कला जगत : कलाकार का अच्छा गुरु न हो पाना
तीन दशकों की पत्रकारिता की अपनी यात्रा में विभिन्न संगीत समारोहों में जाने का अवसर मिलता रहा है। कार्यक्रमों की प्रस्तुति के लिए आने वाले कई कलाकारों को देखा है, उनके साथ शिष्य-शिष्याओं के जमावड़े को भी।
कला जगत : कलाकार का अच्छा गुरु न हो पाना |
कई कलाकार ग्रीन रूम से लेकर मंच तक अपने शिष्य-शिष्याओं से घिरे रहते हैं। ये शिष्य-शिष्याएं अपने गुरु के न रहने पर अपनी प्रतिभा से उनका नाम रोशन करते हैं, लेकिन कई ऐसे भी कलाकार रहे हैं जिनकी खूबियां उनके साथ ही खत्म हो गई सी लगती है। अव्वल तो उनके शिष्य-शिष्याएं ही काफी कम होते हैं और फिर जो होते हैं उन्हें भी इस प्रकार तालीम नहीं मिली होती है कि गुरु के बाद उनका नाम रोशन कर पाने की सामथ्र्य उनमें हो।
अगर हम विचार करें कि ऐसा क्यों होता है तो कई बातों की ओर ध्यान जाता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि एक अच्छा कलाकार होना और एक अच्छा गुरु होना, दो अलग तरह की बातें हैं और जरूरी नहीं होता कि किसी एक कलाकार में दोनों ही गुणों का संतुलन हो। अच्छे गाने-बजाने के साथ अच्छा सिखाना भी आता हो, यह जरूरी नहीं। अच्छी शिक्षा दे पाना भी अपने आप में एक साधना है, वह कला की तरह ही समर्पण की मांग करती है।
कई सारे कलाकारों के साथ ऐसा भी होता है कि उन्होंने जो सीख लिया है, वे उसे निजी जागीर बना लेते हैं और कभी नहीं चाहते कि कोई और उसे सीखे या गाए-बजाए। उन्हें लगता है कि अगर कोई और उनकी तरह गाने-बजाने लगेगा, उनकी बंदिशों को जान जाएगा तो उनका महत्त्व कम हो जाएगा। विद्या दान की जगह विद्या को चुराकर अपने पास रखे रहने की भावना उनमें अधिक होती है। बड़े कलाकारों के साथ एक और बात भी होती है कि वे अपनी दुनिया में मगन होने लगते हैं। कार्यक्रमों के सिलसिले में देश-विदेश घूमते हुए उन्हें इतना समय ही नहीं होता कि थोड़ा ठहरकर अपने शिष्य-शिष्याओं के लिए वक्त निकाल सकें, उन्हें सिखा सकें। बनारस में कई दिग्गज कलाकार रहे हैं। गायिका गिरिजा देवी के शिष्य-शिष्याओं की विशाल संख्या है, जिनमें कई गुणी कलाकार हैं। उनकी परंपरा की यह श्रृंखला बनारस और कोलकाता में खूब है जहां वे काफी दिनों तक रहीं। गिरिजा देवी अपनी शिष्याओं को परिवार की तरह अपने घर में रखकर सिखाती थीं। पंडित किशन महाराज गुरु के रूप में कठोर अवश्य थे, लेकिन उन्होंने भी सिखाने के लिए काफी वक्त दिया और बड़ी संख्या में शिष्य तैयार किए। पं. सामता प्रसाद के भी बनारस से लेकर मुंबई तक शिष्य बने, हालांकि ये कम हैं। इन सबके बीच जब पंडित लच्छू महाराज के बारे में सोचता हूं कि अगर उनके वादन की, उनकी परंपरा की कहीं झलक पानी हो तो इसे किसमें ढूंढना चाहिए, तो बहुत जोर डालने और कई लोगों से पूछने पर भी कोई नाम चर्चा में नहीं आता है।
लच्छू महाराज की इसलिए खास तौर पर चर्चा करना चाहता हूं कि उनके तबला वादन की एक अलग पहचान थी और इस पहचान को खूब सराहना भी मिली। लच्छू महाराज का वास्तविक नाम ईर नारायण सिंह था। उनके पिता वासुदेव महाराज थे। कहा जाता है कि वासुदेव महाराज को दिग्गज कलाकारों के आतिथ्य का शौक था। ऐसे में वासुदेव महाराज को बहुत सारी चीजें, बंदिशें जानने-सीखने का मौका मिलता रहा। लच्छू महाराज का पालन-पोषण और तालीम इन्हीं सबके बीच हुआ। उन्होंने कठिन साधना की। घंटों तबला वादन करते हुए वे थकते नहीं थे। उनके तबला वादन के बारे में यह प्रसिद्ध था कि उनकी तरह उत्तरार्ध का तबला वादन करने वाले बहुत कम हैं। उत्तरार्ध से तात्पर्य उन रचनाओं के वादन से है, जिन्हें तबला वादक अपने वादन के बाद के हिस्से में बजाते हैं। लच्छू महाराज को गत, फर्द जैसी रचनाओं को बजाने में महारत हासिल थी। उनके तबला वादन से जुड़े कई किस्से किवदंतियों की तरह संगीत जगत में लोकप्रिय हैं। मसलन एक बार उनके वादन से मुग्ध होकर प्रसिद्ध तबला वादक उस्ताद अहमद जान थिरकवा ने कहा था कि काश, लच्छू मेरा बेटा होता। छोटे थे, कथक नृत्यांगना सितारा देवी का तबला वादक नहीं आ पाया तो इन्हें संगत के लिए बैठा दिया गया।
सितारा देवी ने उपहास में कहा कि ये बच्चा मेरे साथ क्या बजा पाएगा, लेकिन फिर जो सिलसिला शुरू हुआ वो तभी रु का जब सितारा देवी के पैर से खून निकलने लगा। इमरजेंसी के दौरान जेल चले गए और वहां राजनेताओं को तबला सुनाते रहे, लेकिन तबला वादन की तरह लच्छू महाराज का व्यक्तित्व और मिजाज भी खूब चर्चा में रहता था। वे बनारसी रंग-ढंग में पूरी तरह रंगे हुए थे, फक्कड़, मनमौजी। मन में आया तो अच्छे से बजाया वरना मना कर दिया। सीखने के लिए बच्चे बैठे हैं, कह दिया आज नहीं सिखाएंगे जाओ। घंटों बाजार में घूमने, मिठाई खाने निकल जाना और मूड किया तो कई-कई घंटों तक रियाज करना। अपने में मस्त और मगन रहना, सम्मान को भी ठुकरा देना। बताते हैं कि उन्होंने पद्मश्री के लिए भी मना कर दिया था। वे प्रसिद्ध फिल्म कलाकार गोविंदा के मामा थे। प्रसिद्ध गायक दलेर मेंहदी के भाई शमशेर ने भी उनसे सीखा है, लेकिन लच्छू महाराज वैसे गुरु नहीं बन सके, जैसे वे तबला वादक थे। उनकी कला को बाद की पीढ़ियों में आगे बढ़ने का अवसर नहीं मिल सका।
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