मीडिया : पत्रकारिता का पतन
यह पत्रकारिता नहीं है, बल्कि पत्रकारिता के नाम पर कलंक है और अगर यह ‘ऐंबेडेड पत्रकारिता’ है, तो बर्बर किस्म की पत्रकारिता है।
मीडिया : पत्रकारिता का पतन |
एक प्रेस फोटोग्राफर लाश पर कूद रहा है। लाश प्रदर्शनकारी की है जिसे पुलिस की गोली लगी है। असम के दारांग की घटना है। दारांग के सिपहझार क्षेत्र में एक बड़ी सरकारी जमीन पर कुछ लोगों ने जबरिया कब्जा किया हुआ था। अदालत कब्जा हटाने का आदेश दे चुकी थी।
नई सरकार उस पर अमल कर रही थी। पहले दिन सारी कार्रवाई शांतिपूर्ण रही लेकिन दूसरे दिन हजारों लोग पुलिस व प्रशासकों पर आक्रामक होकर पत्थर बरसाने लगे। बीसियों पुलिस वाले जख्मी हुए। पुलिस को गोली चलानी पड़ी जिससे एक व्यक्ति ठौर मर गया। रिपोटरे में विजय कुमार बानिया नामक फोटोग्राफर अचानक इसी व्यक्ति की लाश पर कूदता दिखता है। सोशल मीडिया उसका वीडियो वायरल होता है। फोटोग्राफर गिरफ्तार कर लिया जाता है और जांच बैठा दी जाती है। खबरें यह भी बताती हैं कि दूसरे दिन मुस्लिम तत्ववादी संगठन ‘पीएफआई’ ने लोगों को पुलिस पर हमला करने के लिए उकसाया। लेकिन हमारा मकसद घटना की जांच नहीं, बल्कि उस प्रेस फोटोग्राफर का निंदनीय कदाचरण है, जो पत्रकारिता के पेशे को कलंकित करता है।
लाश पर कूदने की घटना यह भी बताती है कि इन दिनों की पत्रकारिता रही सही तटस्थता भी खोने लगी है। कहने की जरूरत नहीं कि यह पत्रकारिता का नया पतन है। लगता है कि लाश पर कूदते वक्त यह असमिया फोटोग्राफर अपने कर्त्तव्य व अपनी ट्रेनिंग को भूल गया और नृशंस एक्टिविस्ट जैसा हो उठा। उसके मन में तटस्थता की जगह मृतक के प्रति गहरी घृणा रही जिससे उत्तेजित होकर उसकी लाश पर कूदने लगा। ‘मौका ए वारदात’ पर तटस्थ बने रहने की जगह इस पत्रकार का किसी ‘पक्षपाती एक्टिविस्ट’ की तरह आचरण करना ‘सांप्रदायिक रूप से विभाजित’ होती जा रही पतित पत्रकारिता का नमूना है।
एक पेशेवर पत्रकार में ऐसा मानसिक विचलन और पतन कैसे हो सकता है? कहने की जरूरत नहीं कि सवाल का उत्तर हमारी पत्रकारिता में बढ़ती रही ‘पार्टीजनशिप’ की प्रवृत्ति में निहित में है। हमारे अधिकांश खबर चैनल इस प्रकार की ‘पार्टीजन राजनीति’ के खुले अखाडे हैं। वहां ‘पार्टीजन पत्रकारिता’ का ही बोलबाला रहता है। हमारे चैनलों में ऐसे कई एंकर और रिपोर्टर दिखते हैं जो खबर से अपनी जरूरी तटस्थता को त्याग कर काम करते हैं। कई तो अपने विचारों को छिपाते तक नहीं, बल्कि खुलकर जताते चलते हैं! एक एंकर तो अपने को खुले आम ‘राष्ट्रवादी’ कहता है जबकि दूसरा तीसरा बिना कहे ‘राष्ट्रवादी’ बना रहता है।
उधर कुछ चैनल और सोशल मीडिया का बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जिसे इस राष्ट्र की कोई चीज अच्छी नहीं लगती। फिर, हर चैनल चरचा में एक ओर ‘हिंदूवादी’ बैठा लिए जाते हैं, दूसरी ओर ‘इसलामवादी’। देर तक ‘हिंदू-मुस्लिम’ होता रहता है, हर ओर असहिष्णुता और घृणा फैलती रहती है। जाहिर है कि हमारा मीडिया और हम अब ‘मनुष्य’ की तरह नहीं सोचते, बल्कि ‘हिंदू मुसलमान’ की तरह सेाचते हैं या जातिवादी की तरह। पत्रकार भी इस विभाजनकारी वातावरण से मुक्त कैसे हो सकता है?
यही हुआ है।
अब तो सांप्रदायिक विभाजन लोगों के अवचेतन तक में समा गया दिखता है। तभी तो एक पेशेवर फोटोग्राफर खास समुदाय के व्यक्ति की लाश पर कूदने लगता है। इसे देख कुछ टिप्पणीकार इस कांड को एक समुदाय के खिलाफ ‘जलियांवाला बाग’ बताने लगते हैं जबकि जमीन पर जबरिया कब्जा करने वाले अधिकांशत: बाहरी थे और अदालत ने जमीन खाली कराने का आदेश दिया था। आदर्श पत्रकारिता तभी संभव है, जब पत्रकार बिना किसी लाग लपेट के ‘सच’ दिखाए लेकिन जैसे ही कोई मरता है, तो हमारे नेता सबसे पहले उसका धर्म या जाति देखते हैं और उसके धर्म या जाति को देखकर ही उसका पक्ष या विपक्ष लेते हैं, मीडिया भी उनको जस का तस दिखाता है। मसलन कहीं ‘दुबे’ मारा जाता है, तो ‘ब्राह्मण ब्राह्मण’ होने लगता है। कोई मुसलमान शिकार होता है तो सारे सेक्युलर चिल्लाने लगते हैं और कोई हिंदू मारा जाता है तो सेक्युलर चुप लगा जाते हैं। सिर्फ हिंदू ही उसका पक्ष लेते रह जाते हैं। अब कोई ‘आदमी’ नहीं मरता, बल्कि हिदू या मुसलमान मरता है, या अवर्ण या सवर्ण। यह पत्रकारिता का पतन है, जिसके बीज पत्रकारिता में न होकर समाज और राजनीति में हैं!
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