पितृ पक्ष : रवायत जो खींच रही विश्व को

Last Updated 06 Oct 2021 12:58:08 AM IST

यूं तो दुनिया भर में अपने मृत स्वजनों को याद करने का चलन है, जिसे हर संस्कृति और समाज विशेष अपने हिसाब से करता आया है। वही बात तारीखों के हवाले से की जाए तो यह मानवीय सभ्यता की सबसे पुरानी रवायतों में से एक है।


पितृ पक्ष : रवायत जो खींच रही विश्व को

इसे आप सुदूर पूर्व में जावा सुमात्रा, जापान से लेकर अरब और अमेजन की घाटियों तक महसूस कर सकते हैं किंतु पितरों के लिए अलग से दिन और पूरे विधान की बात हो तो निश्चित रूप से केवल भारत में ही ऐसा है।

यहां इसके लिए तीर्थ हैं, कर्मकांड और लिखित विधान हैं, वहीं इन क्रियाओं के लिए वर्ष में निर्धारित माह विशेष भी है। यह हर वर्ष बारिश के महीने भादों के उपरांत आता है। आिन कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक के पंद्रह दिन पितरों के अनुष्ठान के नाम होती है।

ये तिथियां अपने पूर्वज और मृत परिजनों के स्मरण करने और उनकी स्मृतियों में तर्पण श्राद्ध करने की हैं। जहां पाश्चात्य मान्यताओं में मृत्यु जीवन का अंत है, वहीं भारतीय जीवन दशर्न में यह केवल रूपांतरण है। सनातनी मान्यताओं में आत्मा अविनाशी है, वहीं पुनर्जन्म अवश्यभावी है। यहां कर्मफल सदैव जीवन को प्रभावित करते हैं। इसलिए नैतिक मूल्यों वाले जीवन के साथ ही कर्मविधान का भी श्रेष्ठ विचार है।

यही कुछ आज शेष विश्व को भी प्रभावित कर रहा है। इस भारतीय जीवन दशर्न से प्रभावित होकर अनगिनत लोग भारत के पवित्र तीथरे की ओर खिंचे चले आ रहे हैं। बात अगर मृत्यु उपरांत होने वाले पितृ तर्पण और अस्थि कलश विसर्जन की हो तो इसके लिए कुछ तीर्थ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनमें बद्रीनाथ और गया प्रधान हैं। वहीं उज्जैन, नासिक और रामेरम में भी यह संपादित होता है। बात अगर हरिद्वार और काशी की हो तो ये नगर अस्थि कलश विसर्जन के साथ ही पितृ दोष मोचन के लिए प्रसिद्ध हैं।

ऐसी ही कुछ मान्यता नेपाल में अवस्थित कागवेणी की भी है। यह तीर्थ नेपाल-तिब्बत सीमा पर अवस्थित प्रसिद्ध मुक्तिनाथ मंदिर के निकट नारायणी नदी के उद्गम स्थान पर अवस्थित है। यहां पितृ पक्ष के महीने में लाखों लोग आते हैं। इस दुर्गम दुरूह स्थान पर आने वालों में नेपाल के साथ ही भारत, भूटान और म्यांमार के श्रद्धालु भी होते हैं। वहीं हरिद्वार और काशी में तो देशी-विदेशी लोगों का तांता लगा रहता है। हरिद्वार के हर की पैड़ी और कुशावर्त घाट पे हजारों लोग प्रतिदिन आते हैं।

क्या आम और क्या खास दुनिया के हर हिस्से से लोग खिंचे चले आते हैं। हॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता सिल्वेस्ट स्टेलोन के पुत्र की असमय मृत्यु के बाद उनका परिवार यहां 2015 में अनुष्ठान के लिए आया था। 2018 में तत्कालीन जर्मन चांसलर फ्रैंक वॉल्टर स्टीन्मीपर तो 2019 में प्रसिद्ध हॉलीवुड अभिनेता विल स्मिथ भी मोक्ष नगरी आ चुके हैं। काशी में भी कुछ ऐसा ही है। गंगा घाट के दशर्न, जलती चिताओं के बीच जीवन चलता है।

हर हर महादेव के उदघोष के बीच पिशाच मोचन कुंड तक जाने वालों का रेला कभी कम नहीं होता। ईरवादी, एकेरवादी और अनीरवादी भी अपने पितरों की मुक्ति के लिए आते रहते हैं। गोरी चमड़ी वाले यूरोपियन-अमेरिकन से लेकर गहरे रंग वाले दक्षिण भारतीय तक सभी आते हैं। कोरोना फैलने से पूर्व एक तमिल नेत्री अपने पति के साथ दिवंगत पिता और ससुर के तर्पण अनुष्ठान हेतु आई थी। वे तमिलनाडु के अत्यंत प्रभावशाली राजनीतिक परिवार से हैं, जो सार्वजनिक तौर पर अपने अनीरवादी विश्वासों के लिए जाना जाता है।

बात अगर मुक्ति के इन प्रयासों की हो तो काशी में ऐसी संस्थाएं भी हैं, जो आधी शताब्दी से अजन्मे बच्चों के लिए सामूहिक श्राद्ध कर्म का प्रति वर्ष आयोजन करती हैं। वहीं काशी के इन विधानों से गहरे लगाव के चलते किन्नरों का एक बड़ा समूह प्रति वर्ष पितृ पक्ष में यहां आता है जबकि सुदूर दक्षिण भारत से सैकड़ों लोगों की अस्थियां संस्थाओं और पुरोहित संघों द्वारा विसर्जन हेतु पार्सल द्वारा आती हैं। इसी प्रकार नासिक में तर्पण तो त्रयम्बकेर में पितृ दोष बलि दी जाती है।

वहीं उज्जैन में क्षिप्रा तट और सिद्ध वट वृक्ष के नीचे भी मृत्यु उपरांत के संस्कार संपन्न किए जाते हैं।  यहां का एक वाक्या बड़ा ही चर्चित हुआ था। दिग्गज कांग्रेस नेता और गोआ-महाराष्ट्र के राज्यपाल रहे मोहम्मद फजल ने यहां कुंभ में क्षिप्रा स्नान के बाद अपने पितरों का तर्पण संस्कार किया था। इसको लेकर पत्रकारों ने सवाल किया तो उनके उत्तर थे कि मैं अपने मुस्लिम पुरखों के लिए शब ए बरात मनाता हूं, वहीं अपने सैकड़ों हजारों वर्ष पूर्व के हिंदू पूर्वजों की मुक्ति और अपनी आत्मिक शांति के लिए पितृ तर्पण को आया हूं। वास्तव में यह ऐसी परंपरा है जिससे संपूर्ण भारतीय समाज ही प्रभावित है।

(लेखक भारतीय ज्ञान परंपरा के अध्येता हैं)

अमिय भूषण


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