पसमांदा मुस्लिम : जातिवाद की गिरफ्त
विडंबना रही है कि इस्लाम को जातिवाद विरोधी और मुस्लिम समाज को जातिवाद रहित समाज माना जाता रहा है जबकि इस्लाम में सैद्धांतिक रूप में जातिवाद मौजूद है और पूरी दुनिया के मुस्लिम समाज में नस्लवाद, जातिवाद, ऊंच-नीच किसी ना किसी रूप में खुलेआम पाया जाता है।
पसमांदा मुस्लिम : जातिवाद की गिरफ्त |
तुर्की में काली पगड़ी सिर्फ सैयद ही धारण कर सकता है। भारत के कश्मीर प्रांत में भी ऐसा देखा जाता है। यमन के अखदाम जो स्वच्छकार होते हैं। उनके साथ छुआछूत आम है।
जहां तक इस्लामी जातिवाद के सैद्धांतिक स्वरूप का सवाल है तो सर्वविदित है कि कुरान में ऐसी कोई पंक्ति नहीं है, जिसे जातिवाद के समर्थन में उद्धृत किया जाए लेकिन अजीब बात है कि अशराफ उलेमा ने कुरान की उन पंक्तियों, जो जातिवाद या नस्लवाद के विरोध स्वरूप हैं, की व्याख्या में जातिवाद का रंग चढ़ाने की पूरी कोशिश करते हैं।
इस्लाम के अन्य आधिकारिक स्रोतों हदीस और इस्लामी फीक्ह (विधि) में खलीफा के चयन से लेकर शादी विवाह तक में जातिवाद का बोलबाला है। हालांकि कुछ हदीसें ऐसी भी मिल जाएंगी जो जातिवाद का कड़ाई से विरोध करती हैं। इस्लाम में जातिवाद है कि नहीं, यह ज्ञानात्मक बहस का मुद्दा तो हो सकता है लेकिन मौजूदा समय में जो इस्लाम प्रचलित है, वह पूरी तरह जातिवादी के रंग से ओत प्रोत है। जिस इस्लाम के पहले खलीफा की नियुक्ति, उसके पारितोषिक का निर्धारण, तीसरे खलीफा की हत्या जाति आधारित हो और जुम्मे के खुत्बे में जाति विशेष की महत्ता का बखान हो, शादी-विवाह के लिए जातीय बंधन हो, वो इस्लाम कैसे जातिवादरहित होने का दावा कर सकता है।
दिलचस्प बात यह भी है कि इस्लामी इतिहास के कालखंडों के नाम भी जाति आधारित हैं। जैसे अहदे बनू उमैय्या (बनू उमैय्या काल) अहदे बनू अब्बासिया (बनू अब्बासी काल) अहदे उस्मानी (तुर्क जाति के उस्मानी लोगो का काल)। भारत की बात की जाए तो यहां अरबी, ईरानी और मध्य एशिया के मुस्लिमों के आगमन के साथ ही इस्लामी स्टाइल के जातिवाद का भी पदार्पण होता है, जो उनके शासनकाल (जिसे अशराफ शासनकाल भी कह सकते हैं) में साफ तौर से दृष्टिगोचर होता है। नस्ल-जाति के बड़प्पन का अहसास और उसका संस्थापन इस तरह का था कि बाजाब्ता ‘निकाबत’ नामक विभाग था जो शासन-प्रशासन में नियुक्ति के लिए जाति-नस्ल की जांच करता था।
पहले से नियुक्त संदिग्ध लोगो की भी जांच करता था। अल्तमश के शासनकाल में ऐसे 33 लोगों को शासन-प्रशासन से बर्खास्त करने का प्रमाण मिलता है, जिनका संबंध तथाकथित नीच जाति से था। इस मामले में ये इतने बड़े वाले सेक्युलर थे कि भारतीय मूल के अपने सहधर्मियों (पसमांदा) तक को नहीं बख्शा। अंग्रेजों के आने के बाद बदली हुई परिस्थिति में अशराफ मुस्लिमों (सैयद, शेख, मुगल, पठान) ने अपनी सत्ता एवं वर्चस्व को बनाए रखने के लिए द्विराष्ट्र सिद्धांत, खिलाफत आंदोलन और देश के बंटवारे तक का खेल खेला। इस पूरे काल में देसी पसमांदा मुस्लिमों (इस्लामी धर्मावलंबी आदिवासी, दलित, पिछड़े) को अशराफ ने धर्म और धार्मिंक एकता की अफीम पीला कर गुलाम बनाए रखा। हालांकि आसिम बिहारी के नेतृत्व में प्रथम पसमांदा आंदोलन ने इसका प्रतिरोध किया और अंतिम समय तक देश के बंटवारे का विरोध करते रहे।
