वैश्विकी : अफगान की निर्वासित सरकार का भविष्य!
अफगानिस्तान में अपना पांव जमाने और शासन तंत्र पर शिंकजा मजबूत करने के बाद तालिबान आतंकवादियों के समक्ष अपनी हुकूमत को अंतरराष्ट्रीय मान्यता दिलाने की चुनौती है।
वैश्विकी : अफगान की निर्वासित सरकार का भविष्य! |
दूसरी ओर स्विट्जरलैंड में पिछली निर्वाचित सरकार के नेताओं ने निर्वासित सरकार के गठन की घोषणा की है। जेनेवा स्थित अफगान दूतावास इस निर्वासित सरकार का मुख्य केंद्र है। ताजिकिस्तान के बाद स्विट्जरलैंड दूसरा देश है जहां अफगान दूतावास ने अपनी निष्ठा पिछली सरकार के प्रति व्यक्त की है। भारत सहित अन्य देशों में स्थित दूतावास अभी भी ‘प्रतीक्षा करो और देखो’ की मुद्रा में हैं। वैधानिक रूप से अमरुल्लाह सालेह देश के कार्यकारी राष्ट्रपति हैं।
पंजशीर प्रतिरोध के कमजोर होने के बाद सालेह और प्रतिरोध के दूसरे नेता मसूद इस समय कहां हैं, यह स्पष्ट नहीं है। प्रतिरोध के लड़ाकुओं ने घाटी में तालिबान के कब्जे के बाद पहाड़ियों पर शरण ले रखी है। कुछ ही समय बाद शीतकाल में इन पहाड़ियों पर रह पाना बहुत दुष्कर होगा। देखने वाली बात यह होगी कि तालिबान विरोधी लड़ाकू आगे क्या रणनीति अपनाते हैं?
पूरी दुनिया ने इस जमीनी हकीकत को स्वीकार कर लिया है कि व्यावहारिक रूप से पूरे देश पर तालिबान का कब्जा है। देश के अंदर या बाहर तालिबान को लंबे समय तक कहीं से चुनौती मिलेगी इसकी संभावना फिलहाल नजर नहीं आती। ऐसे में अमरुल्लाह सालेह की निर्वासत सरकार को शायद ही कोई देश मान्यता दे। हालांकि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद सहित कई मंचों पर पिछली सरकार के प्रतिनिधि शामिल हो रहे हैं। महासभा के पिछले अधिवेशन में तालिबान के प्रतिनिधि मोहम्मद सुहेल शाहीन को शामिल होने की अनुमति नहीं दी गई।
अब अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सामने यह सवाल है कि तालिबान हुकूमत को कब और किन शतरे पर मान्यता दी जाए। विश्व समुदाय इस बात पर एकमत है कि अफगान आवाम को यथाशीघ्र मानवीय सहायता उपलब्ध कराई जाए, लेकिन उसका जोर इस बात पर है कि यह सहायता संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के माध्यम से कराई जाए। तालिबान किस सीमा तक अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को अपने यहां बाधारहित काम करने की अनुमति देंगे यह स्पष्ट नहीं है।
अफगानिस्तान के दुखद घटनाक्रम में केवल संतोष की बात यह है कि पूरी दुनिया मानवाधिकारों के संरक्षण, महिलाओं एवं बालिकाओं के अधिकार और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा पर जोर दे रही है। काबुल पर तालिबान के कब्जे का मुख्य सूत्रधार कतर भी तालिबान को ऐसा करने की सलाह दे रहा है। सऊदी अरब का रवैया तो और तल्ख है। वह तालिबान को मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए जवाबदेह ठहराने की मांग कर रहा है। यह बड़ी विडंबना है कि तालिबान जिस कट्टरपंथी वहाबी विचारधारा से उपजे हैं, वह विचारधारा सऊदी अरब और कतर की ‘राष्ट्रीय विचारधारा’ है। दोनों देश पूरी दुनिया में वहाबी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए मदरसों और मुस्लिम संगठनों को धनराशि उपलब्ध कराते हैं। भारत में भी वहाबी इस्लाम ने पांव पसारना शुरू कर दिया है। यह जाल कितना बड़ा है और इससे कैसे निपटा जाए, यह सुरक्षा एजेंसियों के लिए गंभीर चुनौती है। विश्व बिरादरी को वास्तव में सऊदी अरब और कतर को कठघरे में खड़ा करना चाहिए। इन देशों ने बबूल के पेड़ बोए और आज कह रहे हैं कि इन पर आम फलने चाहिए।
अफगानिस्तान के मामले में भारत एक दूरदृष्टि संपन्न नैतिक शक्ति के रूप में उभरा है। भारत ही एकमात्र देश है जिसने तालिबान आतंकवादियों के खतरे को पहचान कर उसे किसी प्रकार की वैधानिकता प्रदान नहीं की। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने हाल ही में इसी ओर संकेत किया कि दोहा समझौते के दौरान भारत को विश्वास में नहीं लिया गया। दुनिया ने यदि भारत की बात सुनी होती तो अफगान की त्रासदी से बचा जा सकता था। अफगानिस्तान में भारत ने वहां के विकास के लिए बहुत बड़ी धनराशि खर्च की थी। साथ ही ईरान का चाहबार बंदरगाह भी अफगानिस्तान को समुद्री पहुंच मुहैया कराने पर केंद्रित था। लगता है इन सब पर पानी फिर गया। पूरे घटनाक्रम पर सबसे सटीक टिप्पणी यह है कि भारत ने काबुल में लोकतांत्रिक सरकार के लिए जिस संसद भवन का निर्माण किया था, उसमें आज तालिबान आतंकवादी बैठ रहे हैं।
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