मीडिया : भक्त पत्रकारिता
हमारे खबर चैनल लाख दावा करें कि वे सबसे कठिन सवाल पूछते हैं, लेकिन हमें तो वे हर बड़े आदमी की हर समय ‘अभ्यर्थना’ सी करते नजर आते हैं!
मीडिया : भक्त पत्रकारिता |
चाहे बाबा की हत्या/आत्महत्या का कवरेज हो या मोदी की अमेरिका यात्रा का कवरेज चैनलों का रोल सर्वत्र ही ‘अनालोचनात्मक’ नजर आता है! स्थाना भाव के कारण फिलहाल हम सिर्फ बाबा की मुत्यु के कवरेज को देखें! इस कवरेज में हिंदी चैनल तीन दिन तक बाबाडम का महिमामंडन करते दिखे, जबकि बाबा खुद लिख गए कि उनका चेला उनको ब्लेकमेल कर रहा है और उनको डर है कि किसी वीडियो के जरिए वो उनको बदनाम करेगा इसलिए वे आत्महत्या कर रहे हैं! पुलिस ने भी प्रथम दृष्ट्या इसे आत्महत्या बताया! इस किस्से के पीछे प्रॉपर्टी का मामला भी रहा! लेकिन अपने चैनल कहानी को आलोचनात्मक नजरिए से देखने-दिखाने की जगह बाबाडम के महिमामंडन में लगे रहे!
खोजी पत्रकारिता का तकाजा था कि बताते कि वह क्या वीडियो है, जिसके ब्लैकमेल से हो सकने वाली बदनामी से बाबा डरते रहे और आत्महत्या कर गुजरे! कहने की जरूरत नहीं कि इस आत्महत्या ने उनको उस ‘आम आदमी’ तरह बना दिया, जो मायामोह में लिप्त रहता है। उम्मीद थी कि चैनल बाबा के प्रति न सही इस घटना से एक्सपेज हुए बाबाडम के बारे में कुछ आलोचनात्मक होते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ! सिर्फ एक चैनल पर जब एक आचार्य ने कहा कि बाबाओं को इस तरह की चीजों से मुक्त होना चाहिए तो भी इस सूत्र को आगे न बढ़ाया गया। अगर चैनल कबीर या तुलसी को ही याद कर लेते और गुरु और संतों के लिए कहे गए गुणों का बखान करते तो आम जनता का ज्ञान बढ़ता, लेकिन चैनल तीन दिन तक एक आत्महत्या को गाते रहे और इस तरह बाबाडम को मेनस्ट्रीम करते रहे। इसकी क्या जरूरत थी? क्या पत्रकारिता ने यही सिखाया है कि आप किसी घटना के प्रति जरा भी आलोचनात्मक नजरिया न रखें?
सवाल तो किया ही जा सकता था कि आजकल के बहुत से बाबा करोड़ों में क्यों खेलने लगे हैं और कि संन्यास का मतलब अब क्या रह गया है? हम सब जानते हैं कि कोई भी बाबा या संन्यासी अपने को माया से कितना भी अलिप्त बताए वह अलिप्त नहीं हो सकता क्योंकि जब तक आप संसार में हैं तब तक माया में है! और जैसा कि कबीर ने कहा है कि :
‘माया महा ठगिनि हम जानी/तिरगुन फांस लिये कर डोलै बोलै मीठी बानी/केसव के कमला वे बैठी शिव के भवन भवानी/दास कबीर साहब का बंदा जाके हाथ बिकानी’!
साफ है कि माया से कोई नहीं बच पाता। देवता तक नहीं बच पाते और कबीर जी भले ही कहें कि चूंकि वे साहब के बंदे थे इसलिए उन्होंने माया को जीत लिया था, लेकिन माया को जीतना भी तो माया ही है! जब माया का ऐसा प्रपंच है तो कहा जाना था कि बाबा आज के बाबा थे इसीलिए आम आदमी की तरह थे, लेकिन अगर ऐसा कहते तो चैनलों को महिमामंडन का अवसर कब मिलता? लेकिन ये महिमामंडन भी क्यों किया? क्या किसी ने कहा या कि पत्रकारों में खुद बाबाडम के प्रति मोह है और कि वे इतने भक्त हो चुके हैं कि उनके प्रति जरा भी क्रिटीकल नहीं होते दिखते! तब क्या उनको सिर्फ पत्रकार कहने की जगह ‘भक्त पत्रकार’ न कहना चाहिए?
अगर भक्त न होते तो बाबाओं से कुछ तो कठिन सवाल पूछते जब आप नेताओं से कठिन सवाल पूछ सकते हैं तो बाबाओं से क्यों नहीं पूछ सकते? हमारा मानना है कि पत्रकारिता का कर्म किसी भी घटना में पत्रकार का विलीनीकरण नहीं है बल्कि तटस्थ रहकर हर घटना को देखना-दिखाना है, ताकि हर ऐसी घटना अपने कटु यथार्थ के साथ सामने। बाबा की आत्महत्या की खबरों में यह बात बार-बार सामने आई कि सत्ता और विपक्ष-दोनों के बड़े राजनेता बाबा का आशीर्वाद लेने के लिए के मठ में आते-जाते थे! कई नेताओं ने बाबा से अपने पुराने संबंधों के बारे में भी बताया!
कुछ पत्रकारों तक ने उनसे पुरानी मुलाकातों के बारे में बताया! इससे साफ है कि आज के बाबा और आज की राजनीति और पत्रकारिता में गहरे संबंध हैं! बाबा लोग भी इन दिनों मीडिया मोह के मारे होते हैं! ऐसे में किसी बाबा को कठिन प्रश्नों के दायरे से बाहर रखने में कौन सी पत्रकारिता है? कहने की जरूरत नहीं कि आज की पत्रकारिता सिर्फ ‘आउटपुट’ का माध्यम है ‘इनपुट’ का नहीं! अगर वह कुछ ‘इनपुट वाली’ होती तो ‘आलेचनात्मक’ होती! कोरी ‘आउटपुट वाली’ पत्रकारिता सिर्फ ‘भक्त पत्रकारिता’ ही होती है!
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