संन्यासियों-फकीरों ने भी लड़ी थी आजादी की लड़ाई
सन 1857 की क्रांति ने पहली बार जाति, धर्म और वर्ग के बंधन से ऊपर उठकर लोगों में भारतीय होने का भाव भरा था।
संन्यासियों-फकीरों ने भी लड़ी थी आजादी की लड़ाई |
एक राष्ट्रीय भाव जो शताब्दियों से भारतीयों के हृदय में बसा तो रहा परंतु बार-बार विदेशी आक्रमणों से घायल हो मूच्र्छना की स्थिति में आ चुका था। उस स्थिति को दूर भगा सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम ने प्राणवंत बनाया। लोगों में भारतीयता की भावना का प्राण संचार हुआ। एकजुट होकर स्त्री-पुरु ष, बाल, वृद्ध इस क्रांति को सफल बनाने में जुट गए। इस क्रांति को विदेशी चश्मे से देखने वाले कुछ इतिहासकार इसकी विफलता के कारण इसे क्रांति या स्वाधीनता संग्राम ना मानते हुए गदर, विद्रोह, विप्लव, सिपाही युद्ध, आदि संबोधनों से उल्लेख करते हैं, परंतु संभवत ये स्थूल दृष्टि वाले इतिहासकार यह भूल जाते हैं कि सभी क्रांतियां सफल होने के लिए नहीं होतीं। कुछ लड़ाइयां यह प्रमाणित करने के लिए होती हैं कि हम सोते हुए सैनिक नहीं हैं, बल्कि प्रतिरोध वाले सिपाही हैं।
सन 1857 की क्रांति का महा उद्घोष भारत के स्वाधीन मन का पहला दीप था, जिसके आलोक में आंदोलनों की रूपरेखा तैयार होने लगी थी और लोगों में अपने देश, समाज के प्रति वृहत्तर चेतना जागृत होने लगी थी। घर, गांव, मोहल्ले, चौपालों और अलाव के आसपास बैठे अशिक्षित, शिक्षित नर-नारी, युवा, वृद्ध, बालकों, तक को यह बात महसूस होने लगी थी कि गुलामी और अधिक दिनों तक नहीं सही जा सकती। अंग्रेजों के दमन चक्र से मुक्त होकर ही स्वाधीनता की सांस ली जा सकती है और परतंत्रता की बेड़ियों को काटकर ही भारत का भाग्य बदला जा सकता है। 1857 से लेकर 1947 तक का कालखंड भारत के लिए राजनीतिक घटनाओं और आंदोलनों के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि भारतीय स्त्री, पुरुषों के त्याग और प्राणोत्सर्ग के द्वारा अमर हो जाने के कारण भी महत्त्वपूर्ण है। एक स्वाभाविक देश प्रेम की गंगा हिलोरें ले रही थी।
स्वराज्य की भावना का स्थिरीकरण और उस दिशा में आगे के प्रयास की भूमिका इसी समय तय हो चुकी थी, जिसमें जातीय और सांप्रदायिक भेदभाव भुलाकर सभी एकजुट होने की रणनीति बना रहे थे। अंग्रेज अपनी कूटनीति से लगातार छोटे-छोटे राज्यों का विलय अपने शासन तंत्र में करते जा रहे थे। नवाब और कुछ हिंदू राजा उनके क्रीतदास बने कठपुतली की तरह नाच रहे थे। अपने कड़े कानून को आधार बनाकर अंग्रेज पूरे हिंदुस्तान पर अधिकार जमाने के अपने उद्देश्य में सफल होते जा रहे थे। भारत मां की बेड़ियों को काट फेंकने का उत्साह केवल युवाओं और सांसारिक नर नारियों में ही नहीं था बल्कि संन्यासियों और फकीरों ने भी जगह-जगह अपनी सशस्त्र छापेमारी के द्वारा अंग्रेजों को मुश्किल में डाल दिया था। माता तपस्विनी एक ऐसी ही संन्यासिनी थीं, जो अपने भक्तों को उपदेश देने के साथ-साथ भारत मां को आजाद कराने की प्रेरणा भी देती थीं। उन्होंने संन्यासियों की एक ऐसी टोली तैयार की थी जो जगह-जगह घूमकर सैनिकों को, क्रांतिकारियों को, लाल कमल देती और उनको भारत को आजाद कराने का संकल्प भी दिलाती थीं। श्रद्धावश स्थानीय लोगों द्वारा दिए गए दान के धन से हथियार खरीदने का भी काम चुपचाप हो रहा था। आंदोलन में अनेक संन्यासी थे जिनके योगदान को भारत कभी नहीं भुला सकता है।
स्वाधीनता आंदोलन में अपने वीरता के कारण सुशीला जी भारतीय क्रांतिकारियों की दीदी बनीं तो आजीवन उनके नाम के आगे दीदी संबोधन जुड़ गया। दिल्ली असेंबली बम कांड के समय भगत सिंह और बटुकेर दत्त को जेल से छुड़ाने की योजना बनी तो मिशन पर जाने वाले अपने साथियों को सुशीला दीदी ने अपने खून से टीका लगाया था। दुबली-पतली सुशीला दीदी को देख कर कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि इस सौम्य चेहरे के पीछे क्रांति की इतनी बड़ी ज्वाला धधक रही है। दुर्गा भाभी के पति भगवती चरण वोहरा पंजाब के अग्रणी क्रांतिकारियों में शामिल थे। भगत सिंह, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद के सुख -दुख की चिंता करने वाली दुर्गा देवी दुर्गा भाभी के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुई। ऐसे ही तमाम क्रांतिकारी स्त्री-पुरु षों के नामों से जगमगा रहा है आजादी के इस अमृत महोत्सव का नेपथ्य गान। राष्ट्र कृतज्ञ है अपने वीरों को याद कर। झर रहे हैं श्रद्धा के फूल हर भारतीय मन से। हमारे हाथ जुड़े हैं प्रणाम की मुद्रा में।
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