दीपावली : प्रदूषण से मुक्ति बड़ी चुनौती

Last Updated 24 Oct 2022 01:33:42 PM IST

हमारे देश में मनाए जाने वाले तमाम त्योहारों में दीपावली का धार्मिंक, आध्यात्मिक और सामाजिक- तीनों नजरिए से अत्यधिक महत्त्व है।


दीपावली : प्रदूषण से मुक्ति बड़ी चुनौती

पौराणिक महत्व की बात करें तो चौदह वर्ष के वनवास और लंका विजय से लौटने पर अयोध्यावासियों ने अपनी खुशी का इजहार  घी के दिए जलाकर किया था। अयोध्या के लोगों द्वारा आयोजित सामूहिक दीपोत्सव असभ्यता व बर्बरता के तिरस्कार और सभ्यता एवं शिष्टता के समर्थन का प्रतीक था। वस्तुत: ये तहजीब के दीयों से प्रकाशमान कतारें थीं, जो अमावस्या के अज्ञानी और अहंकारी अंधकार को नेस्तनाबूद कर हमारी आस्थागत परंपरा में दीपावली का स्थायी भाव बन गई।
ज्ञान की रोशनी के बगैर सदाचार की दीपावली की कल्पना करना असंभव है। रोशनी सभ्यता, संस्कृति और संस्कार का पर्याय बनकर हमारे व्यक्तित्व में समा गई है। इसलिए वृहदारण्यक उपनिषद में ऋषियों ने आवाह्न किया-तमसो मा ज्योतिर्गमय। आओ अपने सतत पुरु षार्थ से अज्ञान के तमस को काटते हुए ज्ञान के प्रकाश की ओर चलें। सनातन संस्कृति का यह पौराणिक उद्घोष हमें आज भी आकृष्ट करता है, उपनिषदों का यह संदेश हमारी स्मृति में आज भी रचा-बसा है, और पूरे परिवेश में व्याप्त कदाचार और  बेअदबी के अंधेरे के बावजूद सुसभ्य और सुसंस्कृत जनमानस को दीपावली मनाने की प्रेरणा देता है। इस विश्वास के साथ कि ईष्र्या, द्वेष, डाह और नासमझी का अंधकार कितना भी गहरा हो, उसे काटने के लिए बुद्धिमता, विवेक और प्रज्ञा का एकदीप ही पर्याप्त है। इसलिए कहा भी गया है-‘अंधकार से लड़ने का जब संकल्प कोई कर लेता है, तो एक अकेला जुगनू भी सब अंधकार हर लेता है।’ दीपावली की पौराणिक पृष्ठभूमि में एक कथा यह भी प्रचलित है कि प्राग्ज्योतिषपुर (असम) के असुर सम्राट नरकासुर ने देवराज इंद्र को पराजित करने के बाद देवताओं और ऋषियों की सोलह हजार कन्याओं का अपहरण कर उन्हें अपने रनिवास में रख लिया। नरकासुर को किसी देवता या पुरु ष से अजेय होने का वरदान प्राप्त था। उसके आतंक से त्रस्त देवताओं और ऋषियों ने श्रीकृष्ण से याचना की-‘हे योगेर! आप पापियों के संहारक और धर्म के शात संस्थापक हैं, दुराचारी नरकासुर से हमें मुक्ति प्रदान करो।’

देवताओं की दयनीय दशा देखकर श्रीकृष्ण नरकासुर के अंत का उपाय सोचने लगे। देवताओं की दुर्दशा और श्रीकृष्ण के माथे पर चिंता की लकीर देखकर उनकी वीरांगना रानी सत्यभामा सामने आई। सत्यभामा को अनेक युद्धों में भाग लेने का अनुभव प्राप्त था। सत्यभामा स्वयं कृष्ण की सारथी बनकर रणक्षेत्र में उतरीं और दोनों ने अद्भुत रण कौशल का परिचय देते हुए नरकासुर का वध कर दिया। नरकासुर के बंदीगृह में बंदी सोलह हजार स्त्रियों को मुक्त करा लिया गया। सत्यभामा और श्रीकृष्ण के द्वारका लौटने पर पूरी नगरी को तोरणद्वारों से सजाया गया। घर-घर दीए जलाकर स्त्रियों की मुक्ति का विराट दीपोत्सव मनाया गया। यह कथा संदेश देती है कि-‘जब नाश मनुज पर छाता है, तब विवेक मर जाता है।’ यह पौराणिक वृत्तांत परिचायक है इस बात का कि दीपावली का दिन स्वयं से यह प्रश्न पूछने का अवसर भी है कि अबोध बालिकाएं और बेटियां पुरुष-वासना और कुदृष्टि से मुक्ति पाने के लिए कब तक द्वारकाधीश को पुकारती रहेंगी।
दीप जलाने मात्र से समाज में फैला बुराइयों का अंधेरा नहीं हट सकता। इस संदर्भ में गौतम बुद्ध ने जनमानस का मार्गदशर्न करते हुए कहा-‘अप्पो दीपो भव’। अंतर्मन के किसी भी कोने में अवगुणों का तनिक भी अंधकार न रह पाए, इसलिए अपने दीपक अपने आप बनो। आज हमारे सामने दीपावली के नये अर्थ खोजने और नये आयाम स्थापित करने की चुनौती है। आज बेहद जरूरी है उपयोगी ऊष्मा और उजाले को अप्रासंगिक और अनुपयोगी प्रकाश से दूर रखा जाए। आज बड़ी चुनौती है अंधियारे को प्रकाश के नजदीक लाना।
दीपावली ऐसा त्योहार है, जब गरीब से लेकर अमीर तक अपने घर-परिवार में कुछ न कुछ नया जोड़ने की कोशिश करता है, और इस तरह से पूंजी का प्रवाह बाजार और देश की अर्थव्यवस्था को नई उम्मीदें सौंपता है। चूंकि इससे साफ-सफाई, स्वच्छता की सुखद पारंपरिक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं, इसलिए यह त्योहार गरीबों की जेब में कुछ न कुछ धनराशि पहुंचा ही देता है, ताकि वे अपने हिस्से की कुछ खुशियां जी सकें। हमें अपने त्योहारों के मूल संदेश को याद करने की जरूरत है। प्रदूषित माहौल में खुशहाल जिंदगी भला कैसे संभव हो सकती है। हमारा ध्येय होना चाहिए- प्रदूषण मुक्त दीपावली

डॉ. विनोद यादव


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment