कला जगत : चित्रकला के पड़ोस में

Last Updated 12 Sep 2021 12:11:24 AM IST

नजीर बनारसी ने लिखा है- ‘सड़कों पर दिखाओगे अगर अपनी रईसी, लुट जाओगे सरकार, बनारस की गली में।’ आशय ये कि बनारस की इन गलियों में क्या कुछ नहीं है।


कला जगत : चित्रकला के पड़ोस में

वास्तव में बनारस का रस इन गलियों में ही है और नागरिक सुविधाओं की दिक्कतों में भी लोग इनमें मस्त मिलते हैं। इन्हीं गलियों में घूमते हुए मुझे पिछले कुछ समय से एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। बहुत सारी गलियों में मरम्मत कार्य के बाद अगल-बगल की दीवारों पर चित्र बना दिए गए हैं। अमूमन ये दीवारें बहुत गंदी होती थीं, लेकिन अब सौ से अधिक साल पुराने ज्यादातर मकानों की ये दीवारें न सिर्फ तरह-तरह के चित्रों से रंगी हुई हैं बल्कि इनके बीच से गुजरना एक अलग अनुभव भी देता है।

वाराणसी में भित्ति चित्रों की परंपरा रही है। अपने बचपन में इन गलियों से गुजरते हुए जो चित्र मैंने देखे हैं, उनकी याद आज भी है। दरवाजे के दोनों ओर स्त्रियों का हाथ में चंवर लिए खड़ा होना या हाथियों का बना होना और दरवाजे के ऊपरी हिस्से के मध्य में गणोश का चित्र प्राय: ज्यादातर मकानों में देखने को मिल जाता था। इसी प्रकार कई बार मकान की बाहरी दीवारों पर देवी-देवताओं के बड़े-बड़े चित्र भी देखने को मिल जाते थे। कई जगह कुश्ती-पहलवानी के चित्र भी बने देखे हैं। कुछ जगहों पर धार्मिंक ग्रंथों के किसी प्रसंग को आधार रखकर चित्र बनाए गए थे। कुछ भी, कैसे भी नहीं बना लिया जाता था बल्कि चित्रों को बनाने के ढंग और रंगों से शैली का बोध होता था। नगर में इन्हें बनाने वाले कुछ ही चित्रकार थे, जिन्हें अपने पूर्वजों से यह शिक्षा मिली थी। वे एक खास तरह से रंगों का बर्ताव करते थे, लेकिन अब जो चित्र बने हैं, उनमें ऐसा नहीं दिखता। हां, दीवारों के लिए एक ही रंग का चयन जरूर किया गया है और भित्ति चित्रों की परंपरा को इस बहाने याद जरूर किया गया है, लेकिन उस शैली से जुड़ने की कोशिश नहीं है।

यह भी संभव है कि अब वे कलाकार ही न बचे हों जो बनारस की दीवारों पर पहले चित्र बनाते थे। अभी बने चित्रों में देवी-देवताओं के चित्रों की प्रमुखता के बावजूद विषयों में विविधता है और पहले की तरह कुछ ही रंगों के प्रयोग की बाध्यता भी नहीं रखी गई है। बनारस की गलियों की जो दीवारें पान की पीक से रंगीं होती थी, अब उनका चित्रों का धरातल बन जाता, अच्छा लगता है। कई घाटों पर भी ऐसे प्रयोग हुए हैं, हालांकि सड़कों पर ऐसा नहीं दिखता, जबकि देश के कई दूसरे नगरों में सड़कों पर ऐसा किया जा चुका है। कुंभ के समय प्रयागराज में ऐसा हुआ था और लखनऊ सहित कई नगरों में किसी योजना के तहत दीवारों पर चित्र बनाए गए हैं और पुलों को भी कलात्मक ढंग से रंगा गया है।

मैं देश के कुछ ही नगरों में गया हूं और मुझे ठीक-ठीक नहीं पता कि कई दूसरे शहरों में इस दिशा में क्या हुआ है, लेकिन जयपुर की अपनी दो-तीन बार की यात्राओं में मैं दीवारों पर चित्र देखकर चकित रह गया था। चकित इस कारण कि उन चित्रों के पीछे एक विचार भी था। या तो जयपुर के वे चित्र लोककला के प्रभाव लिये दिखते हैं या फिर उनमें आधुनिक बोध है। नगर में मूर्तिशिल्प भी दिखते हैं और ऊपरगामी सेतु के नीचे के खाली हिस्सों का तो बहुत खूबसूरती से उपयोग हुआ है। जयपुर में कई दूसरे नगरों की तरह सामान्य ढंग से कुछ भी नहीं बना दिया गया है बल्कि सोच-समझकर बनाया गया है और इसमें अच्छे चित्रकारों की मदद ली गई है।

जयपुर की कला से यह निकटता मुझे बहुत भाती है और दूसरे नगरों को इससे प्रेरित भी होना चाहिए। पहली बात तो यह हो कि नगरों की सड़कों, गलियों की दीवारों को चित्रित किया जाए, लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि इसके लिए बकायदा एक समिति हो, जिसमें चित्रकार और कला के जानकार हों।

इस महत्त्वपूर्ण कार्य को केवल नगर निगम, विकास प्राधिकरण या स्मार्ट सिटी योजना के अधिकारियों के भरोसे नहीं छोड़ दिया जाना चाहिए। जो भी बनाया जाए, वह अच्छे चित्रकारों की मदद से हो और उनमें एक सुविचारित दृष्टि हो। बेहतर हो इसके लिए नगर के प्रमुख कलाकारों की एक समिति बना ली जाए। ये समिति ही तय करे कि क्या बनवाना है और किससे बनवाना है। इससे चित्रकारों को भी काम मिलेगा और नगर की कला से निकटता भी बढ़ेगी।

मेट्रो स्टेशन, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड तथा दूसरे ऐसे सार्वजनिक स्थलों का भी इस दृष्टि से उपयोग किया जाना चाहिए और उनकी दीवारों पर भी चित्रकारों से चित्र बनवाए जाने चाहिए। संभव है इससे लोगों में कला के प्रति उत्सुकता और जागरूकता भी बढ़े।

आलोक पराड़कर


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