स्मृति शेष : शास्त्रीय संगीत की दुर्लभ प्रतिभा की स्मृति

Last Updated 03 Oct 2021 12:35:42 AM IST

हर नगर में कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो दूसरे प्रदेशों या नगरों से आते हैं और फिर उस नगर में इस तरह रच-बस जाते हैं कि उसकी पहचान में शामिल हो जाते हैं।


स्मृति शेष : शास्त्रीय संगीत की दुर्लभ प्रतिभा की स्मृति

पंडित बलवंत राय भट्ट जिन्हें ‘भावरंग’ के उपनाम से भी खूब जाना गया, गुजरात के भावनगर में जन्मे, मुंबई में संगीत शिक्षा ली, लेकिन अपने गुरु पंडित ओंकार नाथ ठाकुर के मार्गदर्शन में बनारस इस तरह आए कि इसी नगर के हो गए। वे एक प्रसिद्ध वाग्गेयकार, शास्त्रीय गायक एवं संगीत शिक्षक थे। इस 23 सितम्बर को उनके जन्म को सौ साल हो गए।
भावरंग नेत्रहीन थे। बचपन में चेचक और चोट लगने से उनकी नेत्रज्योति चली गई थी। उन्होंने मुंबई के नेत्रहीनों के विद्यालय विक्टोरिया मेमोरियल स्कूल फॉर द ब्लाइंड में पढ़ाई की और फिर संगीत के प्रति अपने अनुराग के कारण पंडित ओंकार नाथ ठाकुर के संगीत निकेतन आ गए। बताते हैं कि पंडित जी पहले उन्हें संगीत सिखाने को सहमत नहीं थे क्योंकि गुजरात के विद्यार्थियों को लेकर उनके अनुभव अच्छे नहीं थे। मुंबई के नेत्रहीनों के उस विद्यालय-जिसमें भट्ट जी पढ़ते थे-के प्रबंधक के निवेदन पर पंडित जी सहमत हुए। थोड़े ही समय में भट्ट जी ने अपने परिश्रम और प्रतिभा की ऐसी छाप छोड़ी कि पंडित जी के प्रिय हो गए। पंडित ओंकारनाथ ठाकुर के मुख्य शिष्यों में उनकी गणना होने लगी। लंबे समय से संगीत के कार्यक्रमों का श्रोता रहा हूं, कई दिग्गज कलाकारों से निकटता भी रही है। इन कलाकारों के बीच एक बात महसूस होती रही है। अक्सर जिन्हें शास्त्र का जानकार पाया है, प्रस्तुतियों में उतने प्रभावी नहीं लगे हैं। ज्यादातर जो अपने संगीत से हमें गहरे तक आनंदित कर जाते हैं वे शास्त्र की गहराइयों में बहुत दूर तक नहीं जा पाते हैं। शास्त्र और प्रयोग दोनो को साध पाना अक्सर संभव होता नहीं दिखता। पंडित बलवंत राय भट्ट कलाकारों में इस मायने में अपवाद भी थे कि उन्होंने न सिर्फ अच्छी संगीत प्रस्तुतियां कीं, शास्त्र में भी उनकी गहरी दखल रही। पंडित ओंकारनाथ ठाकुर जब काशी हिंदू विविद्यालय के संगीत एवं मंच कला संकाय (तत्कालीन संगीत कला भारती) आए तो भट्ट जी भी यहां आ गए। उन्हें इस  संकाय का नींव का पत्थर कहना गलत न होगा। करीब 31 वर्षो तक यहां अध्यापन किया और सैकड़ों विद्यार्थियों को संगीत शिक्षा दी। उनके विद्यार्थियों ने विदेश में भी हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का प्रचार-प्रसार किया है।

संगीत की दुनिया में वाग्गेयकार वह होता है जो वाक् और गेय दोनों की रचना करे अर्थात काव्य भी लिखे और उसे स्वर-लय में निबद्ध भी करे। कम ही उदाहरण हैं, जब कोई कलाकार श्रेष्ठ वाग्गेयकार भी हो। पंडित बलवंत राय भट्ट श्रेष्ठ वाग्गेयकार माने गए हैं। उनकी बंदिशें खूब गाई, बजाई जाती रहीं। विभिन्न विषयों पर कई रागों में उन्होंने ढेर सारी बंदिशें रची हैं। इस प्रतिभा से उनके गुरु पंडित ओंकारनाथ ठाकुर इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने एक बार यहां तक कह दिया, ‘रचना के क्षेत्र में भले ‘सदारंग’, ‘अदारंग’ को भूल जाए लेकिन ‘भावरंग’ को कभी नहीं भूलेंगे।’ भट्टजी की खास बात यह भी थी कि वे अपनी बंदिशों के लिए प्राय: अप्रचलित तालों को चुनते थे। आड़ा चौताल उन्हें काफी प्रिय था। उनकी बंदिशों में लय और ताल की खूबियों से भी जानकार उनकी बंदिशों को पहचान लेते हैं। उनकी बंदिशों का संकलन ‘भावरंग लहरी’ के तीन भागों में है। पुणो के सुरेश तलवरकर प्रसिद्ध तबला वादक हैं। एक बार उनके प्रदर्शन के दौरान दोनों हाथों से अलग-अलग तालों को गिनते देखकर मैं काफी प्रभावित हुआ था। बाद में मैंने जाना कि पंडित बलवंत राय भट्ट ‘भावरंग’ काफी पहले इस तरह के प्रदर्शन करते रहे हैं। ‘भावरंग’ ने  गायन के साथ ही कई सारे वाद्यों को भी साधा। वे इन वाद्यों पर दिग्गज कलाकारों के साथ संगत भी कर चुके थे।
उनके समकालीन और उनकी बाद की पीढ़ी के कलाकारों की स्मृति में वे एक गंभीर संगीत श्रोता के तौर पर भी हैं। बताते हैं कि वे आकाशवाणी से नियमित तौर पर शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों को सुनते थे। कार्यक्रम सुनने के बाद वे अक्सर कलाकारों को फोनकर उनसे उनके कार्यक्रम की खूबियों और खामियों पर भी चर्चा करते थे। इतना ही नहीं वे आकाशवाणी के अधिकारियों को भी इन कार्यक्रमों के संबंध में परामर्श देते थे।
संगीत समारोहों में उनकी उपस्थिति महत्त्वपूर्ण होती थी। वे कार्यक्रम के दौरान मात्राएं गिना करते थे। एक बार उन्होंने लक्ष्मण कृष्णराव पंडित जी से उनके कार्यक्रम के बाद कहा था कि तुम्हारा गाना तो अच्छा रहा, लेकिन तुम्हारा तबलिया बेताला था। जब एल.के.पंडित ने अपने तबला संगतकार को बताया, जो खुद एक प्रसिद्ध तबला वादक था, तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ। पंडित बलवंत राय भट्ट ‘भावरंग’ को पद्मश्री के साथ ही कालिदास सम्मान, केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी सम्मान, उप्र संगीत नाटक अकादमी का सम्मान और रत्न सदस्यता से सम्मानित किया गया था। ऐसी प्रतिभाएं निश्चय ही दुर्लभ और सम्मान योग्य हैं। जन्मशताब्दी के अवसर पर उन्हें नमन एवं श्रद्धांजलि।

आलोक पराड़कर


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