वैश्विकी : तालिबान को मान्यता देने का सवाल
पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हामिद शनिवार को काबुल पहुंचे। उनका काबुल आगमन इस बात का संकेत है कि अफगानिस्तान की नई सरकार के गठन पर पाकिस्तान अपना वर्चस्व चाहता है।
वैश्विकी : तालिबान को मान्यता देने का सवाल |
वास्तव में आईएसआई के प्रमुख ही तालिबान नियंत्रण वाले अफगानिस्तान के ‘राष्ट्रपिता’ हैं। 20 वर्ष पहले तालिबान के अमीर मुल्ला उमर के काबुल से भागने के बाद आईएसआई ने ही अमेरिका की आंख में धूल झोंककर तालिबान के विभिन्न गुटों को अपनी सरजमीं पर जिंदा रखा था। अमेरिकी प्रशासन द्वारा अफगानिस्तान से सेना वापस बुलाने के बाद इन तालिबान गुटों ने औपचारिक संगठन का रूप अख्तियार कर लिया। उन्हें राजनीतिक वैधता मिली और विभिन्न स्रेतों से धनराशि और सैनिक साज-सामान मिला।
तालिबान के भस्मासुर के रुख में उदय का श्रेय आईएसआई को जाता है। खुफिया एजेंसी आईएसआई के पूर्व प्रमुख हामिद गुल ने पिछले 20-30 साल के घटनाक्रम को इस सूत्र वाक्य के जरिये बयान किया था, ‘हमने अमेरिका की सहायता से सोवियत संघ को पराजित किया और फिर अमेरिका की सहायता से अमेरिका को पराजित किया।’ समकालीन दुनिया में किसी अन्य खुफिया एजेंसी ने शायद ही ऐसी सफलता हासिल की हो।
काबुल में नई सरकार के गठन में अभी कुछ समय लगेगा, लेकिन पाकिस्तान इस बात की कोशिश करेगा कि नई सरकार उसके भारत विरोधी एजेंडे को ही आगे बढ़ाए। भारत के लिए नई सरकार को मान्यता देने या न देने से अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह इस नई सुरक्षा चुनौती का मुकाबला करने के लिए रणनीति तैयार करे। रक्षा विशेषज्ञों का एक वर्ग यह दलील दे रहा है कि अफगानिस्तान में अपने राजनीतिक दखल कायम करने के लिए तालिबान सरकार को मान्यता देनी चाहिए। इस संबंध में वह तालिबान के एक प्रमुख नेता शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकजई की भूमिका को भी महत्त्व देते हैं। स्तानिकजई ने दशकों पूर्व भारत की सैनिक अकादमी में प्रशिक्षण प्राप्त किया था। इस पुराने संबंध के आधार पर यह उम्मीद जताई जा रही है कि वह भारत के प्रति कुछ अनुकूल रवैया रख सकते हैं। तालिबान के प्रमुख नेताओं ने अफगानिस्तान की भूमि का उपयोग भारत विरोधी गतिविधियों के लिए नहीं करने देने का भरोसा दिलाया है, लेकिन आदमखोरों के झुंड को शाकाहारी बनाया जा सकेगा इसमें संदेह है। अधिक-से-अधिक तालिबान अपनी भूमि पर अल कायदा, आईएसआईएस-खुरासा, लश्कर-ए-तोयबा और जैश-ए-मोहम्मद की गतिविधियों को काबू में रख सकते हैं, लेकिन पाकिस्तान की सीमावर्ती क्षेत्रों के जरिये भारत में उनकी घुसपैठ रोकने की जिम्मेदारी वह नहीं ले सकते।
अमेरिका सहित पश्चिमी देशों का मानना है कि अफगानिस्तान में सूखा, आर्थिक बदहाली और जर्जर अर्थव्यवस्था के आगे नये शासकों को अंतरराष्ट्रीय मान्यता के साथ ही बड़े पैमाने पर आर्थिक मदद की भी दरकार होगी। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से आर्थिक मदद मिलना तभी संभव होगा जब तालिबान अपने रवैये को उदारवादी बनाए। अधिकतर देशों ने तालिबान से कहा है कि नई सरकार समावेशी होनी चाहिए, जिसमें अफगानिस्तान के सभी जातीय समूहों और क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व हो। साथ ही अल्पसंख्यकों, महिलाओं और छात्रों के अधिकार भी सुरक्षित रहें। इस अंतरराष्ट्रीय दबाव में तालिबान अपनी ओर से भरोसा दिला सकता है, लेकिन जमीन पर शायद ही वह असलियत में बदले। अधिकतर देशों ने कहा है कि वे तालिबान की कथनी नहीं बल्कि करनी पर भरोसा करेंगे।
तालिबान के विरुद्ध पंजशीर घाटी में जारी प्रतिरोध के संबंध में विश्व बिरादरी ने जैसी उदासीनता दिखाई है, उससे नहीं लगता कि वहां आने वाले दिनों में तालिबान को सभ्य समाज का हिस्सा बनने के लिए राजी कर सकेगा। पंजशीर प्रतिरोध अफगानिस्तान के हालिया घटनाक्रम का सुनहरा अध्याय है। प्रतिरोध यदि हार भी जाता है तो इतिहास में दर्ज होगा कि जब दुनिया ने हथियार डाल दिए थे तब हमने मानवता की रक्षा के लिए हथियार उठाए थे।
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