बदलते दर्शकों की चुनौती
‘शमशेरा’ फिल्म डूब गई। उसके साथ उसमें लगे एक सौ पचास करोड़ रुपये भी डूब गए। रणबीर कपूर का कॅरियर जो पहले ही हाशिये पर आ चुका था अब और किनारे हो गया।
बदलते दर्शकों की चुनौती |
कारण क्या? एक कारण पिक्चर है तो दूसरा कारण दर्शकों का बदलता मिजाज है। नये दर्शक भी ‘पॉलिटीकल’ दर्शक हैं, और यह सही हो या गलत आज वे ही निर्णायक हैं।
इस फिल्म की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह जटिल जाति प्रथा से बेहद कच्चे तरीके से डील करती है। उच्च वर्ण को खलनायक की तरह दिखाती है। इस बात का नोटिस फिल्म रिव्यूअर्स ने खास नहीं लिया, लेकिन सोशल मीडिया में जमकर लिया गया और शायद इसी कारण सोशल मीडिया में बहुत से लोगों ने ‘बॉयकाट शमशेरा’ का आह्वान किया। क्या इस आह्वान का असर हुआ? हमारा मानना है कि हुआ।
मुख्य मीडिया में आप लाख विज्ञापन दें, प्रचार करें, प्रोमो करें, लेकिन अगर सोशल मीडिया आपके पक्ष में नहीं है, तो आप की खैर नहीं। यह नया तत्व है, जो इन दिनों निर्णायक नजर आता है। सोशल मीडिया अब तक सोशल मीडिया की तरह ही था जिसमें बहुत से लोग अपनी पसंद-नापसंद बताया करते थे, ओपिनियन दिया करते थे, लेकिन अब वह ‘नकारात्मक’ व ‘सकारात्मक’ अभियानों का भी मंच बन चला है, जिनका असर भी होता नजर आता है। ऐसा नहीं कि पिक्चरों के भाग्य का निर्धारणकर्ता सिर्फ सोशल मीडिया ही हो। कई बार रिव्यूज भी फिल्मों को हिट करने या पिट करने का काम करते हैं। कई बार और कारण होते हैं। जैसे कि पिछले दिनों ‘पृथ्वीराज’ फिल्म भी फ्लॉप हुई, लेकिन इसके खिलाफ सोशल मीडिया पर ऐसा कोई तूफान नहीं मचा दिखा जैसा कि शमशेरा को लेकर दिखा।
पृथ्वीराज के फ्लॉप होने के कारण एक नहीं, अनेक रहे। उनमें से बड़ा कारण उसके ‘नकारात्मक रिव्यूज’ रहे, लेकिन शमशेरा के डूबने का एक बड़ा कारण उसका ‘राजनीतिक रूप से सही’ न होना रहा। बहुत से सोशल मीडिया एक्टिविस्ट ने श्मशेरा को उच्चवर्णी हिंदू भावनाओं को आहत करने वाली कहानी की तरह पढ़ा और उसके बॉयकाट को ‘हैशटेग’ किया। और देखते-देखते फिल्म फ्लॉप हो गई। फिल्म समीक्षा में ‘धर्म और जाति’ पहली बार घुसे और उन्होंने अपना परिणाम दे दिया। एक मानी में यह खतरनाक बात है क्योंकि यदि कला में ‘धर्म या जाति’ के अहसास निर्णायक होंगे तो फिर कला कला न रह जाएगी। कला भी ‘कम्युनल’ हो जाएगी।
शमशेरा के बरक्स पृथ्वीराज तो एक मानी में ‘राजनीतिक रूप से सही’ थी और इसमें देशभक्ति की भावना कूट-कूट के भरी थी। फिर भी वह न चली। इसका कारण ‘बैड रिव्यूज’ के अलावा, फिल्म में देशभक्ति की ‘अति’ हो सकता है, या हो सकता है कि दर्शक देशभक्ति में भी कुछ नया चाहते हों वरना इस फिल्म को दर्शकों की कमी नहीं होनी चाहिए थी। हो सकता है कि इसका एक कारण ‘कलात्मकता का अभाव’ हो या अक्षय कुमार का ‘अतिरिक्त एक्सपोजर’ हो जिसने फिल्म को न चलने दिया हो। यों भी अक्षय कुमार इन दिनों विज्ञापनों में इतना अधिक आते हैं कि कई बार लगता है कि हम फिल्म कम विज्ञापन अधिक देख रहे हैं।
बहरहाल, उक्त दोनों पिक्चरों के न चलने के दो अलग कारण हैं। एक को फ्लॉप करने में सोशल मीडिया का अभियान रहा है जबकि दूसरी में कलात्मकता के अभाव और देशभक्ति की अति का रोल रहा। श्मशेरा का डूबना बताता है कि सोशल मीडिया तो बदला ही है, ‘दर्शक जनता’ भी बदल गई है। अब वहां भी धर्मिक अहसास प्रमुख होने लगे हैं जो कि बेहद चिंता की बात है। अब तक हम मानते आए हैं और यह सच भी है कि अपने जाति-धर्म में रहने के बावजूद, आम दर्शक नाटक या फिल्म देखते वक्त अपने विशेष जाति धर्म को कुछ पल के लिए भूल जाते हैं।
यह दर्शक की ‘रस दशा’ कहलाती है, लेकिन अब लगता है कि वे कुछ पल भी अब नसीब नहीं हो रहे और यही कला के आगे सबसे बड़ी चुनौती है। बेहतर हो कि फिल्म आलोचक आलोचना करते वक्त इस पहलू पर अब सोचें कि क्या कला स्वभाव से सेक्युलर होती है, या हो सकती है और कि क्या कला खास स्थितियों में कम्युनल भी हो सकती है? और कला कम्युनल हो सकती है, तो उसे सेक्युलर बनाने या उस पर सेक्युलर दबाव बनाने के क्या तरीके हो सकते हैं? अथवा क्या हमारी आलोचना के औजार पुराने पड़ गए हैं, जो इन नई चुनौतियों से निपटने में असमर्थ हैं? तब क्या किया जाए?
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