता में विवाह को एक पवित्र बंधन है तो वही इस्लाम में निकाह को एक संविदा माना गया है। उसी प्रकार, बाक़ी धर्मों के की भी अपने रिवाज हैं, जो पारिवारिक-सामाजिक संबंधों को परिभाषित करते हैं।

22वें विधि आयोग ने समान नागरिक क़ानून पर आमजन और विभिन्न धार्मिंक और  सामाजिक हितधारकों से मत लेने की क़वायद शुरू की है। इस संदर्भं में खुद प्रधानमंत्री मोदी ने मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने भोपाल में अपने दल भाजपा द्वारा आयोजित‘‘मेरा बूथ सबसे मज़बूत’’ कार्यक्रम में दिए भाषण के माध्यम से इस मुद्दे को आक्रामक तरीक़े से पेश किया। एक देश-एक क़ानून पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि एक घर में दो क़ानून कैसे चल सकते हैं। इसके लिए उन्होंने विपक्षी दलों की राजनीति को तुष्टीकरण कहा वहीं भाजपा की राजनीति को संतुष्टीकरण बताया। जबकि इस मुद्दे पर उनकी ही सरकार द्वारा गठित 21वें विधि आयोग ने 2018 में 185 पृष्ठ की रिपोर्ट में कहा था कि समान नागरिक क़ानून को लागू करने के लिए यह समय माकूल नहीं है और यह वांछित भी नहीं है। रिपोर्ट में सभी धर्मों में महिलाओं की ग़ैर-बराबरी पर भी चिंता ज़ाहिर की गई थी। उसमें महिलाओं के लिए अधिकार, समानता, न्याय और स्वतंत्रता को सुदृढ़ बनाने के लिए धार्मिंक और सामाजिक संगठनों को ख़्ाुद आगे आने की नसीहत दी गई थी। इस तरह से आयोग ने उस वक्त समान नागरिक संहिता के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। इसके बाद भी यूसीसी लागू करने की मोदी सरकार की क़वायद राजनीति-प्रेरित लगती है।

राम मंदिर निर्माण, अनु.370 को हटाना और समान नागरिक संहिता को लागू करना भाजपा के घोषित तीन एजेंडे रहे हैं। भाजपा इन एजेंडों के ज़रिए देश-समाज में भेदभाव पैदा कर उसका राजनीतिक लाभ उठाती रही है। आक्रामक हिंदुत्व के ज़रिए हिंदू बहुसंख्यक बनाम मुस्लिम अल्पसंख्यक की उसकी विभाजनकारी राजनीति से राष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष छवि आहत हुई है। आखिर चुनावी वर्ष में भाजपा समान नागरिक क़ानून क्यों लाना चाहती है? पूर्ववर्त्ती विधि आयोग द्वारा वर्ष 2018 में मनाही के बावजूद उसको जन विमर्श में दोबारा लाने का क्या निहितार्थ है? भाजपा के अपने एजेंडों पर आक्रामक और सक्रिय हिंदुत्व अभियान से मुस्लिम समुदाय आहत है फिर भी  भाजपा इसे लागू करने पर क्यों अड़ी है? क्या उसका एकमात्र उद्देश्य बहुसंख्यकवाद को स्थापित करना है? क्या बेरोज़गारी, अर्थव्यवस्था, महंगाई जैसे मुद्दों से भाजपा सकते में आ गई है? क्या विपक्षी एकजुटता को भेदने का एकमात्र तरीक़ा धार्मिंक ध्रुवीकरण ही है? ऐसे में भारत विश्व के सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा कैसे कर सकता है।

संसदीय प्रणाली, संघात्मक और एकात्मक व्यवस्था का मिशण्रव स्वतंत्र न्यायपालिका के साथ-साथ धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और गणराज्य ही भारतीय राज्य का घोषित स्वरूप है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी सपनों के भारत पर वैचारिक विमर्शों का मुख्य पाठ भी यही था। यही कारण है कि आज़ादी के पश्चात उदारवादी और मार्क्‍सवादी वैचारिकी के साथ-साथ गांधीवादी दृष्टिकोण का प्रभाव भारतीय परिप्रेक्ष्य में दिखता है। वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी जैसे अनेक विचारधाराएं जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आकार ली थीं, उनकी भी समानांतर उपस्थिति भारतीय राजनीति में दिखती हैं। सामाजिक, धार्मिंक और सांस्कृतिक आधार पर गांधी-अंबेडकर के डिबेट का पाठ भी रोचक है। ब्रिटिश के शासकीय प्रयास जैसे भारतीय परिषद अधिनियम 1861 व 1891 से होते हुए भारत सरकार अधिनियम 1909, 1919 और 1935 अत्यंत महत्त्वपूर्ण दस्तावेज प्रस्तुत करता है। इस प्रकार, भारतीय राष्ट्र-निर्माण में धर्म, पहचान, संस्कृति, खान-पान, पहनावा और भाषाई विविधता की झलक दिखाई देती है। संविधान में निहित मूल्य और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बनी सहमति ही इस देश और राष्ट्र की विरासत है।
 

नवल किशोर


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