विश्लेषण : कहां अटका सफाई अभियान
जब 2014 में नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आते ही स्वच्छता के प्रति जोर-शोर से एक अभियान छेड़ा था तो सभी को लगा कि जल्द ही इसका असर जमीन पर भी दिखेगा।
![]() विश्लेषण : कहां अटका सफाई अभियान |
इस अभियान के विज्ञापन पर बहुत मोटी रकम खर्च की गई। कुछ ही महीनों में मोदी सरकार की प्राथमिकताएं दिखनी भी शुरू हो गई। जितनी तीव्रता से इस विचार को सामने लाया गया उससे नई सरकार के योजनाकार भी भौचक्के रह गए। प्रधानमंत्री मोदी ने सफाई के काम को छोटा सा काम बताया था पर अब तक का अनुभव बताता है कि सफाई का काम उन बड़े-बड़े कामों से कम खर्चीला नहीं है, जिनके लिए सरकारें हमेशा पैसे की कमी का रोना रोती रही हैं। आज आठ साल बाद भी देश की राजधानी दिल्ली के ही पॉश इलाकों तक में पर्याप्त सफाई नहीं दिखती। जगह-जगह कूड़े के ढेर दिखाई देते हैं।
प्रश्न है कि क्या इसके लिए केवल सरकार जिम्मेदार है? क्या स्वच्छता के प्रति हम नागरिकों का कोई दायित्व नहीं है? सोचने वाली बात है कि अगर देश की राजधानी का यह हाल है तो देश के बाकी हिस्सों में क्या हाल होगा? देश के 50 बड़े शहरों में साफ-सफाई के लिए क्या कुछ करने कोशिश नहीं की गई? रोचक बात यह है कि 600 से ज्यादा जिला मुख्यालयों में जिला प्रशासन और स्थानीय प्रशासन अगर वाकई किसी मुद्दे पर आंखें चुराते हुए दिखते हैं, तो वह साफ-सफाई का मामला ही है। उधर, देश के 7 लाख गांवों को इस अभियान से जोड़ने के लिए हम न जाने कितने साल से लगे हैं यानी कोई कहे कि इतने छोटे से काम पर पहले किसी का ध्यान नहीं गया तो यह बात ठीक नहीं होगी।
महत्त्वपूर्ण बात यह होगी कि इस सार्वभौमिक समस्या के समाधान के लिए व्यावहारिक उपाय ढूंढने के काम पर जुटा जाए तो शायद सही दिशा में अच्छे परिणाम आएंगे। इसके लिए नागरिकों और सरकार की सहभागिता के बिना कुछ नहीं होगा। गांधी जयंती पर केंद्र या राज्य सरकारों के तमाम मंत्री जिस तरह खुद झाड़ू लेकर सड़कों पर सफाई करते दिखाई देते हैं, उससे लगता है कि इस समस्या को कर्त्तव्यबोध बता कर निपटाने की बात सोची गई थी। यानी हम मान रहे हैं कि नागरिक जब तक अपने आसपास का खुद ख्याल नहीं रखेंगे तब तक कुछ नहीं होगा। खुद ख्याल रखने की इस बात पर भी गौर करना जरूरी है। शोधपरक तथ्य तो उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन सार्वभौमिक अनुभव हैं कि देश के मोहल्लों या गलियों में इस बात पर झगड़े होते हैं, कि ‘मेरे घर के पास कूड़ा क्यों फेंका’? यानी समस्या यह है कि घर का कूड़ा- कचरा इकट्ठा करके कहां ‘फेंका’ जाए? स्वयंसेवी संस्था निर्मला कल्याण समिति के एक सव्रेक्षण का निष्कर्ष है कि उपनगरीय इलाकों में घर का कूड़ा फेंकने के लिए लोगों को आधा किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। जाहिर है कि देश के 300 कस्बों में लोगों की तलाश बसावट के बाहर कूड़ा फेंकने की है। खास तौर पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का अनुभव यह है कि हमारे बेशकीमती जल संसाधन मसलन, तालाब, कुंड और कुएं कूड़ा-कचरा फेंकने के खड्ड बन गए हैं। इन नये घूरों और खड्डों की भी अपनी सीमा थी और अब हर जगह ये घूरे और कूड़े से पट गए हैं।