बंटवारे के बाद भारत में बचे अशराफ ने कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संगठन के माध्यम से अपनी सत्ता-वर्चस्व बनाए रखे। अशराफ ने पसमांदा तक आजादी नहीं पहुंचने दी। अशराफ ने पसमांदा को ऐसे डिजाइन किया है कि यह सरकार को दुश्मन और अपने उत्पीड़क अशराफ को अपना रहनुमा। इसका सबूत इससे मिलता है कि हिंदू बहुल इलाकों में रहने वाले पसमांदा की स्थिति अशराफ के प्रभावी क्षेत्रों की बनिस्बत थोड़ी-बहुत अच्छी रही है। अशराफ, मुस्लिम और अल्पसंख्यक नाम पर अपने हित साधता रहा है। यहां तक कि मुस्लिम कौम के नाम पर स्वयं द्वारा स्थापित इदारों में भी पसमांदा की भागीदारी को न्यूनतम स्तर पर रखा। अब तक के लोक सभा सदस्यों के मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि अशराफ अपनी संख्या के दुगने से भी अधिक भागीदारी प्राप्त किए हुए हैं जबकि पसमांदा अपनी संख्या के अनुपात में ‘नहीं’ के बराबर हैं। ज्ञात रहे कि देसी पसमांदा की आबादी कुल मुस्लिम आबादी का 90% है।
सरकार और राजनैतिक पार्टियों में मौजूद अशराफ ने पसमांदा मसायल को कभी भी मंजरे आम पर नहीं आने दिया। सच्चर कमेटी की इस बात को कि ‘पसमांदा मुस्लिमों की हालत हिंदू दलितों से भी बदतर है’ अशराफ ने भ्रम फैलाते हुए कहना शुरू किया कि ‘सारे मुस्लिमों की स्थिति दलितों से बदतर है।’ इससे यह बात साफ हो जाती है कि अशराफ ने धार्मिंक पहचान की सांप्रदायिक व अल्पसंख्यक राजनीति के नाम पर पसमांदा की भीड़ दिखा कर सिर्फ अपना हित सुरक्षित रखा है।
विभिन्न पसमांदा संगठनों ने मुस्लिम समाज में व्याप्त छुआ-छूत, ऊंच-नीच, जातिवाद को बुराई मानते हुए इसे राष्ट्र निर्माण में बाधा के रूप में देखते हुए इसका खुल कर विरोध किया है। पसमांदा की हालत सुधारने व उन्हें मुख्यधारा में जोड़ने के लिए कई तरह की मांग इन संगठनों द्वारा समय-समय पर की जाती रही रहा है। इनमें कुछ प्रमुख मांगों का उल्लेख करना मुनासिब जान पड़ता है। अशराफ द्वारा मुसलमान एवं अल्पसंख्यक नाम पर चलाई जाने वाली सभी संस्थाओं एवं संगठनों जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, वक्फ बोर्ड, मदरसे, इमारते शरिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिर्वसटिी, इंट्रिगल यूनिर्वसटिी आदि में पसमांदा की आबादी के अनुसार भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
राजनैतिक पार्टियों पसमांदा को उनकी आबादी के अनुसार ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत, जिला पंचायत,नगर पालिका, नगर निगम, विधानसभा एवं लोक सभा के चुनावों में सीट आवंटित करें। धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना के आधार पर संविधान की धारा 341 पर 1950 के राष्ट्रपति के आदेश के पैरा 3 को समाप्त कर सभी धर्मो के दलितों के लिए समान रूप से सभी स्तर पर आरक्षण की व्यवस्था हो। अनुसूचित जनजाति पसमांदा की पहचान कर उनको एसटी आरक्षण में शामिल किया जाए। पिछड़ी पसमांदा जातियों, जो ओबीसी आरक्षण में शामिल होने से छूट गई हैं, को शामिल किया जाए। केंद्र एवं राज्य सरकारों के अधीन अल्पसंख्यक प्रतिष्ठानों एवं संस्थानों में पसमांदा की भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक हैं)
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