वैश्विकी : 9/11 की याद

Last Updated 12 Sep 2021 12:20:04 AM IST

दुनियाभर में 9/11 को याद किया जा रहा है। अमेरिका में इस बार का आयोजन गम के साथ पराजय के माहौल में हो रहा है।


वैश्विकी : 9/11 की याद

20 वर्ष पहले गम और गुस्से में अमेरिका ने वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध जो व्यापक और निर्मम कार्रवाई की थी, वह दो दशक बाद उन्हीं आतंकवादियों को सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण के रूप में सामने आई है। दुनिया इस बात का लेखा-जोखा ले रहा है कि 20 साल बाद क्या पाया और क्या खोया? जहां तक अमेरिका का सवाल है उसे सबसे अधिक चिंता अपने देश और देशवासियों की है। दुनिया के अन्य देशों में कैसी भी विपत्ति आई, इसे लेकर उसे कोई परवाह नहीं है। यही कारण है कि अफगानिस्तान से  सेनाओं को बिना कुछ सोचे-विचारे वापस बुलाने के गैरजिम्मेदाराना फैसले को लेकर अमेरिकी जनता में कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं हुई है। राष्ट्रपति जो बाइडेन और विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकन इसे अमेरिका की उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रहे हैं।

अमेरिका के ब्राउन विश्वविद्यालय ने 9/11 के बाद आतंकवाद विरोधी मुहिम पर खर्च हुई धनराशि और जानमाल के नुकसान का आकलन किया है। उसके अनुसार इस मुहिम और अमेरिका की आंतरिक सुरक्षा को मजबूत बनाने के उपायों पर 8 ट्रिलियन डॉलर (80 खरब डॉलर) खर्च हुए। दो दशकों के दौरान 5 लाख लोग मारे गए। यह तो अमेरिका के नजरिये से लगाया गया अनुमान है। यदि अफगानिस्तान, ईराक, सीरिया और लीबिया में हुई तबाही का अनुमान लगाया जाए तो उसकी तुलना दूसरे वि युद्ध में हुए विनाश से की जा सकती है। अंत में हासिल क्या हुआ-शून्य। वास्तव में यदि पूरी मुहिम निर्थक रही होती तो भी कुछ संतोष का विषय था। हुआ यह है कि पूरी मुहिम के ठीक उल्टे परिणाम सामने आए। आज दुनिया पहले से अधिक असुरक्षित हो गई।

अमेरिका भले ही आज तालिबान आतंकवादियों के सीधे निशाने पर नहीं है, लेकिन भारत, रूस, मध्य एशिया के देश और चीन जेहादी आतंकवाद के ज्वालामुखी के दहाने पर खड़े हैं। सबसे अधिक विषम स्थिति भारत के लिए है। तालिबान जब पहली बार सत्ता में आए थे तो उस समय ओसामा बिन लादेन के अलकायदा आतंकवादी गुट और अन्य संगठनों का एजेंडा विव्यापी जेहाद था। अफगानिस्तान में जो आतंकी संगठन पनाह लिये हुए थे, उनका मंसूबा अमेरिका, यूरोप, रूस आदि देशों को निशाना बनाने का था। उस समय भी भारत निशाने पर था, लेकिन वह जेहाद का एक मात्र लक्ष्य नहीं था। इस बार हालात बदले हुए हैं। काबुल की नई सरकार पाकिस्तान की सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई की कठपुतली है। वास्तव में पाकिस्तान ने ही अपनी रणनीति के जरिये तालिबान को काबुल पर काबिज कराया है। तालिबान का एक-एक कदम पाकिस्तान के इशारे पर उठाया जा रहा है।

रूस और मध्य एशिया के देशों को तालिबान ने भरोसा दिलाया है कि वह उनके लिए समस्या पैदा नहीं करेगा। चीन को भी उसके शिनजियांग प्रांत में मुस्लिम पृथकतावादियों को अपनी भूमि पर अनुमति नहीं दिए जाने का आश्वासन दिया है। पिछले दिनों पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने अफगानिस्ता के पड़ोसी देशों के विदेश मंत्रियों के सम्मेलन का आयोजन किया था। सम्मेलन के बाद जारी संयुक्त बयान में कहा गया कि अफगानिस्तान की भूमि से किसी पड़ोसी देश के विरुद्ध आतंकवादी गतिविधि नहीं चलाई जाएगी।

बयान में अल कायदा, आईएसआईएस-खुरासान तथा चीन और ईरान के लिए सिरदर्द बने आतंकी संगठनों पर अकुंश लगाने की बात है, लेकिन इस बयान में लश्कर-ए-तोयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों का उल्लेख नहीं है। जाहिर है कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को नये सिरे से फैलाने का कुचक्र रच रहा है। उसकी रणनीति यह है कि भारत के अलावा अन्य देशों को तालिबान अपनी नेकनीयती का परिचय कराए। भारत के विरुद्ध अपने मंसूबों को अमलीजामा पहनाने में वह कोई जल्दबाजी नहीं करना चाहता। उसके पास तालिबान के रूप में एक स्थायी आतंकवादी संपत्ति है। इस जखीरे का उपयोग वह सावधानी से और बहुत धीरे-धीरे करेगा।

डॉ. दिलीप चौबे


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment