जलवायु परिवर्तन : गरम हुआ मन-मिजाज भी
जलवायु परिवर्तन वर्तमान समय की सबसे कड़वी सच्चाई है।, वैश्विक तापमान में वृद्धि की पहली आशंका के लगभग डेढ़ सौ वर्षों के बाद इस बात पर वैश्विक सहमति बनी है कि वैश्विक उष्मण और उससे उत्पन्न अनेक जटिल और व्यापक प्रक्रियाएं मानवजनित हैं।
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वैश्विक उष्मण की गति आक्रामक और खतरनाक है। जिस वजह से पिछले नौ साल अब तक के सबसे गर्म साल रहे हैं। अब तक पृथ्वी का तापमान बींसवी सदी के औसत तापमान से लगभग 1 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ चुका है और सदी के अंत तक ये बढ़ोतरी 2.8 डिग्री सें. तक होने की आशंका है। जलवायु में व्यापक फेरबदल से, बाढ़, सुखाड़, चक्रवातीय तूफ़ान, जंगली आग, सहित समूचा पृथ्वी तंत्र तेजी से बदल रहा है।
मौसमी चरम परिस्थितियां जैसे सूखा, बाढ़, चक्रवात, प्राकृतिक आपदा, भूमि कटाव, कृषि उत्पादन के दायरे और उत्पाद में कमी, तापमान में वृद्धि और हीट वेव्स का सीधा असर अब मानव व्यवहार पर भी दिखने लगा है। चूंकि वैश्विक उष्मण और जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर ग्लोबल साउथ के कम विकसित और विकासशील देशी में है, जिससे जलवायु चरम की परिस्थितियां, एक बड़े जनसंख्या समूह पर आर्थिक तनाव, जीवनयापन का संकट और भविष्य के प्रति व्यक्तिगत, पारिवारिक-सामाजिक असुरक्षा की भावना पैदा करती है, जिसकी परिणति मानव व्यवहार में आ रही उग्रता में हुई है। पिछले कुछ सालों में ‘‘जैसा खाओ अन्न वैसा हो मन’’ को माने तो गैर पारम्परिक खेती, प्रदूषित भोजन, संदूषित पानी, खराब हवा, बदलते मौसम और चरम उपभोक्तावादी प्रवृत्ति ने हमारी भावदशा, मनोदशा में चेतनात्मक बेहोशी ला दी है। मानव व्यवहार में आ रहे बदलाव को समग्रता में ही समझा जा सकता है। जहां एक तरफ तथाकथित मानव विकास के कारण जलवायु में खतरनाक स्तर का बदलाव आया है, वहीं खुद मनुष्य ही प्रकृति के बिगड़ते संतुलन का आर्थिक, सामाजिक, भौतिक और मानसिक रूप से शिकार हो रहा है। मनुष्य प्रकृति और जीवन के जटिल संतुलन के बिखराव का कारण भी है और उसका शिकार भी। हालांकि शुरु आती विकासक्रम में मानव ने अचानक लम्बी छलांग लगा पारिस्थितिकी तंत्र के शिखर पर अपने उग्र मूल जानवरी प्रवृत्ति के साथ आ गया, और ये सब इतनी जल्दी में हुआ कि इकोसिस्टम में मानव के लिए उन संतुलनों और नियंत्रणों को विकसित करने का मौका ही नहीं मिला, जिनसे इकोसिस्टम शीर्ष के अन्य जीवों (जैसे शेर, शार्क) को तबाही मचने से रोकती है। जलवायु परिवर्तन से बदल रही परिस्थितियों के प्रभाव में पृथ्वी की तरह धीरे-धीरे हमारी सहनशीलता खत्म हो रही है और उसका स्थान उग्र और आक्रामक पािक प्रवृत्ति ले रही है। अब हमारा सुख-दुख, क्रोध, हिंसा सब कुछ क्षणिक हो चुका है। जीवन के हर पहलू में असुरक्षा की भावना बलवती हो रही है जिसमें जीवनयापन से लेकर तमाम व्यक्तिगत और सामाजिक पहलू शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन से पीड़ित ‘वैश्विक दक्षिण’ के देशों की अधिकांश आबादी के सामने आर्थिक उपदान और जीवन की मूलभूत जरूरतों को लेकर असुरक्षा घर कर रही है, वह रोटी, पानी, घर, स्वास्थ्य की जद्दोजहद में लगी है, तो शहरी आबादी यातायात के दौरान वायू प्रदूषण का सामना करते हुए एक बॉक्सनुमा घर की जद्दोजहद में लगी हुई है।
वैश्विक उष्मण से चरम होती गर्मी का मानव व्यवहार के ऊपर प्रभाव को बढ़ती हत्या, संगठित हिंसा और क्षेत्रीय संघर्ष से समझा जा सकता है। अक्सर बढ़े तापमान उग्र और शत्रुतापूर्ण व्यवहार की संभावना बढ़ जाती है। लगातार बढ़े हुए तापमान में रहना शरीर को हमेशा आपातस्थिति से निबटने वाले स्थिति का आदी बना देता है और नतीजा व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर लोग हिंसात्मक व्यवहार करने लगते हैं। हाल के कुछ अध्ययन व्यक्तिगत स्तर पर हिंसक प्रवृत्ति में वृद्धि की ओर इंगित करते हैं, जिसमें एक बड़ी संख्या महिलाओं के ऊपर की गई हिंसा है। एक शोध के मुताबिक एक डिग्री सें तापमान बढ़ने से जहां एक ओर वैश्विक स्तर पर मानव हत्या में 6% प्रतिशत की वृद्धि पाई गयी वहीं दूसरी तरफ हाल के एक शोध के अनुसार साहचर्य में रह रही या रह चुकीं महिलाओं पर हिंसक घटनाओं में (भारत, नेपाल, पाकिस्तान में) 4.5 फीसदी की वृद्धि देखी गयी, जिसमें सदी के अंत व्यापक वृद्धि का अनुमान है। जलवायु परिवर्तन से मुख्य रूप से प्रभावित कम विकसित और विकासशील देशों की सामाजिक बनावट और आर्थिक परिदृश्य आधी आबादी को हिंसा के लिहाज से अधिक असुरक्षित बना देती है। ऐसी परिस्थिति में, मानव व्यवहार पर जलवायु और पर्यावरणीय परिवर्तन के प्रभाव को नए सिरे से समझने की जरूरत है।
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