सरोकार : कमला भसीन: पैरों के निशां बाकी हैं

Last Updated 03 Oct 2021 12:27:09 AM IST

वो अब नहीं रहीं। सारी दुनिया जिसे महिला आजादी की पैरोकार मानती थी। जिनकी सलाहियत, इल्म, जज्बे और इंकलाबी तेवरों को सराहती थी।


सरोकार : कमला भसीन: पैरों के निशां बाकी हैं

पैरों के निशा उनके बाकी हैं अब। ‘कोई तो चुप्पी तोड़ो’ जैसी ताकतवर किताब के जरिये आजादी की जो परिभाषा उन्होंने गढ़ी वो पितृसत्तात्मक समाज को हमेशा आईना दिखाती रहेगी। दुनिया भर की औरतों को अपने हक के लिए जुनूनी होना कमला भसीन ने ही सिखाया। देश जब अपनी आजादी के मायने तलाश रहा था तब कमला औरतों को औरत होने का मर्म बता रही थीं। पकिस्तान में जन्मी और जर्मनी में पढ़ी बेबाक कमला मदरे और उनकी खोखली मर्दानगी को सार्वजनिक मंचों से अक्सर टक्कर देती दिखती हैं। वे बेखौफ बेबाकी से अपनी राय रखतीं। तब पश्चिमी समाज महिलाओं को लेकर  रूढ़िवादिता के अपने पर्दे धीरे-धीरे खोल रहा था, औरतों की इंकलाबी भाषा के गहरे निहितार्थ समझ रहा था।
 कमला के जीवन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। वे भारतीय महिलाओं खासकर गुरबत में जी रही महिलाओं को लेकर अतिसक्रिय हो उठीं। उन्होंने भारत लौटकर इंकलाब की ऐसी मशाल जलाई, जिसने महिलाओं की आजादी की राह आसान बनाई। वो हर मंच और हर आमो-खास से औरतों की आजादी के अर्थ तलाशती। महिलाओं से खुलकर अपनी बात रखने को बोलतीं। निडर और मजबूत बनने की सलाह देतीं। कुछेक वर्षो के दरमियां ही कमला बुलंद औरतों की बुलंद तस्वीर बन गई। वे एक ऐसी क्रांतिकारी द्रष्टा बनीं, जिन्होंने औरतों की खुदमुख्तारी को नया तेवर दिया। आजादी के दौर की सशक्त आवाज सरोजिनी नायडू, इंदिरा गांधी, अमृता प्रीतम के बाद संभवत: इस पंक्ति की वो सबसे कद्दावर महिला थीं। उन्होंने पुरु ष प्रधान समाज में औरतों को लेकर स्थापित वर्जनाओं को न केवल तोड़ा, बल्कि उन पर बेरहम चोट भी की। समाजिक कार्यकर्ता और एक आंदोलनकारी के तौर पर उन्होंने दुनियाभर की औरतों को एकजुट किया। हालांकि अपने इस अभियान में वे कई बार चोटिल हुई, आलोचनाएं सहीं, अनेक पिताओं और पतियों का कोपभाजन भी बनीं। पर वे रु की नहीं। तमाम प्रवंचनाओं और अपमानों को नकार वे अपनी राह बढ़ती रहीं। वर्जनाओं से भरे समाज में पैदा होने के बावजूद उन्होंने संकीर्णता से खूब टक्कर ली। वो लड़कों के साथ खेलते और मदरे की तरह फर्राटे से बाइक दौड़ाते बड़ी हुई थीं। पर अपने साथ बड़ी होती दूसरी लड़कियों के साथ होता भेदभाव उन्हें सालता और धिक्कारता था। कमला की महिला आजादी की जबर्दस्त पैरोकारी ने लोगों की चेतना को विस्तारित करने में अहम भूमिका निभाई।

अपनी 30 से भी अधिक किताबों में उन्होंने औरतों की आजादी के मायने तलाशे और पुरु षों को अपनी दहलीज पार न करने की नसीहत दी। वे अक्सर कहतीं; महिलाओं को नहीं, बल्कि पुरु षों को अपनी सीमाएं तलाशनी चाहिए। उनकी कविता की एक मशहूर पंक्ति, ‘मैं एक लड़की हूं और मुझे जरूर पढ़ना चाहिए’, शिक्षा के प्रति उनकी जीवटता को दर्शाती है। भारत ही नहीं, दक्षिण एशियाई देशों में महिला अधिकारों की मुखर आवाज कमला अपने विव्यापी कैम्पेन ‘वन बिलियन राईजिंग’ के जरिये हमेशा याद की जाती रहेंगी। ये वो रोशन चिराग है, जो कभी न बुझेगी। ये मशाल तब तक जलती रहेगी जब तक बुझी आवाजें वाली औरतें पर्दे के पीछे से अपनी आवाज बुलंद न कर लें।

डॉ. दर्शनी प्रिय


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