आने वाले समय में नई चुनौती यह खड़ी होने वाली है कि शहरों और कस्बों से निकले कूड़े-कचरे के पहाड़ हम कहां-कहां बनाएं? उसके लिए जमीनें कहां ढूंढें? दिल्ली जैसे महानगर में भी कूड़ा इकट्ठा करने के स्थान भर चुके हैं, और यहां भी कूड़ा इकट्ठा करने के लिए नये स्थान खोजे जा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय पूर्वी दिल्ली में बने कूड़े के पहाड़ को लेकर दिल्ली सरकार की खिंचाई कर रहा है। गांव भले ही अपनी कमजोर माली हालत के कारण कूड़े-कचरे की मात्रा से परेशान न हों लेकिन जनसंख्या के बढ़ते दबाव के चलते वहां बसावट का घनत्व बढ़ गया है। गावों में तरल कचरा पहले कच्ची नालियों के जरिये भूमिगत जल में मिल जाता था। अब यह समस्या है कि गावों से निकली नालियों का पानी कहां जाए? इसके लिए भी गावों की सबसे बड़ी धरोहर पुराने तालाब या कुंड गंदी नालियों के कचरे से पट चले हैं। यह कहने की तो जरूरत है ही नहीं कि बड़े शहरों और कस्बों के गंदे नाले यमुना जैसी देश की प्रमुख नदियों में गिराए जा रहे हैं। चाहे विभिन्न प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हों और चाहे पर्यावरण पर काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाएं और चाहे कितनी भी चिंतित सरकारें हों, ये सब गंभीर मुद्रा में ‘चिंता’ करते हुए दिखते तो हैं, लेकिन सफाई जैसी ‘बहुत छोटी’ या बहुत बड़ी समस्या पर गंभीर कोई नहीं दिखता। अगर ऐसा होता तो ठोस कचरा प्रबंधन, औद्योगिक कचरे के प्रबंधन, नदियों और सरोवरों या कुंडों के प्रदूषण की स्वच्छता और स्वास्थ्य जैसे विषयों पर भी हमें बड़े अकादमिक आयोजन होते जरूर दिखाई देते।
विभिन्न अंतरराष्ट्रीय दिवसों और राष्ट्रीय दिवसों पर सरकारी पैसे से कुछ सेमीनार और शोध सम्मेलन होते जरूर हैं, लेकिन उनमें समस्याओं के विभिन्न पक्षों की गिनती से ज्यादा कुछ नहीं हो पाता। ऐसे आयोजनों में आमंत्रित करने के लिए विशेषज्ञों का चयन करते समय लालच यह रहता है कि संबंधित विशेषज्ञ संसाधनों का प्रबंध करने में भी थोड़ा बहुत सक्षम हों। और होता यह है कि ऐसे समर्थ विशेषज्ञ पहले से चलती हुई यानी चालू योजना या परियोजना के आगे सोच ही नहीं पाते जबकि जटिल समस्याओं के लिए हमें नवोन्मेषी मिजाज के लोगों की जरूरत पड़ती है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थानों, प्रबंधन प्रौद्योगिकी संस्थानों और चिंताशील स्वयंसेवी संस्थाओं के समन्वित प्रयासों से, अपने-अपने प्रभुत्व के आग्रह को छोड़ कर, एक दूसरे से मदद लेकर ही स्वच्छता जैसी बड़ी समस्या का समाधान खोजा जा सकता है पर हर समस्या को समस्या बनाकर रखने की अभ्यस्त नौकरशाही इस समस्या को भी अपनी लालफीताशाही की फाइलों में कैद रखने में ही अपनी कामयाबी समझती है। इसलिए कोई हल नहीं निकल पाता।
हिमाचल प्रदेश की मनोरम घाटी हों या सागर के रमणीक तट, तेज रफ्तार से दौड़ती रेलगाड़ियों की खिड़की के दोनों ओर की रेल विभाग की जमीनें, हर ओर कूड़े का विशाल साम्राज्य देख कर कलेजा मुंह को आता है। पश्चिमी देशों की नजर में भारत सबसे गंदे देशों में से एक है। ये हम सबके लिए शर्म की बात है। हम सबको सोचना होगा और इस दिशा में कुछ ठोस करना होगा।
| Tweet![]() |